सैनिक जिनके हिस्से बदनामी आई
प्रथम विश्व युद्ध को समाप्त हुए 100 वर्ष हो गए। साल 1918 में 11 नवंबर की सुबह 11 बजकर 11 मिनट पर इस जंग का परदा गिरा था। उस ऐतिहासिक घटना को दुनिया भर में याद किया गया, मगर अपने देश में शायद ही कोई...
प्रथम विश्व युद्ध को समाप्त हुए 100 वर्ष हो गए। साल 1918 में 11 नवंबर की सुबह 11 बजकर 11 मिनट पर इस जंग का परदा गिरा था। उस ऐतिहासिक घटना को दुनिया भर में याद किया गया, मगर अपने देश में शायद ही कोई हलचल हुई। हालांकि यह कोई नई या आश्चर्य की बात नहीं है। 1964 में जब दुनिया प्रथम विश्व युद्ध की 50वीं वर्षगांठ मना रही थी, तब भी जंग में शामिल भारतीय सैनिकों को शायद ही कहीं याद किया गया था; भारत में भी नहीं। तब अपना सब कुछ बलिदान करने वाले इन सैनिकों को याद न करना कोई आश्चर्य नहीं माना गया था। ऐसा भी नहीं था कि देश में प्रथम विश्व युद्ध के स्मारकों की कोई कमी थी। मगर तब आम भावना यही थी कि औपनिवेशिक शासन से हाल-फिलहाल आजाद हुआ भारत औपनिवेशिक युद्ध में अपने सैनिकों की भागीदारी से शर्मिंदा था और इसमें याद करने जैसी कोई बात नहीं दिख रही थी।
बेशक इस युद्ध ने यूरोप के तमाम नौजवानों को अकाल मौत दी, मगर इस जंग में दूर देशों के वे सैनिक भी शामिल हुए, जिनका यूरोप की कड़वी पारंपरिक नफरत से कोई लेना-देना नहीं था। वे अपने देश के लिए नहीं लड़ रहे थे। लड़ना उनका पेशा था। वे उसी ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा कर रहे थे, जो उनके मूल वतन में उनके ही लोगों का दमन कर रहा था। जनवरी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटे महात्मा गांधी ने भी उसी तरह इस युद्ध का समर्थन किया, जिस तरह उन्होंने बोअर युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया था। हालांकि प्रथम विश्व युद्ध में साथ देने के एवज में अंग्रेजों ने भारतीयों से ऊंची लगान ही वसूली, जबकि इसके कारण कारोबार में आई रुकावट से देश व्यापक रूप से आर्थिक चोट खा चुका था। यह सब तब हुआ, जब देश इंफ्लूएन्जा की महामारी और गरीबी से जूझ रहा था।
इस सबके बावजूद भारतीय राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह या बगावत को बढ़ावा देकर ब्रिटेन की लाचारी का फायदा नहीं उठाया। वे अंग्रेजों के साथ खड़े रहे। उस दौरान अंग्रेजों के खिलाफ कोई विद्रोह नहीं हुआ, हालांकि पंजाब और बंगाल में सियासी अस्थिरता बनी रही। महात्मा गांधी ने बेशक 1917 में निलहों के पक्ष में चंपारण सत्याग्रह और गुजरात में अन्यायपूर्ण करों के खिलाफ खेड़ा सत्याग्रह की शुरुआत की, लेकिन ये सभी किसी अन्याय विशेष के खिलाफ शुरू किए गए थे, यह ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ कोई जन-विद्रोह नहीं था।
1917 तक युद्ध में मित्र देशों की सेनाएं हावी होती दिखने लगीं, तो भारतीय राष्ट्रवादी हमवतन सैनिकों के सर्वोच्च बलिदान को मान्यता देने की मांग करने लगे। इसके बाद ब्रिटेन के भारत संबंधी मामलों के सचिव सर एडविन मोंटग्यू ने संसद में ऐतिहासिक ‘अगस्त घोषणा’ करते हुए कहा कि भारत के लिए ब्रिटेन की नीति ‘प्रशासन के हर अंग में भारतीयों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की है और चूंकि भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अभिन्न अंग है, इसीलिए वहां जिम्मेदार सरकार के जीवंत एहसास के साथ-साथ भारतीयों के स्वायत्त शासकीय निकायों का क्रमिक विकास किया जाएगा’। इससे उस वक्त यही समझ बनी कि युद्ध की समाप्ति के बाद भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य (डोमिनियन स्टेटस) का दर्जा मिल जाएगा।
