जमाने का धिक्कार और प्रेम की पहेली
प्यार हमेशा से खतरनाक शब्द रहा है। इसकी वजह से सभ्यताओं की चूलें हिलती हैं। धर्म, जाति, देश और व्यवस्था की बुनियादें कांपती हैं। वर्चस्व के कायदे दरकते हैं, शील और संकोच की दीवारें गिर जाती हैं। शायद...
प्यार हमेशा से खतरनाक शब्द रहा है। इसकी वजह से सभ्यताओं की चूलें हिलती हैं। धर्म, जाति, देश और व्यवस्था की बुनियादें कांपती हैं। वर्चस्व के कायदे दरकते हैं, शील और संकोच की दीवारें गिर जाती हैं। शायद इसीलिए दुनिया भर में प्रेमी-प्रेमिकाओं को मारने-पीटने, जलाने, संगसार करने, चरित्रहीन करार देने का एक पूरा सिलसिला रहा है।
करिश्मा यह है कि इतनी मार, इतने धिक्कार के बावजूद प्रेम बचा रहा है। दुनिया ने इस प्रेम को भरमाने के बहुत जतन किए। प्रेम को उदात्त रूप दिए गए। ईश्वर से प्रेम, मनुष्य से प्रेम, मां-बेटे, भाई-बहन का प्रेम सब जोड़ दिए गए। लेकिन जिस रिश्ते को कोई नाम न दिया जा सके, वह प्रेम बिल्कुल ढीठ की तरह बचा रहा। यही नहीं, इस प्रेम ने दुनिया को जीने लायक बनाया, सुंदर, सरस और मधुर बनाया। प्रेम न होता, तो दुनिया का महानतम साहित्य न होता, मधुरतम संगीत न होता, बहुत सारी कलाएं न होतीं, मनुष्य होने का सुख न होता। दिल में कोई उमड़-घुमड़ न होती, तो कोई क्यों कविता पढ़ता? कोई क्यों गीत लिखता? कोई क्यों संगीत रचता? क्यों चित्र बनाता? क्यों प्रकृति के रंगों में खो जाता?
वैसे प्रेम का विरोध सिर्फ परंपरा नहीं, आधुनिकता भी करती रही है। आधुनिक साहित्य की एक धारा प्रेम को दकियानूसी विषय मानती है। उसको लगता है कि असली साहित्य वह है, जो समाज के बारे में हो, शोषण के खिलाफ हो, बराबरी और बदलाव के पक्ष में हो, क्रांति की अलख जगाता हो। एक हद तक यह बात सच है। लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि अगर प्रेम न होता, अगर मशीन की तरह जिए जाने का चलन होता, तो शायद बराबरी और मानवता की बात भी नहीं होती, क्रांति का स्वप्न भी नहीं होता।
प्रेम बहुत सूक्ष्म होता है और बहुत विराट भी। वह हमसे हमारी पहचान भी कराता है और कई बार उस पहचान से हमें मुक्त भी करता है। रवींद्रनाथ टैगोर की एक रचना है, जिसमें प्रेमी दरवाजे पर दस्तक देता है। प्रेमिका पूछती है, कौन? प्रेमी कहता है- मैं। दरवाजा नहीं खुलता। वह प्रेमी बाद में आता है। दस्तक देता है। प्रेमिका पूछती है, कौन। प्रेमी कहता है- तुम। दरवाजा खुल जाता है। गुरुदेव का संदेश है- प्रेम में मैं और तुम का अंतर मिट जाता है।
व्याख्याएं तो और भी हैं। उपन्यासकार आयन रैंड लिखती है- किसी से यह कहने के पहले कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं, यह समझना जरूरी है कि मैं कौन हूं?
