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क्या कभी उनका सही आकलन होगा

हम आज उनकी 129वीं जयंती मना रहे हैं, और जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा था, उसे भी आधी सदी से ज्यादा का समय बीत चुका है। लेकिन इस लंबे दौर में देश के पहले प्रधानमंत्री और महात्मा गांधी के बाद उस...

क्या कभी उनका सही आकलन होगा
हरजिंदर वरिष्ठ पत्रकारWed, 14 Nov 2018 01:27 AM
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हम आज उनकी 129वीं जयंती मना रहे हैं, और जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा था, उसे भी आधी सदी से ज्यादा का समय बीत चुका है। लेकिन इस लंबे दौर में देश के पहले प्रधानमंत्री और महात्मा गांधी के बाद उस दौर के निस्संदेह सबसे लोकप्रिय नेता जवाहरलाल नेहरू का शायद ही कभी ईमानदार विश्लेषण सामने आया हो। शुरू के दौर में तो शायद वह आ भी नहीं सकता था। वह परंपरा लंबी चली, जो खुद को नेहरू से जोड़कर देखती थी। इस परंपरा में प्रधानमंत्री के रूप में लाल बहादुर शास्त्री का कार्यकाल भी शामिल है और मनमोहन सिंह का भी। यह आकलन थोड़ा कठिन होगा कि इस लंबे दौर में जो नेतृत्व सत्ता में पहुंचा, उसकी कामयाबी में कितना योगदान खुद उसके राजनीतिक कौशल का था और कितना नेहरू की महिमा का? कितना वे खुद अपने पांवों से आगे बढ़े और कितना उस सम्मोहन ने उन्हें बढ़ाया, जिसका नाम नेहरू था? 

आजादी के बाद के अपने पूरे राजनीतिक जीवन में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया इसी सम्मोहन के पीछे लठ लेकर घूमते रहे। उन्हें यकीन था कि सम्मोहन टूटा, तो सब कुछ बदल जाएगा। फिर जो जमीनी लड़ाई होगी, उसमें आमने-सामने सब बराबर होंगे। वे लगातार बराबरी की इस लड़ाई के लिए जमीन भी तैयार करते रहे। पिछड़ी और निचली जातियों व अल्पसंख्यकों को जोड़कर कांग्रेस को मात देने की जो रणनीति उन्होंने बनाई, वह आज देश के कई हिस्सों में फलीभूत होती दिख रही है। लेकिन लोहिया के समय यह पूरी तरह फलीभूत नहीं हुई, क्योंकि उन्होंने रणनीति तो बना ली थी, लेकिन सम्मोहन को वह कभी नहीं तोड़ सके। नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री के समय और इंदिरा गांधी के शुरुआती सत्ताकाल में लोहिया उतना शास्त्री और इंदिरा के खिलाफ खड़े नहीं दिखते थे, जितना कि नेहरू के खिलाफ। लोहिया उस दौर के अकेले नेहरू विरोधी नहीं थे। वे लोग भी थे, जो मानते थे कि आजादी के बाद भारत में धर्मध्वजा की स्थापना होनी चाहिए थी। हर महीने प्रीवी पर्स बटोरने वाले पुराने राजाओं का दल भी था, जो कांग्रेस को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त करने को तैयार नहीं था। वे लोग भी, जो पूरी ईमानदारी से मानते थे कि नेहरू के वामपंथी रुझान ने देश के विकास के कई रास्ते बंद कर दिए हैं। और साम्यवादी तो कभी तय ही नहीं कर सके कि नेहरू पूंजीवाद के प्रतिनिधि हैं या नेशनल बुर्जुआ। लेकिन नेहरू के आभामंडल के सामने ये सभी बेबस थे। ये उनकी बेबसी ही थी, जिसने नेहरू के बारे कई ऐसे किस्से-कहानियां प्रचारित करने के लिए बाध्य किया, जिसे आज की भाषा में फेक न्यूज कहा जाता है।

