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नोटा निर्णायक नहीं

जब राजनीतिक दल चुनाव हारते हैं, तो वे कुछ न कुछ बहाने ढूंढ़ने शुरू कर देते हैं। जब कोई सत्तारूढ़ पार्टी कुरसी गंवाती है, तो आत्म-विश्लेषण करने की बजाय वह अमूमन मतदाताओं को ही दोष देने लगती है और फौरन...

नोटा निर्णायक नहीं
संजय कुमार निदेशक, सीएसडीएसFri, 14 Dec 2018 12:55 AM
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जब राजनीतिक दल चुनाव हारते हैं, तो वे कुछ न कुछ बहाने ढूंढ़ने शुरू कर देते हैं। जब कोई सत्तारूढ़ पार्टी कुरसी गंवाती है, तो आत्म-विश्लेषण करने की बजाय वह अमूमन मतदाताओं को ही दोष देने लगती है और फौरन सत्ता-विरोधी रुझान को हार की वजह बता देती है। इन दिनों, जब से मतदाताओं को ‘इनमें से कोई नहीं’ यानी नोटा का विकल्प मिला है, राजनीतिक दल अपनी हार का ठीकरा मतदाताओं पर फोड़ने लगे हैं। उनके बयान होते हैं कि चूंकि काफी संख्या में वोटरों ने ‘नोटा’ का इस्तेमाल किया, इसीलिए वे हार गए। राजनीतिक पार्टियों का यह तर्क जायज हो सकता है, जब मुकाबला काफी नजदीकी हो और जीत-हार का अंतर मामूली। लेकिन कुल मिलाकर, देश में शायद ही ऐसा कोई चुनाव याद आता है, जब नोटा ने चुनाव-परिणाम को पलटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो।
हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें, तो जब कांग्रेस और भाजपा के बीच काफी करीबी मुकाबला रहा है। मध्य प्रदेश में तो दोनों पार्टियों के बीच वोटों का अंतर 0.1 फीसदी रहा, जबकि राजस्थान में 0.5 प्रतिशत। भाजपा ‘नोटा’ को अपनी हार की वजह बता रही है। हालांकि बात सिर्फ भाजपा की नहीं है, यदि कांग्रेस भी इस स्थिति में होती, तो वह भी यही राग अलापती। अब तो जनता भी मानने लगी है कि चुनावों में नोटा का विकल्प काफी महत्वपूर्ण बन गया है।
मगर हकीकत कुछ और है। हालिया चुनाव-परिणाम बताते हैं कि तेलंगाना को छोड़कर बाकी चारों राज्यों में ‘नोटा’ के तहत पड़े वोटों की संख्या में गिरावट आई है। पिछले चुनाव में मध्य प्रदेश में 1.9 फीसदी वोट नोटा में पड़े थे, जबकि इस बार 1.4 प्रतिशत रहे। राजस्थान में भी यह 1.9 फीसदी से गिरकर 1.3 प्रतिशत रहा, तो छत्तीसगढ़ में तीन फीसदी से नीचे गिरकर 1.9 प्रतिशत और मिजोरम में 0.6 फीसदी से गिरकर 0.4 फीसदी पर आ गया। केवल तेलंगाना में नोटा वोटों में वृद्धि हुई है, हालांकि वह भी बहुत मामूली है। वहां पिछली बार 0.7 फीसदी वोट नोटा में पड़े थे, जो इस बार एक फीसदी पर आ गया है। जाहिर है, बीते पांच वर्षों में नोटा के प्रति मतदाताओं में बहुत बड़ा आकर्षण पैदा नहीं हुआ है। और यह स्थिति सिर्फ इन पांच राज्यों में नहीं है, बल्कि हाल के वर्षों में जहां-जहां चुनाव हुए, वहां-वहां गिने-चुने लोगों ने ही ‘नोटा’ का इस्तेमाल किया है।
2014 के लोकसभा चुनाव में भी देश भर में 1.08 फीसदी मतदाताओं ने नोटा पर बटन दबाया था। पुडुचेरी को छोड़कर किसी दूसरे सूबे में शायद ही नोटा के तहत गिरे मतों की संख्या उल्लेखनीय मानी जाएगी। वहां कुल तीन फीसदी मतदाताओं ने इस बटन को दबाया था, जबकि मेघालय में 2.8 फीसदी वोटरों ने। बाकी सभी राज्यों में दो फीसदी वोट भी नोटा में नहीं डाले गए। अपने देश के एक लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में औसतन 27 लाख वोटर हैं। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि नोटा के ये छोटे मत-प्रतिशत बड़ी संख्या में चुनावी परिणाम को बदल सकेंगे।
