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जटिल चुनावी बिसात पर तेलंगाना

नवगठित राज्य तेलंगाना 7 दिसंबर को विधानसभा के लिए मतदान करने जा रहा है। मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने समय से आठ महीने पहले ही इसे भंग कर दिया था, ताकि लोकसभा चुनावों के साथ विधानसभा चुनाव की नौबत न...

जटिल चुनावी बिसात पर तेलंगाना
एस श्रीनिवासन वरिष्ठ पत्रकार, दक्षिण एक्सप्रेसTue, 13 Nov 2018 02:07 AM
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नवगठित राज्य तेलंगाना 7 दिसंबर को विधानसभा के लिए मतदान करने जा रहा है। मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने समय से आठ महीने पहले ही इसे भंग कर दिया था, ताकि लोकसभा चुनावों के साथ विधानसभा चुनाव की नौबत न आए और वे इसे स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित कर सकें। तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नेता और केसीआर नाम से लोकप्रिय के चंद्रशेखर राव ने सोची-समझी रणनीति के तहत दो कयासों के आधार पर यह जोखिम लिया है। पहला यह कि मतदाता उन्हें एक और मौका देंगे, क्योंकि इस सूबे को गठित हुए महज साढ़े चार साल हुए हैं और उन्हें (केसीआर को इसके गठन का श्रेय दिया जाता है) अपना विजन पूरा करने के लिए और समय मिलना चाहिए। दूसरा, उनकी यह आश्वस्ति है कि सामाजिक कल्याण योजनाओं की शृंखला शुरू करने के कारण उन्हें वोटरों का साथ मिलेगा। 
केसीआर के दांव की सफलता में कोई शक न होता, लेकिन अचानक ही मुकाबले में विपक्षी पार्टियों का महागठबंधन ‘महाकुटुंबी’ आ गया। इस महागठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस कर रही है और इसकी मुख्य ताकत कभी उसकी कट्टर विरोधी रही टीडीपी है। वाम पार्टियां और कोडंदरम द्वारा बनाई गई तेलंगाना जन समिति भी इस संयुक्त मोर्चा की घटक हैं।
लगता है कि कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए चुनाव बाद जिस तरह कांग्रेस और जद (एस) की गठबंधन सरकार बनी, उसने चंद्रबाबू नायडू को प्रेरित किया होगा कि वह तेलंगाना में भी एक ऐसा गठबंधन बनाएं, जिसके बारे में कोई सोच भी न रहा हो। नायडू की टीडीपी की स्थापना 1980 के दशक में उनके ससुर एनटी रामा राव ने की थी और इसका मुख्य उद्देश्य उस ‘अहंकारी कांग्रेस’ को सबक सिखाना था, जिसने ‘तेलुगु अस्मिता को चोट पहुंचाई थी’। मगर अब करीब चार दशक के बाद नायडू, केसीआर को हराने के लिए उसी कांग्रेस से हाथ मिला चुके हैं।
एक लोकप्रिय कहावत है कि राजनीति में कोई स्थाई मित्र या दुश्मन नहीं होता, लेकिन तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के मामले में इन दोनों कद्दावर नेताओं, नायडू और केसीआर के बीच गहरे मतभेद हैं। दोनों नेता आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद से ही एक-दूसरे को चोट पहुंचाने में जुटे हुए हैं। हालांकि नायडू विभाजन के बाद आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रहे, पर उनकी किस्मत ऊपर-नीचे भी खूब होती रही है। उन्होंने भव्य योजनाएं बनाई थीं, जिसमें सूबे के लिए एक नई विश्व स्तरीय राजधानी अमरावती भी शामिल थी। उन्हें भरोसा था कि इसके लिए केंद्र उन्हें अच्छी-खासी मदद देगा। दूसरी तरफ, तेलंगाना के गठन के बाद से अपने ‘सरप्लस’ बजट के साथ केसीआर ने लोक-कल्याण के कई कार्यक्रम शुरू किए और अपना राजनीतिक आधार मजबूत बनाया। वास्तव में, केसीआर को यह उम्मीद थी कि वह भाजपा और कांग्रेस को दूर रखते हुए एक फेडरल फ्रंट का नेतृत्व करेंगे, जो केंद्र में सरकार बनाएगी। मगर केंद्र से आंध्र प्रदेश के लिए विशेष राज्य का दर्जा पाने में विफल रहने वाले नायडू ने एनडीए से नाता तोड़ लिया। अब वह विपक्षी एकता की बात कर रहे हैं, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है। 
