दक्षिण में भाजपा की आखिरी उम्मीद
काफी लंबे समय से भाजपा दक्षिणी राज्यों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश करती रही है। साल 2014 में केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के बाद पार्टी ने विधानसभा चुनावों और तमाम तरह के राजनीतिक दांव-पेच के जरिए...
काफी लंबे समय से भाजपा दक्षिणी राज्यों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश करती रही है। साल 2014 में केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के बाद पार्टी ने विधानसभा चुनावों और तमाम तरह के राजनीतिक दांव-पेच के जरिए देश के पूर्वी हिस्से में महत्वपूर्ण सफलताएं प्राप्त कीं, मगर दक्षिण भारत उसके लिए लगातार एक अबूझ पहेली बना रहा। पिछले साल तीन उत्तरी राज्यों- छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के अलावा अनेक उप-चुनावों में मिली शिकस्त के बाद से ही भाजपा की निगाहें दक्षिण पर कहीं ज्यादा गहराई से टिकी हुई हैं। माना जा रहा था कि उत्तर के अपने नुकसान की भरपाई वह दक्षिण में दमदार प्रदर्शन से कर लेगी। लेकिन तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में इसकी संख्या बढ़ने के आसार काफी धुंधले दिख रहे हैं। इसीलिए सबरीमाला मुद्दे की सवारी करके वह केरल से कुछ उम्मीदें पाले बैठी है, लेकिन वहां भी वायनाड में डेरा डालकर राहुल गांधी ने उसके लिए समस्या पैदा कर दी है।
इन परिस्थितियों में दक्षिण में पार्टी का प्रवेश द्वार बना कर्नाटक ही इसकी आखिरी उम्मीद है। भाजपा न सिर्फ कर्नाटक के जरिए दक्षिण में दाखिल होने में सफल हुई, बल्कि उसने बी एस येदियुरप्पा के नेतृत्व में वहां सरकार भी बनाई। लेकिन यह कामयाबी लंबे वक्त तक कायम नहीं रह सकी और आंतरिक कलह, कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार आदि की वजहों से वह सरकार 2011 में गिर गई। पिछले साल के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस और जनता दल (सेकुलर) के अप्रत्याशित गठजोड़ ने राज्य में एक बार फिर से भाजपा सरकार के अस्तित्व में आने की संभावना को ध्वस्त कर दिया।
भाजपा अब भी कर्नाटक विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है और सत्ता हासिल करने के लिए वह काफी दांव-पेच खेलती रही है, मगर अब तक उसे इसमें सफलता नहीं मिली है। इसलिए 2019 के चुनाव में वह अपनी दावेदारी पर नई मुहर का दांव भी चल रही है। लेकिन भाजपा की रणनीति में कोई नयापन नहीं दिख रहा है। पार्टी पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के आसरे है और दूसरे, वह हिंदुत्व के अपने मुद्दे को आगे बढ़ा रही है। अपनी सार्वजनिक सभाओं में नरेंद्र मोदी राष्ट्रवादी नारे लगा रहे हैं और उनके भाषण का अच्छा-खासा समय कांग्रेस पर हमले बोलने में बीत रहा है।