यह धारणा भी बडे़ पैमाने पर है कि चुनाव क्षेत्र का आकार यदि छोटा हो, तो नोटा उपयोगी औजार साबित हो सकता है। कुछ हद तक ऐसा लगता भी है। खासकर स्थानीय चुनावों में यह असरदार हो सकता है। मगर भारतीय मतदाता विधानसभा चुनावों में एक व्यावहारिक विकल्प के तौर पर इसका इस्तेमाल शायद ही करते हैं। हालिया विधानसभा चुनावों से पहले देश में विभिन्न राज्य विधानसभाओं के 31 बार चुनाव हुए थे। इन सभी चुनावों में नोटा वोट का औसत 2014 के आम चुनाव के आस-पास ही रहा। सिर्फ बिहार में 2.4 फीसदी मतदाताओं ने नोटा के बटन दबाए, बाकी राज्यों में यह दो फीसदी के आंकडे़ को भी पार नहीं कर पाया। लिहाजा यह धारणा भी खंडित हो जाती है कि निर्वाचन क्षेत्र छोटा होने पर मतदाता नोटा के इस्तेमाल की सोच सकते हैं। हालांकि निर्वाचन क्षेत्र का आकार यदि बड़ा हो (हिंदी पट्टी के राज्यों में एक निर्वाचन क्षेत्र में चार से पांच लाख वोटर होते हैं), तब भी इतने कम नोटा वोट शायद ही नतीजे को प्रभावित कर पाएं। हां, कुछ विधानसभा क्षेत्र जरूर हो सकते हैं, जहां जीत-हार के अंतर से अधिक नोटा वोट पड़े हों, लेकिन आमतौर पर इस तरह की सीटें विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच बंटी होती हैं। 
हालिया नतीजों में भी यह देखने को मिला है। मसलन, मध्य प्रदेश के 23 विधानसभा क्षेत्रों में नोटा के वोट जीत के अंतर से अधिक थे। मगर इनमें से 10 सीटें भाजपा, तो 12 कांग्रेस के खाते में गईं। बाकी एक बुरहानपुर सीट पर निर्दलीय ने बाजी मारी। राजस्थान की कहानी भी इससे अलग नहीं है। वहां भी 16 विधानसभा सीटों पर नोटा के वोट जीत-हार के अंतर से अधिक थे। मगर ये सीटें समान रूप से दोनों दलों के खाते में गए। यहां आठ पर भाजपा, तो सात पर कांग्रेस प्रत्याशी ने जीत दर्ज की। एक सीट पर निर्दलीय ने महज 251 मतों से बाजी मारी। छत्तीसगढ़ में भी आठ विधानसभा सीटों पर जीत के अंतर से अधिक नोटा पर मतदाताओं ने भरोसा जताया। मगर इनमें से तीन सीटें भाजपा, दो कांग्रेस और तीन जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के खाते में गईं।
इन आंकड़ों से यह भ्रम पैदा हो सकता है कि पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में इस बार नोटा ने कहीं अधिक चुनावी नतीजों को प्रभावित किया, मगर यह भी सच नहीं है। 2013 के राजस्थान चुनाव में भाजपा को कांग्रेस की तुलना में 12 फीसदी अधिक मत मिले थे, तब भी 11 सीटें ऐसी थीं, जहां नोटा के वोट जीत-हार के अंतर से अधिक थे। इनमें से छह भाजपा, तीन कांग्रेस और दो एनपीपी के खाते में गई थीं। मध्य प्रदेश में भी भाजपा को कांग्रेस की तुलना में आठ फीसदी अधिक वोट मिले थे, मगर 26 विधानसभा सीटों पर नोटा जीत के अंतर पर भारी पड़ा। इनमें से 14 सीटों पर भाजपा, 10 पर कांग्रेस और एक-एक पर बसपा व निर्दलीय ने जीत हासिल की। लगभग ऐसा ही छत्तीसगढ़ में रहा। ऐसे में, क्या हम कह सकते हैं कि इस बार के विधानसभा चुनावों में नोटा ने अहम भूमिका निभाई?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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