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ऐसे तो और उलझेगा सीमा विवाद

भारत और चीन के बीच तनाव की आग फिर से सुलग उठी है। अब बीजिंग ने अरुणाचल प्रदेश के असाफिला इलाके में भारतीय सेना की गश्ती का मसला उठा दिया है। उसकी नजर में यह ‘अतिक्रमण’ की कार्रवाई है।...

ऐसे तो और उलझेगा सीमा विवाद
शशांक  पूर्व विदेश सचिवThu, 12 Apr 2018 01:58 AM
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भारत और चीन के बीच तनाव की आग फिर से सुलग उठी है। अब बीजिंग ने अरुणाचल प्रदेश के असाफिला इलाके में भारतीय सेना की गश्ती का मसला उठा दिया है। उसकी नजर में यह ‘अतिक्रमण’ की कार्रवाई है। जबकि अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी हिस्से सुबानसिरी पर भारतीय ध्वज हमेशा से लहराता रहा है। अलबत्ता, इंडो-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) की एक रिपोर्ट भारतीय सीमा में चीनी घुसपैठ की कहानी जरूर सामने ला रही है। इसके अनुसार, पिछले दिनों चीन की सेना ने लद्दाख में पैंगोंग झील के पास भारतीय सीमा में छह किलोमीटर अंदर तक घुसपैठ की थी। रिपोर्ट यह भी बता रही है कि पिछले एक महीने में चीन करीब 20 बार भारतीय सीमा में दाखिल होने की कोशिश कर चुका है।  
थोड़े-थोडे़ अंतराल के बाद हर बार इस तरह की आने वाली खबरें भारत और चीन, दोनों देशों के लिए अच्छी नहीं मानी जाएंगी। कहा यही जाता है कि यदि एशिया की प्रगति में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभानी है और विश्व अर्थव्यवस्था में विकास का इंजन बनना है, तो दोनों देशों को साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा। मगर असलियत इससे कोसों दूर लग रही है। चीन की तरफ से वक्त-बेवक्त, बिना वजह विवादों को तूल दिया जाना बताता है कि वह एक दोस्त व पड़ोसी के रूप में विश्वसनीय नहीं है। खास तौर से तब तो और, जब वह खुलकर ‘आतंकवाद का अड्डा’ बन चुके पाकिस्तान की हरसंभव मदद करता दिखता हो। 
भारत और चीन के बीच तनाव की मूल वजह अब तक सीमा का निर्धारण न हो सकना है। दोनों के बीच अधिकार-क्षेत्र को बांटने का काम वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी ही करती है। हालांकि सीमा-निर्धारण के प्रयास होते रहे हैं। वर्किंग लेवल यानी कामकाज के स्तर पर, विदेश सचिव जैसे बड़े स्तरों पर और भारतीय प्रधानमंत्री व चीन के उनके समकक्ष के निजी प्रतिनिधियों के स्तर पर भी इसका समाधान तलाशा जाता रहा है। मगर सफलता अब तक नहीं मिल सकी है। पिछले सात दशकों के इतिहास में सिर्फ तीन भारतीय प्रधानमंत्रियों राजीव गांधी, नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी का कार्यकाल ही ऐसा रहा, जब इस दिशा में थोड़ी-बहुत उपलब्धि हासिल हो सकी है। इन तीनों प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में भारत और चीन के द्विपक्षीय समझौते आपसी समझ के स्तर पर पहुंचे। इसी दौरान दोनों देश सीमा रेखा पर छोटा-मोटा फेरबदल करने के लिए राजी हुए और लोगों को कोई असुविधा भी नहीं हुई।
दोनों देशों की आम भावना किसी तरह के विवाद के पक्ष में नहीं है। लोग यही चाहते हैं कि एशिया की दो बड़ी ताकत होने के कारण भारत और चीन के आपसी रिश्तों में संतुलन बने। जाहिर है, इसके लिए सभी विवादों का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत करके निकाला जाना चाहिए। मगर ऐसा होता नहीं है। फिर जब टकराव की खबरें लोगों के बीच अलग-अलग माध्यमों से पहुंचती हैं, तो उनमें एक खास तरह की अपेक्षा पैदा हो जाती है, जिसके बाद सरकार के पास भी बहुत ज्यादा विकल्प नहीं रह जाता।
चीन जिन वजहों से भारत से खफा है, वह जगजाहिर है। उसे लगता है कि भारत उसकी नीतियों की राह में बड़ी बाधा बनकर खड़ा है। उसकी ‘वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव’ (ओबीओआर) को नई दिल्ली से समर्थन न मिलना उसे नागवार गुजरा है, जबकि सच यही है कि किसी तरह की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजना से भारत को कोई आपत्ति नहीं है। नई दिल्ली ने दरअसल इस परियोजना के अंतर्गत सिर्फ पाक अधिकृत कश्मीर में होने वाले निर्माण-कार्य को लेकर ऐतराज जताया है। पाक अधिकृत कश्मीर में किसी तरह की कोई गतिविधि भारत की संप्रभुता में स्वाभाविक तौर पर दखलंदाजी है। 
नई दिल्ली चीन के उन प्रयासों से भी खफा है, जो वह पाकिस्तान और वहां पल रहे आतंक के आकाओं को बचाने के लिए करता रहता है। पिछले दिनों जब फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीए ने पाकिस्तान को आतंकियों को फंड देने वाले संदिग्ध देशों वाली सूची में शामिल करने की कार्रवाई की, तब भले ही चीन ने पाकिस्तान का हाथ थोड़ा झटका हो, लेकिन संयुक्त राष्ट्र जैसे बडे़ मंचों पर वह खुलकर इस्लामाबाद का बचाव करता रहा है। जबकि पाकिस्तान में लहलहाती आतंक की फसल भारत को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचाती है। यही तमाम बातें जब कूटनीतिक हलकों से बाहर निकल आती हैं, तो चीन हमें एक ऐसा पड़ोसी देश दिखने लगता है, जो दक्षिण एशिया की राजनीति में दखल देने को उत्सुक है और भारत-विरोध की रणनीति अपना रहा है।
इन सबके समाधान के लिए दोतरफा प्रयास जरूरी हैं। पहले विवादित मसलों को सुलझाया जाना चाहिए, और फिर सीमा-विवाद का निपटारा होना चाहिए। इसके लिए दोनों देशों को समान धरातल पर आना होगा। चीन ऐसा कोई विवाद पैदा न करे, जिससे आपसी रिश्तों में खटास बढ़े। इसके अलावा, उसे यह भी समझना होगा कि सैन्य समाधान बहुत दूर तक नहीं ले जा सकता।          यह सांप के गुजर जाने के बाद लकीर को पीटने जैसा होगा। कूटनीतिक समाधान ही किसी मसले का स्थाई  हल हो सकता है। 
भारत कभी भी तनाव के पक्ष में नहीं रहा है। वह सीमा पर सिर्फ अपने अधिकार की वकालत करता है। दुनिया भर में पिछले 10 वर्षों में यही धारणा बनी है कि चीन दबाव की राजनीति कर रहा है। यही बात भारत सहित कई दूसरे देशों को परेशान कर रही है। बीजिंग को अपनी यह रणनीति बदलनी होगी। उसे विस्तारवादी नीति से बचना होगा। पश्चिमी चीन सागर में उसने जो हालात पैदा कर दिए हैं, वह उसे हिंद महासागर में नहीं दोहरा सकता। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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