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संकट जो अपनों ने पैदा किया

सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा की चौबीस घंटों की हालिया बहाली और फिर तबादले ने जो यक्ष प्रश्न खड़ा किया है, उसे एक राष्ट्रीय दैनिक में छपे कार्टून से बेहतर समझा जा सकता है। इस कार्टून में प्रधानमंत्री...

संकट जो अपनों ने पैदा किया
विभूति नारायण राय पूर्व कुलपतिMon, 14 Jan 2019 11:52 PM
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सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा की चौबीस घंटों की हालिया बहाली और फिर तबादले ने जो यक्ष प्रश्न खड़ा किया है, उसे एक राष्ट्रीय दैनिक में छपे कार्टून से बेहतर समझा जा सकता है। इस कार्टून में प्रधानमंत्री मोदी के हाथ में एक पिंजड़ा है और उसमें बंद तोते के बारे में कार्टूनिस्ट की जिज्ञासा है कि क्या यह भी फीनिक्स की तरह अपनी राख से पुनर्जीवित हो सकता है? फीनिक्स सिर्फ मिथकों में पुनर्जीवन प्राप्त करता है, वास्तविकता कल्पना से बहुत भिन्न होती है। सीबीआई जैसी किसी संस्था की जान तो उसकी साख में बसती है और पिछले दिनों जिस तरह से उसकी साख पर आघात लगा है, उससे नहीं लगता कि यह संस्था आसानी से उबर पाएगी। एक महीने के दौरान शीर्ष पर परिवर्तन होते ही जैसे अधीनस्थों के तबादले किए गए और फिर उन्हें रद्द किया गया, उनसे यह तो स्पष्ट हो ही गया कि इस प्रतिष्ठित संस्था में गुटबंदी बहुत गहरे पैठ गई है। इसी तरह, अफसरों के सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने से भी साफ है कि संस्था में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा।

कुछ  साल पहले जब सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को पिंजड़े में बंद तोते की संज्ञा दी थी, तब किसी को आश्चर्य नहीं हुआ था। लंबे अरसे से वह अपने मालिकों की हां में हां मिलाती आ रही थी और देश इसका अभ्यस्त हो गया था। एक लंबे राष्ट्रीय विमर्श और न्यायिक सक्रियता से सरकार को सीबीआई डायरेक्टर या मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) की नियुक्ति से संबंधित सांविधानिक प्रक्रिया में ऐसे परिवर्तन करने पड़े, जिनसे यह अधिक पारदर्शी या समावेशी बन सके। अब सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति एक कमेटी करती है, जिसके सदस्य प्रधानमंत्री, लोकसभा में विरोधी दल का नेता व प्रधान न्यायाधीश होते हैं। पेच यह है कि सीबीआई के पर्यवेक्षण का जिम्मा केंद्रीय सतर्कता आयोग को मिला हुआ है और उसके मुखिया सीवीसी की नियुक्ति जो कमेटी करती है, उसके सदस्य होते हैं- प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और नेता, विरोधी दल अर्थात इसमें बहुमत सत्ता दल का ही होता है। स्वाभाविक है कि सीवीसी सरकार की पसंद का अफसर होगा, यानी सरकार का नियंत्रण इस महत्वपूर्ण जांच एजेंसी पर बना रहता है।