लेकिन ऐसा होना नहीं था। युद्ध खत्म होने के बाद ब्रिटेन वादे से मुकर गया। स्थानीय शासन की बजाय ब्रिटिश हुकूमत ने दमनकारी रॉलेट ऐक्ट लागू किया, जिसमें वायसराय को ‘राष्ट्रद्रोह’ कुचलने के लिए असीमित अधिकार दे दिए गए। प्रेस को दबाने व खबरें सेंसर करने, मुकदमा चलाए बिना राजनीतिक आंदोलनकारियों की हिरासत और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ किसी भी तरह के आचरण के संदेह मात्र से बिना वारंट किसी को भी गिरफ्तार कर लेने जैसी ताकत सरकार को दे दी गई। इन काले कानूनों के खिलाफ विद्रोह हुआ, तो उसे भी बर्बर तरीके से कुचला गया। अप्रैल, 1919 में हुआ जलियांवाला बाग नरसंहार इसी की चरम परिणति था। इससे ‘डोमिनियन स्टेटस’ मिलने और ‘प्रगतिशील स्वायत्त शासन’ की उम्मीदें जमींदोज हो गईं। तब गांधी और अन्य राष्ट्रवादियों ने यही नतीजा निकाला कि आजादी से कुछ भी कम भारत में ब्रिटिश शासन के अन्याय का अंत नहीं कर सकेगा।
विश्वासघाती अंग्रेजों ने युद्ध का जैसा कड़वा अनुभव दिया था, उसके बाद राष्ट्रवादियों की यही सोच बननी थी कि देश को ऐसा कुछ नहीं मिला है कि इन सैनिकों का आभार जताया जाए। सांसद के रूप में, मैंने दो बार राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की मांग उठाई और दोनों बार मुझे यही बताया गया कि भारत में इसे बनाने की कोई योजना नहीं है। मेरे लिए यह संतोष की बात थी, जब भारत सरकार ने एक राष्ट्रीय युद्ध स्मारक और संग्रहालय बनाने की अपनी मंशा जाहिर की और जिसे एक महीने में पूरा कर भी लिया जाएगा। निश्चय ही हम कोई सैन्य समाज नहीं हैं, मगर एक ऐसे देश के लिए, जो कई लड़ाइयों में शामिल रहा हो और जिसने अपने कई नायक गंवाए हों, वहां सैनिकों की याद या उनके सम्मान में किसी स्मारक का न होना अजीब लगता है।
मगर अब यह शताब्दी-वर्ष फिर से सोचने को मजबूर कर रहा है। कई भारतीयों के लिए, जिज्ञासा ने औपनिवेशिक युग की नाराजगी को कम किया है। अब हम प्रथम विश्व युद्ध के भारतीय सैनिकों को ऐसे इंसान के रूप में देखने लगे हैं, जिन्होंने विदेशी जमीन पर भी अपने देश के जज्बे को जिंदा रखा। दिल्ली की सेंटर फॉर आम्र्ड फोर्सेस हिस्टोरिकल रिसर्च दिन-रात उसी युग को यादगार बनाने की दिशा में काम कर रही है और पहले विश्व युद्ध में भाग लेने वाले 13 लाख भारतीय सैनिकों की बिसरी कहानी को फिर से जिंदा कर रही है।
जिस तरह साम्राज्यवाद का अंत हुआ है, उसके दमन और नस्लवाद का एहसास उसी तेजी से बढ़ा है। बड़े पैमाने पर यही सोच है कि इसके सैनिकों ने एक गलत मकसद के लिए अपनी सेवाएं दी। मगर सच यही है कि वे ऐसे लोग थे, जिन्होंने अपने कर्तव्य को भले ही जैसे भी देखा-समझा, पर उसे पूरी शिद्दत से निभाया। और वे सभी भारतीय थे। यह खुशी की बात है कि अब उनके अपने देश में उन्हें वह सम्मान मिलने लगा है, जिससे वे अब तक वंचित थे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)