भले ही नायडू ने पूरा जोर लगा रखा हो, मगर यह देखा जाना अभी बाकी है कि यह कोशिश कांग्रेस पार्टी के लिए तेलंगाना में, आंध्र प्रदेश में और फिर राष्ट्रीय स्तर पर कितनी सफल होगी? पहली नजर में तो यही लगता है कि कांग्रेस और टीडीपी के साथ आने से विधानसभा चुनावों में उनके वोट बढ़ने चाहिए। मगर चूंकि राजनीति कोई अंकगणित नहीं है, इसलिए आलोचकों का कहना है कि यह समझौता कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि टीआरएस और भाजपा, दोनों के लिए नायडू सियासी दुश्मन हैं। दोनों ही कांग्रेस के साथ ‘अनैतिक’ गठबंधन बनाने के लिए नायडू की ही आलोचना कर रहे हैं। टीआरएस नेताओं का तो यह भी कहना है कि आखिर वह पार्टी (टीडीपी) कैसे वोट मांग सकती है, जो खुलकर यहां के विकास का विरोध करती रही हो? कांग्रेस ने इसका कोई मुखर जवाब अभी तक नहीं दिया है।
जहां तक आंध्र प्रदेश का सवाल है, तो वहां विधानसभा चुनाव 2019 में लोकसभा चुनावों के साथ होंगे। नायडू के लिए यह एक मौका है कि वह आंध्र के लिए कोई भी फैसला लेने से पहले तेलंगाना में कांग्रेस के साथ चुनाव में उतरने से हासिल नतीजों का गुणा-भाग कर सकें। रही बात राष्ट्रीय राजनीति की, तो भाजपा जैसे प्रतिद्वंद्वी से टकराने के लिए कांग्रेस और टीडीपी, दोनों के लिए साथ-साथ आगे बढ़ना ही संभवत: सबसे अच्छा विकल्प होगा।
तेलंगाना में मुस्लिम वोटों को सुरक्षित करने के 
लिए केसीआर ने असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ गठबंधन किया है, जबकि भाजपा के साथ चुनाव बाद गठबंधन का विकल्प खुला रखा गया है। भाजपा ने भी यही घोषणा की है कि वह अकेली चुनाव में उतरेगी और हरियाणा की तरह सूबाई सियासत में नई ईबारत लिखेगी, मगर तेलंगाना में हालात हरियाणा जैसे नहीं हैं। संसदीय चुनावों का सामना करने के लिए पार्टी को साफ तौर पर टीआरएस जैसे क्षेत्रीय दलों की जरूरत है। देखा जाए, तो तेलंगाना का चुनाव दो विचारों की जंग है- पहले के खेवनहार क्षेत्रीय विकास के साथ केसीआर हैं और जिसे भाजपा का मूक समर्थन हासिल है। दूसरा है महागठबंधन, जो केंद्र में कांग्रेस की वापसी करा सकता है। कर्नाटक के उलट, तेलंगाना में कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा नहीं है। वैसे, गठबंधन का नेतृत्व उसी के हाथों में होगा, पर चुनावी नतीजा बड़े पैमाने पर इस पर निर्भर करेगा कि केसीआर व नायडू के बीच छद्म युद्ध किस तरह लड़ा जाता है?
बहरहाल, अभी केसीआर लीड लेते दिख रहे हैं। कांग्रेस अब भी राज्य में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है। वह सत्ता-विरोधी रुझान और गठबंधन की ताकत में ही अपने लिए उम्मीद देख सकती है। केसीआर ने बड़ी चालाकी से समय-पूर्व चुनाव का दांव खेलकर कांग्रेस और भाजपा, दोनों से यह मौका छीन लिया है कि वे चुनावी जंग को राष्ट्रीय मुकाम पर ले जाएं। हालांकि केसीआर की पहली चुनौती यही होगी कि वह एक बार फिर उत्तरी तेलंगाना में फतह करें, जिसने कुल 54 सीटों में से 45 सीटें उनकी झोली में दी थी और साल 2014 में बहुमत तक पहुंचाया था। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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