सम्मोहन के इस दौर में ईमानदार विश्लेषण की उम्मीद भला कैसे की जा सकती थी? लेकिन सम्मोहन इसका अकेला कारण नहीं था। एक कारण दिल्ली में बैठी सरकार भी थी। इसलिए उन दिनों आकाशवाणी पर, दूरदर्शन पर, तरह-तरह की गोष्ठियों और सम्मेलनों में तमाम विद्वान जब नेहरू का जिक्र करते, तो समझना मुश्किल होता कि जो वे कह रहे हैं, उसे खुद कितना मानते हैं। नेहरू के बारे में उनके मुख से वचन निकल रहे हैं, उसमें कितनी उनकी नेहरू के प्रति समझ है और कितनी शासकों के लिए की गई चापलूसी? उस दौर में 55 की उम्र पार करने वाला कोई भी प्रोफेसर या अफसर जब सार्वजनिक मंच से जवाहरलाल नेहरू की तारीफ करता, तो यही माना जाता कि वह अपने रिटायरमेंट की तैयारी कर रहा है। 

यह सब नेहरू की महानता का सही आकलन करने में हमेशा बाधक बना रहा। दुनिया भर में नेहरू की इस बात के लिए तारीफ हुई कि अंग्रेजी शासन से मुक्त होने के बाद नेहरू ने भारत को लगातार लोकतांत्रिक बनाए रखा। नेहरू के सामने यह विकल्प हमेशा खुला था कि वह अपनी लोकप्रियता का फायदा उठाते हुए अनुशासन के नाम पर या विकास के नाम पर कोड़ा उठाते और उसे फटकारने लगते। उस दौर में आजाद हुए दुनिया के तमाम देशों ने यही किया। नेहरू ने उनका यह तर्क कभी नहीं स्वीकारा कि जब सब ठीक हो जाएगा, तो देश में लोकतंत्र स्थापित कर दिया जाएगा। हालांकि ऐसे तमाम बातों के लिए नेहरू की तारीफ करने वालों के मन में यह शक भी बना ही रहा कि भारत कब तक लोकतांत्रिक रह पाएगा या फिर कब तक एक रह पाएगा? नेहरू की तारीफ में हमारे विद्वान भी इन्हीं सब तर्कों को उठाए घूमते रहे, लेकिन भारत की स्थितियों के हिसाब से घरेलू मुहावरे से नेहरू की मुक्तकंठ तारीफ कभी सुनने को नहीं मिली। नेहरू को वैसी तारीफ कभी नसीब ही नहीं हुई, जैसी आलोचना उन्हें राम मनोहर लोहिया ने दी।

अब हम जहां खड़े हैं, वहां से नेहरू युग बहुत दूर जा चुका है। इस लिहाज से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि अब नेहरू का ईमानदार विश्लेषण हो सकता है। लेकिन नहीं, अभी जो दौर है, उसमें नेहरू को उनके समकालीन व्यक्तित्वों के विरोध में खड़ा करके देखे जाने की परिपाटी चल पड़ी है। कभी उन्हें सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ खड़ा किया जाता है, कभी सरदार पटेल के और यहां तक कि महात्मा गांधी के खिलाफ भी। हालांकि इनमें से ज्यादातर का जवाहरलाल नेहरू से कोई बड़ा विरोध था ही नहीं। दशकों तक जो नायक रहा, उसे अब खलनायकत्व दिया जा रहा है। कभी नेहरू वोट मिलने की गारंटी हुआ करते थे, अब नेहरू विरोध में भी वोट बैंक की संभावना खोजी जा रही है। 

पर वोटों की इस राजनीति से अलग असल सवाल यह है कि क्या जवाहरलाल नेहरू को कभी ईमानदार विश्लेषण नसीब होगा? कहा जाता है कि किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व का सही विश्लेषण उसके सौ साल बाद ही हो सकता है, क्योंकि तब तक तकरीबन चार-पांच पीढ़ियां गुजर चुकी होती हैं और नया वर्तमान खुद को इतिहास से पूरी तरह कटकर अलग हो चुका होता है। इस लिहाज से हमें शायद अभी आधी सदी का और इंतजार करना पड़े। पर जिस देश में मुगल काल और उसके बाद का पूरा इतिहास ही वोटों की राजनीति के लिए इस्तेमाल हो रहा हो, वहां आधी सदी के बाद की कोई बात गारंटी के साथ नहीं कही जा सकती।

(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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