प्रेम की पहेली यही है- वह मैं का ऐसा विस्तार है, जिसमें सब कुछ समा जाता है। प्रेम की इसी ताकत से दुनिया डरती है। वैसे प्रेम भी अंतत: एक भावना है। हमारी दूसरी भावनाओं की ही तरह। हमारे गुस्से की तरह, हमारी ईष्र्या की तरह, हमारी शर्म की तरह, हमारी तृष्णा की तरह। सारी भावनाओं की तरह प्रेम भी सच्चा-झूठा होता है, वह भी दिखावे की तरह किया जा सकता है। सच्चा प्रेम अगर आपको शहीद बनाता है, तो झूठा प्रेम शिकार। प्रेम की नाकामी कहीं ज्यादा बड़ी हताशाओं में धकेलती है। कई बार हम यह भी नहीं जान पाते कि प्रेम के नाम पर जो अधिकार भाव हम अपने भीतर पैदा कर लेते हैं, वह सबसे पहले प्रेम को ही मार डालता है। बहुत गहरे और डूबकर किए गए प्रेम की परिणतियां भी कई तरह उदासी, उबासी, टूटन, घुटन और अंतत: नफरत तक पहुंच जाती हैं। इकतरफा प्रेम इसी सिलसिले का एक बेढंगा विस्तार है, जिसके कभी-कभी सिहरा देने वाले नतीजे भी दिखते हैं, तेजाबी हमलों की शक्ल में।
प्रेम सबसे सुकुमार और पवित्र तब होता है, जब वह अव्यक्त-अनकहा होता है। वह महसूस किए जाने के लिए होता है। जैसे ही यह सूक्ष्मता रिश्तों के किसी स्थूल समीकरण में ढल जाती है, कामना के किसी गह्वर में उतर आती है, तो प्रेम नहीं बचता। या तो उसका प्रदर्शन बचता है या फिर उसका भ्रम।
दुर्भाग्य से हमारे समय में प्रेम कम दिखता है, उसका प्रदर्शन या भ्रम ज्यादा दिखता है। इन दिनों बाजार हमें प्रेम करना सिखा रहा है। कबीर ने भले कहा था कि प्रेम न बाड़ी उपजै प्रेम न हाट बिकाए, राजा परजा जेई रुचै, सीस देई ले जाए। या जिगर ने भले समझाया- ये इश्क नहीं आसां, इतना ही समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। लेकिन बाजार ने प्रेम को शहादत की जगह तिजारत का सामान बना डाला है, एक आसान सी शै में बदल डाला है, जिसे खरीदा-बेचा, पाया-लौटाया जा सकता है। प्रेम अब उपभोग का मामला है, जिसकी बाजार ने तारीखें भी तय कर दी हैं। एक दिन प्रस्ताव का, एक दिन वादे का, एक दिन मुलाकात का और एक दिन प्रेम का। लेकिन बाजार अकेला नहीं है, जो प्रेम को उद्योग में बदल रहा है। उत्तर-आधुनिक समय की भयावह रफ्तार भी प्रेम को कुचल रही है। यह काया का समय है, आत्मा का नहीं। प्रेम में दैहिकता का ताप ज्यादा है, आत्मा का उल्लास कम। उसे एक क्षण में बनने वाले झाग की तरह जिया जाना है और अगले पल भूल जाना है। अब प्रेम बहुत हिसाब-किताब से, सयानेपन के साथ किया जाता है। वह रिश्तों में बढ़ते उचाटपन से निपटने का मन बहलाव भी हो गया है- इस एहसास के बिना कि यह प्रेम नहीं, प्रेम का खो जाना है। शायद इसी तरह के प्रेम के लिए दो सदी पहले मीर तकी मीर ने कहा था- इश्क इक मीर भारी पत्थर है, कब ये तुझ ना-तवां से उठता है।
लेकिन यह अंतिम बात नहीं है। अंतिम बात यह है कि तमाम सामाजिक प्रदूषण के बावजूद, तमाम बाजारवादी प्रलोभनों के बाद भी, प्रेम बचा रहता है। शायद इसलिए कि वह जीवन के बचे रहने की शर्त है। ऐसे जोड़े अब भी मिल जाते हैं, जो पूरी दुनिया को चकमा और चुनौती देते हुए अपने हिस्से के प्रेम की जगह निकाल रहे होते हैं। कई सौ बरस पहले अमीर खुसरो जो उलटबांसी हमारे लिए छोड़ गए थे, वह अब भी बनी हुई है- खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार/ जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)