वह कुंभ और आज का मेगा इवेंट
कुंभ बचपन से ही जीवन का सबसे आवश्यक आयोजन, सबसे जरूरी हिस्सा बन गया, क्योंकि मेरा जन्म और पालन-पोषण इलाहाबाद के गंगा तट पर स्थित दारागंज उपनगर मोहल्ले में हुआ। किशोरावस्था में मैंने ब्रिटिश राज का...
कुंभ बचपन से ही जीवन का सबसे आवश्यक आयोजन, सबसे जरूरी हिस्सा बन गया, क्योंकि मेरा जन्म और पालन-पोषण इलाहाबाद के गंगा तट पर स्थित दारागंज उपनगर मोहल्ले में हुआ। किशोरावस्था में मैंने ब्रिटिश राज का अंतिम कुंभ पर्व देखा था, जिसकी तमाम यादें आज भी स्मृति पटल पर ताजा हैं। धुरी राष्ट्र और मित्र राष्ट्रों के बीच युद्ध का यह निर्णायक समय था। यूरोप, अफ्रीका, एशिया, जापान और अमेरिका तक युद्ध से भीषण तबाही करने वाली आग लगातार फैल रही थी। ब्रिटिश सरकार ने साफ कह दिया था कि वह प्रयाग कुंभ में इस बार कोई व्यवस्था नहीं कर सकती। युद्ध ही उसकी प्राथमिकता थी और उसी युद्ध की वजह से कई संकट भी खड़े दिख रहे थे। उस जमाने में लोहे की इतनी कमी थी कि व्यवसायी बबूल के कांटे को रंगकर उसे पिन बनाकर बेचते थे। कपड़ा और अनाज राशन की दुकान पर मिलते थे, जहां उनके लिए लंबी लाइनें लगती थीं। वह तरह-तरह की खबरों, अफवाहों और आशंकाओं का दौर था।
ऐसी विषम परिस्थितियों में तीर्थयात्रियों का प्रयाग कुंभ में शामिल होना बहुत कठिन था। लेकिन मकर संक्रांति से पहले भीड़ चारों दिशाओं से आने लगी। तत्कालीन ओटीआर (अवध त्रिभुत रेलवे), बीएनडब्ल्यूआर (बंगाल नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे) और ईआईआर की रेलवे लाइनों के किनारे पैदल चलते लाखों श्रद्धालुओं का हुजूम प्रयाग में उमड़ने लगा। सिर पर गठरी, गठरी में अनाज, मुख में जय, जय, जय प्रयागराज महाराज, तीर्थ की शान कहाने वाले गंग-जमुन की बरुई रेत मा मइया ने हिंगोले घलाय मा जैसे लोकगीतों का गायन करते ऊर्जा, स्फूर्ति पाकर और थकान को बिसारकर तीर्थयात्री संगम में डुबकी लगाने के लिए इकट्ठे हुए, तो अंगरेज अफसर इन तीर्थयात्रियों को विस्मय से देखते रह गए।
जल्द ही तकरीबन पूरे देश से ही लोग वहां जुट गए। पेशावर और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत से आने वाले तीर्थयात्रियों की वेशभूषा सबसे अलग थी। लेकिन उनकी भावना सनातन परंपरा से जुड़ी हुई थी। उन दिनों पेट्रोल की कमी थी। लॉरियों के पीछे कोयले और पानी की टंकी लगाई जाती थी। भाप के ईंधन से लॉरियां चलती थीं। जीटी रोड जैसी बड़ी सड़कें ज्यादा नहीं थीं। इसलिए आस्था से लबरेज तीर्थयात्री रेलवे लाइन के किनारे-किनारे चलकर संगम सिंहासन के सामने हाजिरी देने और श्रद्धा प्रकट करने के लिए आए थे। इन श्रद्धालुओं को देखने की उत्सुकता भी कम नहीं थी। अंगरेज अधिकारियों और उनकी पत्नियों का हाथी पर सवार होकर मेला क्षेत्र का अवलोकन करना भी एक खास नजारा बन जाता था। श्रद्धालु नंगे पैर, नंगे सिर पर गठरी रखकर जयकारा लगाते हुए संगम की ओर जाते थे। इस मौके पर पहुंचे अंगरेजों के पास मेले के विहंगम दृश्य को देखने के लिए दूरबीन होती थी। पर तीर्थयात्री उनकी ओर गौर नहीं करते थे। उन्हें तो सम्राटों के सम्राट तीर्थ मुकुट वेणीमाधव के दर्शन की कामना होती थी।
