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श्रीलंका की असमंजस भरी राह

श्रीलंका में राजनीतिक संकट गहराने के साथ ही विश्व के तमाम देशों की नजरें न सिर्फ कोलंबो पर, बल्कि नई दिल्ली पर भी टिक गई हैं। पड़ोसी देशों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खासा संजीदा रहे हैं, इसीलिए...

श्रीलंका की असमंजस भरी राह
कॉन्स्टेंटिनो ज़ेवियर फेलो, ब्र्रुंकग्स इंडिया Fri, 16 Nov 2018 01:18 AM
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श्रीलंका में राजनीतिक संकट गहराने के साथ ही विश्व के तमाम देशों की नजरें न सिर्फ कोलंबो पर, बल्कि नई दिल्ली पर भी टिक गई हैं। पड़ोसी देशों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खासा संजीदा रहे हैं, इसीलिए भारत से कुछ ज्यादा उम्मीदें हैं कि उसने जिस तरह मालदीव में तानाशाही व्यवस्था की राह रोकी थी, कुछ ऐसी ही सफलता वह श्रीलंका में भी दोहराएगा। पिछले हफ्ते मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम ने भी माना था कि भारत ‘लोकतंत्र की बहाली के लिए दबाव डालने’ में सक्षम है। 
हालांकि श्रीलंका, मालदीव नहीं है और पिछले दो हफ्तों का संकेत यही है कि नई दिल्ली लोकतंत्र कायम रखने के मामले में अपने सिद्धांत को प्राथमिकता दे रहा है, और ‘वेट ऐंड वाच’ यानी देखो और इंतजार करो की स्थिति में है। इस हफ्ते श्रीलंका के सुप्रीम कोर्ट का फैसला और फिर वहां की संसद में जो कुछ हुआ, वह राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना के लिए झटका और अतिरिक्त सांविधानिक माध्यमों का इस्तेमाल करके महिंदा राजपक्षे द्वारा सत्ता हथियाने का एक प्रयास ही 
माना जाएगा।
ताजा घटनाक्रम एक तरह से एशिया के इस पुराने लोकतांत्रिक देश में कानून के शासन की नीतिगत जीत जरूर है, मगर यह मौजूदा राजनीतिक संकट की जड़ें खत्म करने में सक्षम नहीं होगा। वहां अस्थिरता तब तक जारी रहेगी, जब तक आम चुनाव नहीं हो जाते। संभव है कि बर्खास्त कर दिए गए प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे कानूनी और संसदीय जंग जीत जाएं, मगर श्रीलंका की सड़कों पर अब भी सिंहली भावना वाले भव्य गठबंधन की वापसी की बयार बह रही है। उम्मीद है कि भारत संयम की अपनी मुद्रा बरकरार रखेगा, लेकिन दो आकलन बताते हैं कि नई दिल्ली को राजपक्षे की संभावित वापसी के लिए भी तैयार रहना होगा।
पहला आकलन यह कि 2015 में अस्तित्व में आए सिरीसेना-विक्रमसिंघे के अस्वाभाविक गठबंधन का स्वाभाविक अंत दो हफ्ते पहले सिरीसेना के वफादारों की पराजय से पहले ही हो गया था। एक-दूसरे को कमजोर करने की राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की लगातार कोशिशों से सरकार पक्षाघात का शिकार हो गई थी, जिसका दुष्प्रभाव भारत के साथ द्विपक्षीय रिश्ते पर भी पड़ा है। इस साल की शुरुआत में स्थानीय चुनावों में राजपक्षे की व्यापक जीत और सिरीसेना के साथ उनके नए गठबंधन को ध्यान में रखें, तो यह कयास गलत नहीं है कि उनकी संयुक्त ताकत आज नहीं तो कल सत्ता पर जरूर काबिज होगी।