पूरे प्रकरण में सबसे दुखद यह था कि जिस बागवान को उपवन की देखभाल करनी होती है, वही उसकी बर्बादी का बायस भी बनता रहा है। हालांकि इसके लिए सिर्फ मौजूदा सरकार को दोषी नहीं ठहरा सकते। पहले भी सरकारें भी इस बात का खास ध्यान रखती रही हैं कि आने वाला उनके कितने काम का है? इस बार कुछ ज्यादा छीछालेदर इसलिए हुई कि ज्यादा आत्मविश्वास से लबरेज सरकार ने सांविधानिक मर्यादाओं या मीडिया की बहुत परवाह नहीं की। खुद के बनाए डायरेक्टर आलोक वर्मा से जल्दी ही उसका मन भर गया और उसने उनके उत्तराधिकारी के रूप में जिसे चुना, वह इस पद के लिए सर्वथा अयोग्य था। राकेश अस्थाना की छवि अपने काडर में ही काफी विवादास्पद थी। न सिर्फ उनकी ईमानदारी पर प्रश्न चिह्न थे, उनके विरुद्ध खुद सीबीआई में प्रकरण लंबित थे। अखबारी खबरों के मुताबिक, उन्हें सीबीआई में लिए जाने का विरोध आलोक वर्मा ने भी किया था। इसे नजरंदाज करके न सिर्फ राकेश अस्थाना को प्रतिनियुक्ति दी गई, बल्कि उनसे वरिष्ठ अधिकारियों को भी संस्था से बाहर भेज दिया गया। मकसद साफ था, जनवरी 2019 में आलोक वर्मा के रिटायर होने के बाद वरिष्ठतम अधिकारी के रूप में अस्थाना की सीबीआई डायरेक्टर के पद की दावेदारी सबसे प्रबल होती और सरकार उन्हें इस पद पर नियुक्त कराने में सफल भी हो जाती। यह न हो सका, तो सिर्फ इसलिए कि सरकार और शासक दल के महत्वपूर्ण लोगों के समर्थन के प्रति आश्वस्त अस्थाना अपने बॉस से ही भिड़ गए। ज्यादा गरम आलू की तरह सरकार को उन्हें उगलना पड़ रहा है।

इस मामले में जिस सतर्कता आयोग की रिपोर्ट पर आधी रात को सीबीआई में तख्ता पलट हुआ और बाद में जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी जांच करके रिपोर्ट देने को कहा, उसके मुखिया की विश्वसनीयता तो पहले से ही संदिग्ध थी। आलोक वर्मा ने खुलेआम आरोप भी लगाया है कि सीवीसी के वी चौधरी उनसे राकेश अस्थाना को रियायत देने की सिफारिश लेकर उनके घर पर मिलने आए थे। के वी चौधरी की सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल लिफाफा बंद रपट अब तो अखबारों को भी उपलब्ध हो चुकी है और उसे पढ़कर अधिकांश जन निराश ही होंगे। इस जांच पर नजर रखने के लिए जिन जस्टिस पटनायक को नियुक्त किया था, खुद उन्हें बहुत से तथ्य नहीं बताए गए थे। उनका कहना है कि वर्मा के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध नहीं हैं और सीवीसी की रपट को अंतिम नहीं माना जा सकता।

देश के प्रतिष्ठित न्यायविदों की सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले पर जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, वे कोई बहुत सुखद नहीं हैं। जिन जस्टिस सीकरी को प्रधान न्यायाधीश के स्थान पर आलोक वर्मा के भविष्य पर फैसला लेने वाली कमेटी में भेजा गया था, उन्हें सरकार ने कुछ ही दिनों पहले लंदन के एक ट्रिब्यूनल में नामित किया था, जहां वह मार्च में रिटायर होने के बाद पदभार ग्रहण करते। हालांकि अब खबर है कि जस्टिस सीकरी ने इस पद पर जाने से इनकार कर दिया है।

अपनी सारी कमियों के बावजूद सीबीआई एक ऐसी विवेचना एजेंसी थी, जिस पर नागरिकों का कुछ विश्वास शेष था। जिन अदालतों ने उसे तोता कहा, वे भी जरूरत पड़ने पर उसी को गंभीर मसले सौंपती थीं। कानून-व्यवस्था राज्य का विषय होने और पुलिस के बेशर्म इस्तेमाल पर पीड़ित पक्ष की तरफ से आम तौर पर मांग की जाती है कि उसका मसला सीबीआई को सौंप दिया जाए। यदि साख ही नहीं बची, तो किस विश्वास से लोग सीबीआई के पास जाएंगे? 1940 के दशक में विश्व युद्धों के परिप्रेक्ष्य में सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार से निपटने के लिए दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिश्मेंट के रूप में स्थापित और 1960 के दशक में सीबीआई बनने से लेकर आज तक के सफर में इस संस्था ने बड़े उतार-चढ़ाव झेले हैं, पर इस बार जैसा संकट इसके समक्ष आया है, वह अभूतपूर्व है। यह साख का संकट है और दुर्भाग्य से इसे उसके अपनों ने पैदा किया है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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