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क्या कहता है आतंक का यह दौर

बीते बुधवार की अनंतनाग की घटना ने पुलवामा के दर्द को फिर से जिंदा कर दिया। जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग जिले में आतंकियों ने सीआरपीएफ के गश्ती दल पर हमला बोल पांच जवानों को शहीद कर दिया, जबकि कुछ अन्य...

क्या कहता है आतंक का यह दौर
अजय साहनी आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञSat, 15 Jun 2019 02:44 AM
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बीते बुधवार की अनंतनाग की घटना ने पुलवामा के दर्द को फिर से जिंदा कर दिया। जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग जिले में आतंकियों ने सीआरपीएफ के गश्ती दल पर हमला बोल पांच जवानों को शहीद कर दिया, जबकि कुछ अन्य जवान इसमें बुरी तरह जख्मी भी हुए हैं। 14 फरवरी को हुए पुलवामा के आतंकी हमले में 40 जवान शहीद हुए थे। दरअसल, कश्मीर में जो हालात बन रहे हैं, उसे हमें दो तरह से देखना होगा। एक तो जब वहां के हालात बहुत खराब (1990 से 2006 तक) हुआ करते थे, जिसको हम ‘हाई इंटेंसिटी कॉन्फ्लिक्ट’ कहते हैं, तब हर साल हजार से अधिक लोग मारे जा रहे थे, बल्कि इन 17 वर्षों में से 11 साल तो ऐसे थे, जिनमें 2,000 से अधिक लोग हिंसा के शिकार हुए, जबकि तीन साल में मरने वालों की तादाद 3,000 की संख्या पार कर गई थी। साल 2001 में तो 4,507 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। उसके मुकाबले अगर आज के हालात की तुलना करें, तो पिछले साल 451 लोग वहां मारे गए, जिनमें से 270 आतंकी थे। पहली नजर में यही लगेगा कि उन आंकड़ों के बरक्स यह काफी कम है। लेकिन 2012 की स्थिति के लिहाज से हालात खराब हुए हैं। तब हमारे आंकड़ों के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में 122 लोग आतंकवाद के शिकार हुए थे। सरकारी आंकडे़ तो 99 ही बताते हैं। 
सवाल यह है कि हालात बिगड़े क्यों? इसका कारण बहुत साफ है। वहां के लोगों को एक तरह से बरगलाया गया है और उनके समक्ष गलत मुद्दे उठाए गए हैं। दरअसल, चुनावी फायदे के लिए जम्मू और कश्मीर के बीच तनाव को गहराने वाली राजनीति ज्यादा की गई और इसके लिए सभी पार्टियां जिम्मेदार हैं। जम्मू में भारतीय जनता पार्टी ने अनुच्छेद-370, 35-ए और गोकशी के मुद्दों के सहारे ध्रुवीकरण की जो राजनीति की, घाटी की पार्टियों ने ‘सॉफ्ट सेपरटिज्म’ में उसका जवाब तलाशा। हम सभी जानते हैं कि अनुच्छेद-370 को हटाने के लिए केंद्र सरकार को दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत चाहिए और फिर उसे राज्य विधानसभा में भी इससे संबंधित प्रस्ताव को पारित कराना होगा। जाहिर है, वह स्थिति फिलहाल तो दूर-दूर तक नजर नहीं आती। बावजूद इसके, इस मुद्दे को बार-बार इसीलिए उठाया जाता है, ताकि जम्मू संभाग में राजनीति मजबूत की जा सके।
होना तो यह चाहिए था कि जब सूबे में आतंकी वारदातों में मरने वालों की संख्या 100 के आसपास आ गई थी, तब राजनीतिक गतिविधियां तेज की जातीं, राज्य के लोगों से खुलकर संवाद किया जाता और ऐसे भरोसे का माहौल बनाया जाता कि समस्या का हल बातचीत से निकल सकता है। तब शायद आतंकवाद आज न के बराबर वहां होता। आखिर घाटी के अलगाववादियों और पाकिस्तान को अपनी चाल चलने के मौके ही क्यों दें? 
महत्वपूर्ण बात गौर करने लायक यह है कि जम्मू-कश्मीर में जो घटनाएं होती हैं, उसके भौगोलिक दायरे को देखें, तो ये बहुत छोटे-से इलाके में हो रही हैं। उदाहरण के लिए, साल 2016 में वहां 267 लोग मारे गए थे। इनसे जुड़ी 58.42 प्रतिशत वारदातें सिर्फ पांच तहसीलों में हुईं। जम्मू-कश्मीर में कुल 82 तहसीलें हैं, जिनमें से 39 घाटी में हैं। साल 2016 से अब तक की आतंकी घटनाओं को देखें, तो लगभग 50 फीसदी घटनाएं सिर्फ पांच तहसीलों में घटी हैं। कई तहसीलों में तो एक भी घटना नहीं घटी है। इसी तरह, पत्थरबाजी की घटनाएं बुरहान वानी के समय 2016-17 में काफी बढ़ीं। तब भी राज्य के 85 पुलिस स्टेशनों में से 20 के इलाकों में ही साल 2016 में पत्थरबाजी की 65 फीसदी वारदातें हुईं, जबकि 2017 में उनमें 74 प्रतिशत ऐसी घटनाएं घटीं। साफ है, यह एक सीमित इलाका है। देश के लोग समझते हैं कि पूरे कश्मीर में आतंकवाद है, मगर हकीकत में इसका एक बेहद महदूद इलाका अलगाववाद और आतंकवाद की गिरफ्त में है। बाकी ज्यादातर इलाकों के इक्का-दुक्का घटनाएं घटती हैं।
हमें राजनीतिक विमर्श के हवाले से यह समझना होगा कि जिसके पास शक्ति होती है, विमर्श का खाका वही तय करता है, और राजनीति में ‘धारणाएं’ काफी अहम चीज होती हैं। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि इंसानियत के दायरे में हम बातचीत के जरिए हल तलाशेंगे। इसका काफी सकारात्मक असर पड़ा था। आज स्थिति यह है कि कट्टर अलगाववादी तत्वों को तो छोड़ दें, जो वहां की वैधानिक राजनीतिक शक्तियां हैं, फिलहाल वे भी विमर्श की प्रक्रिया से दूर-दूर बैठी हुई हैं। अब फिर राष्ट्रपति शासन बढ़ा दिया गया है, इसका मतलब साफ है कि राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया कुछ महीने और टल गई है। 
हमें नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवादियों की फैक्टरी इससे बंद नहीं हो सकती। साल 2016 से अब तक 750 से अधिक आतंकी मारे जा चुके हैं, मगर हमें सुखद हालात का कोई छोर नहीं दिख रहा। इससे हमारे सुरक्षा बलों की चुनौतियां भी बढ़ती जा रही हैं। सुरक्षा बल सिर्फ उनसे निपट सकते हैं, जिन्होंने बंदूकें उठा रखी हैं। वे दहशतगर्दों की भर्तियां नहीं रोक सकते। यह तो राजनीतिक मसला है। लोगों को हमें ऐसा विकल्प देना ही होगा, जिसमें उन्हें लगे कि कोई परेशानी है, तो हमारे पास ऐसे माध्यम हैं कि हम बाहर निकलकर इससे या उससे बात कर सकें। दुर्योग से वह राजनीतिक प्रक्रिया ठप पड़ गई है। हल सुरक्षा बलों के पास नहीं है। इसे तो नई दिल्ली और श्रीनगर के बीच से ही निकलना है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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