कागजों पर भारत ने अब तक अपना सैद्धांतिक रुख ही दिखाया है, और वह श्रीलंका की तमाम पार्टियों से ‘लोकतांत्रिक मूल्यों और सांविधानिक प्रक्रिया’ का सम्मान करने की अपील कर रहा है। बेशक वह मौजूदा समस्या के समाधान के लिए चुपचाप किसी की तलाश कर सकता है, पर ऐसी कोई जादुई छड़ी तो नहीं घुमा सकता, जो श्रीलंका में नतीजों का स्वतंत्र निर्धारण कर सके। फिर मालदीव में जो लाभ की स्थिति थी, इस मामले में भारत के पास वह भी नहीं है, क्योंकि मालदीव में लोग साफ-साफ विपक्ष के साथ दिख रहे थे। यही वजह है कि नई दिल्ली बीते हफ्तों से औपचारिक रुख ही अपनाए हुए है। मगर अगले कुछ हफ्तों में यदि श्रीलंका का संकट बढ़ता है, तो भारत संभवत: नए चुनाव का हिमायती होगा और इसकी बहुत संभावना है कि वह चुनाव में सिरीसेना-राजपक्षे गठबंधन का साथ दे। 
दूसरा आकलन यह है कि र्मंहदा राजपक्षे पर ‘चीन समर्थक’ होने का ठप्पा भले लगाया जाता रहा हो, मगर ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि श्रीलंका के इस पूर्व राष्ट्रपति ने अपने कर्म व वचन से बार-बार यही साबित किया है कि वे ‘इंडिया फस्र्ट’ (सबसे पहले भारत) नीति के हिमायती हैं। 2006 से 2009 के दरम्यान चले गृह युद्ध का अंतिम दौर इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है, जिसमें उन्होंने तमिलनाडु फैक्टर व चीन की सैन्य सहायता जैसी तमाम चुनौतियों के बावजूद भारत का विश्वास हासिल करने में सफलता पाई थी। इतना ही नहीं, राजपक्षे ने श्रीलंका को चीन के कर्ज जाल में फंसाने वाली कई बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को मंजूरी जरूर दी, पर बीजिंग का रुख उन्होंने दिल्ली से उनके ऑफर पर इनकार के बाद ही किया था। इस ऑफर में हंबनटोटा बंदरगाह भी शामिल था, जिसे अब चीन ने 99 वर्षों के लिए लीज पर ले लिया है। यही वजह है कि पिछले सितंबर में वह प्रधानमंत्री मोदी से मिलने में सफल रहे और भारत के साथ उन्होंने वह रिश्ता फिर से जोड़ लिया है, जिसे उन्होंने 2014 में ध्वस्त कर दिया था। 
हालांकि इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि राजपक्षे ‘भारत समर्थक’ ही हैं। श्रीलंका में चीन की बढ़ती भागीदारी को देखें, तो वह जब कभी सत्ता में आएंगे, हिंद महासागर में अपने द्वीप की रणनीतिक मौजूदगी बढ़ाने के लिए भारत और चीन, दोनों के बीच संतुलन साधने का ही प्रयास करेंगे। मगर फिलहाल इन दोनों एशियाई ताकतों को साथ-साथ लेकर आगे बढ़ना उनके लिए मुश्किलों भरा काम होगा। वुहान शिखर सम्मेलन के बाद चीन अब भारत को प्रभावित करने वाले पारंपरिक क्षेत्रों में कहीं अधिक संयमपूर्ण मुद्रा अपना रहा है और संकट के समय दिल्ली की बात उदारता से मान भी रहा है। नई दिल्ली के लिए यह नई परिस्थिति मांग करती है कि वह दक्षिण एशिया के अन्य देशों के बारे में चीन के साथ गंभीरता से बातचीत करे।
राजपक्षे या किसी अन्य श्रीलंकाई नेतृत्व पर भारत-समर्थक या विरोधी का टैग लगा देना भी बहुत समझदारी भरा कदम नहीं माना जाएगा। कोलंबो में जिस तरह की राजनीतिक व्यवस्था बनेगी, वह हमेशा ‘श्रीलंका फस्र्ट’ नीति ही अपनाएगी। इसीलिए दीर्घावधि में इस द्वीप पर चीन के बढ़ते प्रभाव का तोड़ निकालने की भारत की क्षमता कमोबेश इस पर निर्भर करेगी कि यहां की सत्ता पर पकड़ किसकी होती है? और, राजनीति और सुरक्षा से इतर एक सच यह भी है कि श्रीलंका और इस क्षेत्र में भारत का दबदबा असलियत में उसकी इसी काबिलियत पर निर्भर है कि वह कनेक्टिविटी और आर्थिक परस्पर-निर्भरता संबंधी परियोजनाओं पर कितना बढ़िया और कितनी तेजी से काम कर पाता है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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