अविभाजित भारत की आबादी उस समय लगभग 40 करोड़ थी। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल और हिंद के व्यवसायी तब हर जगह सम्मान की नजरों से देखे जाते थे। वे भी प्रयागराज की महिमा से उसी तरह जुड़े थे, जैसे अन्य राज्यों से आए आस्थावान, श्रद्धालु होते हैं। कुंभ मेला क्षेत्र में विविधता में एकता की भावना साकार होती दिखती था। विविधता का वह रूप किसी राजनीति या विचार से नहीं उपजा था, वह हमारी परंपरा के विस्तार को बताने वाला था। यह भावना हमारे संतों, अध्यात्म चिंतकों, मनीषियों की देन है।
कुंभ सदियों से सूचना संचार का सशक्त माध्यम रहा है। उसके लिए किसी को निमंत्रण नहीं दिया जाता, किसी को बुलाया नहीं जाता, कुंभ के आयोजन में जाने के लिए न कोई प्रचार-प्रसार होता है और न अभियान चलता है, बल्कि पंचांग में जो तिथि छपती है, श्रद्धालु उसे पढ़-समझकर कुंभ पर्व पर खिंचे चले आते हैं। वे सत्संग की प्रेरणा और सरोकार को ग्रामवासियों तक पहुंचा देते हैं। यह सनातन परंपरा सदियों से चली आई है, और अनंत काल तक चलती रहेगी।
कुंभ पर्व की आत्मा है अध्यात्म चिंतन, मनन, सत्संग और मंथन। सदियों के अंतराल से इसका रूप बदलता रहा है। अमृत पर्व कुंभ की पुराणों में जो कहानी कही गई है, वह समुद्र मंथन से जुड़ी है। इस समय ग्रह समूह पृथ्वी पर विचरकर निश्चय ही यज्ञ आदि का पोषण करते हुए धरती की कल्याण कामना से तेज का प्रकाश करते हैं। इसके नतीजे से पाप का नाश होता है और उसे कुंभ पर्व योग कहा जाता है। प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में महाकुंभ पर्व अनेक ग्रह राशियों के संयोजन से मनाया जाता है। हरिद्वार और प्रयाग के कुंभ पर्व में साधु-संतों, दशनामी संन्यासियों और वैष्णव अखाड़ों की सुविधा, सम्मिलन तथा सनातन धर्म की नई समस्याओं पर विचार करने के लिए मनाया जाता है। यह अखाड़ों की सुविधा और सम्मिलन के लिए महत्वपूर्ण होता है।
पहले इस अवसर पर इन सभी जगहों पर हर तरफ फूस की झोपड़ियां ही दिखती थीं, लेकिन अब आधुनिक सुविधाओं से युक्त टेंट सिटी बसने लगी है। गैस, बत्ती की जगह लाखों बल्बों से गंगा-जमुन का प्रवाह झिलमिल हो जाता है। कभी सरकारों की भूमिका इसकी व्यवस्थाओं को सुचारु रूप से चलाने तक ही सीमित होती थी, अब सरकारें इसके तमाम आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं। इस मेगा इवेंट मैनजमेंट की परतों तले अध्यात्म का संदेश कहीं नेपथ्य में न चला जाए, इसकी चिंता मनीषियों को करनी चाहिए, क्योंकि कुंभ भावनात्मक एकता का प्रतीक है। यह भारतीय जन-जीवन, संत-महात्माओं के आध्यात्मिक चिंतन, जीवन-दर्शन और भारतीय संस्कृति से जुड़ा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)