साल 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने कर्नाटक में 17 सीटें जीती थीं और जाहिर है, वह इस नंबर को बढ़ाना चाहती है। हालांकि तब मोदी लहर थी, इसके बावजूद कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया राज्य में पार्टी को नौ सीटें दिलाने में कामयाब हो गए थे और बाकी की दो सीटें जनता दल (एस) के पाले में गई थीं। भाजपा ने उत्तरी इलाके में शानदार प्रदर्शन किया था और उसने बेंगलुरु की तीनों सीटें जीत ली थीं। पार्टी 2019 में उसी प्रदर्शन को दोहराना चाहती है, लेकिन पार्टी को नवंबर 2018 में एक बड़ा झटका लगा, जब इसके बड़े नेता अनंत कुमार की कैंसर से मृत्यु हो गई। उनकी पत्नी तेजस्विनी टिकट की आस लगाए बैठी थीं। लेकिन पार्टी ने उनकी बजाय एक तेजतर्रार युवा नेता तेजस्वी सूर्या को टिकट दिया है। इससे यह संकेत मिलता है कि भाजपा ने समाज सेविका के तौर पर ख्यात तेजस्विनी की बजाय एक प्रखर हिंदुत्ववादी कार्यकर्ता को तवज्जो दी है, जो हिंदुत्व को आक्रामक रूप से पेश कर सके। तेजस्वी खुद भी पार्टी के फैसले से हैरान दिखे थे।
कर्नाटक में आरएसएस का हमेशा से एक प्रभाव रहा है। इस राज्य से आरएसएस के कई बडे़ नेता निकले। राज्य में इसकी कई शाखाएं हैं और सामान्य शाखाओं के अलावा यह संगठन आईटी पेशेवरों के लिए विशेष शाखाएं संचालित करता है। बेंगलुरु के आसपास ही ऐसी लगभग 150 शाखाएं लगती हैं। धुर हिंदुत्व विचारधारा के अलावा भाजपा राज्य की जातिगत गणना को लेकर भी काफी सतर्क है। राज्य की दो वर्चस्वशाली जातियों- लिंगायत और वोक्कालिगा में से पार्टी लिंगायतों के ज्यादा करीब रही है। येदियुरप्पा इसी जाति के सबसे
बड़े नेता हैं।
कर्नाटक में इस बार दो चरणों में संसदीय चुनाव हो रहे हैं, दोनों चरणों में 14-14 लोकसभा क्षेत्रों के लिए मतदान होंगे। कर्नाटक एक शांत प्रदेश है। ऐसे में पहली बार दो चरणों में चुनाव कराए जाने के कदम ने कई विश्लेषकों को चौंकाया है। राज्य के पहले चरण में ज्यादातर दक्षिणी और मध्य कर्नाटक की सीटों के लिए 18 तारीख को वोट डाले जाएंगे। राज्य में दूसरे चरण का मतदान 23 अप्रैल को होगा। दक्षिणी कनार्टक में कांग्रेस-जनता दल (एस) गठबंधन मजबूत स्थिति में है, तो उत्तरी इलाके में भाजपा।
कर्नाटक देश का दूसरा सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त सूबा है। पहले नंबर पर महाराष्ट्र है। इसीलिए अनेक संसदीय क्षेत्रों में किसान काफी नाराज दिख रहे हैं और वे बड़ी सजगता के साथ इस बात का आकलन कर रहे हैं कि कौन उन्हें ज्यादा लाभ पहुंचा सकता है। पिछले 15 वर्षों में कर्नाटक को 12 साल सूखा झेलना पड़ा है और इस साल भी बारिश कम हुई है। यहां कृषि कर्ज योजना के कमजोर क्रियान्वयन, किसानों की आय दोगुनी करने के वादे को पूरा करने में नाकामी और नोटबंदी के नतीजों को लेकर केंद्र के खिलाफ भी गुस्सा है। कई सारे
छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों ने अपनी परेशानियों से मुक्ति के लिए मनरेगा योजना में अपना नाम दर्ज
कराया है।
हालांकि आंकड़ों के लिहाज से कांग्रेस-जद (सेकुलर) गठबंधन कागज पर मजबूत नजर आता है, लेकिन भाजपा यहां कोई कसर नहीं छोड़ रही। फिर पड़ोसी तमिलनाडु और केरल में नरेंद्र मोदी को स्थानीय भावनाओं को देखते हुए अंग्रेजी में भाषण देना पड़ रहा है, मगर कर्नाटक में उनकी ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। दूसरे दौर के मतदान के लिए जिस तरह वह उत्तर भारत में प्रचार अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं, उसी तरह कर्नाटक में सक्रिय हैैं। यहां दोनों में से कोई भी पक्ष अपना हथियार डालने को तैयार नहीं दिख रहा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)