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राष्ट्रीय राजनीति में नायडू का दांव

चार दशकों से भी लंबे अपने राजनीतिक जीवन में एन चंद्रबाबू नायडू ने कई जोखिम उठाए और अनेक चुनौतियों का सामना किया, मगर मौजूदा चुनौती उन सबसे अलहदा है। यह उनके पूरे राजनीतिक करियर को बना भी सकता है और...

राष्ट्रीय राजनीति में नायडू का दांव
दक्षिण एक्सप्रेस एस श्रीनिवासन वरिष्ठ पत्रकारMon, 10 Dec 2018 11:07 PM
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चार दशकों से भी लंबे अपने राजनीतिक जीवन में एन चंद्रबाबू नायडू ने कई जोखिम उठाए और अनेक चुनौतियों का सामना किया, मगर मौजूदा चुनौती उन सबसे अलहदा है। यह उनके पूरे राजनीतिक करियर को बना भी सकता है और मिटा भी सकता है। दरअसल, इस चुनौती को ‘लोकतांत्रिक जरूरत’ करार देते हुए नायडू ने केंद्र में भाजपा के खिलाफ क्षेत्रीय और राष्ट्रीय र्पािटयों का एक गठबंधन ‘पीपुल्स फ्रंट’ खड़ा करने का बीड़ा उठाया है। इस फ्रंट के गठन में नायडू की सफलता या नाकामी का राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा असर पड़ेगा।

यूं तो चंद्रबाबू नायडू की इस कवायदके पीछे कई वजहें हैं, मगर उनमें से सबसे बड़ी वजह अपने वजूद की है। अपने सूबे आंध्र प्रदेश में अपनी सरकार को बनाए रखने के लिए वह वाईएसआर कांग्रेस के साथ एक जबर्दस्त सियासी संग्राम लड़ रहे हैं। अगर 2019 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने किसी तरह से अपनी हुकूमत बचा भी ली, तब भी उन्हें केंद्र में एक मुफीद सरकार की दरकार होगी, ताकि वह राजधानी अमरावती की महत्वाकांक्षी योजना पूरी कर सकें। भारत में जब-जब केंद्र में कोई बहुत मजबूत या फिर बेहद कमजोर सरकार होती है, तो क्षेत्रीय पार्टियां अपनी पूरी ऊर्जा के साथ राष्ट्रीय पार्टियों से मुकाबले के लिए एकजुट हो जाती हैं। और जब भी केंद्र में कोई संतुलित व स्थिर सरकार होती है, तो वे सामान्य रूप से अपने-अपने राज्य के कामों में जुटी रहती हैं, लेकिन तब भी राष्ट्रीय राजनीति में कुछ हद तक अपनी पकड़ बनाए रखती हैं, ताकि किसी बड़ी अड़चन के बगैर केंद्र से उनको वित्तीय मदद मिलती रहे। राज्य में सत्ता और केंद्र में गठबंधन सुख को तमिलनाडु और जम्मू-कश्मीर के राजनेताओं ने बखूबी साधा है। 

चंद्रबाबू नायडू इससे आगे गए, बल्कि केंद्र में सरकार के गठन में भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई। यह सही है कि इस तरह की कोशिश करने वाले वह अकेले क्षत्रप नहीं हैं, कई अन्य लोगों ने भी ऐसा किया है, मगर नायडू का रिकॉर्ड सबसे बेहतर है। 1989 में उनके ससुर एन टी रामाराव ने राष्ट्रीय मोर्चा का गठन किया था, जिसका नेतृत्व पूर्व जनता पार्टी ने किया। आंध्र प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के एक साल बाद ही 1996 में नायडू संयुक्त मोर्चा के संयोजक बन गए। उस वक्त के बड़े नेता और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु के अलावा नायडू को भी प्रधानमंत्री बनने की पेशकश की गई थी। लेकिन तब उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए परदे के पीछे से प्रबंधक की भूमिका चुनी थी। 1999 में इन्होंने दिशा बदली और यह भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल हो गए। उन्हें इसका फायदा भी हुआ और उनकी पार्टी लोकसभा सीटों के लिहाज से एनडीए में दूसरी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी। 

नायडू के सितारे 1995 के मुख्यमंत्री काल में सबसे बुलंद थे। 1991 में जब उन्हीं के सूबे से आने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने देश में आर्थिक सुधारों की नींव रखी, तो अन्य राजनेताओं के उलट नायडू ने इस कदम का समर्थन किया था। बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने अपने सूबे में आर्थिक उदारीकरण को अधिक उत्साह और स्पष्टता के साथ अपनाया। नायडू ने हैदराबाद में साइबराबाद बसा डाला और सूचना प्रौद्योगिकी के विश्व मानचित्र पर इसे ला खड़ा किया। उस वक्त वह विश्व बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के चहेते थे। उन्होंने प्रशासन में ढांचागत सुधारों के लिए विश्व बैंक से कर्ज लिए और खुद को सूबे का सीईओ घोषित करते हुए राज्य-प्रशासन में एक नई शब्दावली गढ़ी।

उन्होंने ‘जन्मभूमि’ कार्यक्रम के जरिए विकास का विकेंद्रीकरण किया और इस काम में उनके पार्टी कार्यकर्ताओं और नौकरशाहों ने अहम भूमिका निभाई। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों से नायडू बेहतर संपर्क नहीं बना पाए और 2004 के विधानसभा चुनावों में उन्हें शिकस्त खानी पड़ी। सत्ता में वापसी के लिए उन्हें एक दशक तक इंतजार करना पड़ा और 2014 में आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद ही यह संभव हुआ। कभी उन पर आश्रित रहे के चंद्रशेखर राव यानी केसीआर ने तेलंगाना में अपना परचम लहराया और उनके सियासी शत्रु बन गए। राज्य के बंटवारे में नायडू को हैदराबाद खोना पड़ा। वही राजधानी, जिसे बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने बड़े चाव से संवारा था। नायडू ने संकल्प लिया कि ‘सिंगापुर’ की तरह ही वह अपने राज्य के लिए एक नई राजधानी गढ़ेंगे। उन्होंने इसके लिए अमरावती को चुना। जाहिर है, इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए उन्हें हजारों करोड़ रुपये की जरूरत थी और जब उन्होंने पाया कि केंद्र सरकार राशि मुहैया नहीं करा रही, तो उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से राजनीतिक किनारा कर लिया।

अस्तित्व के संकट ने चंद्रबाबू नायडू को यह कहने को मजबूर किया कि कांग्रेस और टीडीपी वैचारिक रूप से एक ही पाले में हैं। उन्होंने यह बयान तेलंगाना में कांग्रेस के साथ अकल्पनीय गठजोड़ के बाद दिया था। इस प्रयोग का नतीजा आज दोपहर तक पता चल जाएगा। अगर ‘महाकुटुंबी’ नामक यह गठबंधन तेलंगाना में चुनाव जीतता है, तो 2019 के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में वह अपने नाम का दांव फेंक सकते हैं। पड़ोसी कर्नाटक में जेडी (एस)-कांग्रेस गठबंधन के प्रयोग ने भी नायडू को तेलंगाना में चुनाव-पूर्व गठबंधन के लिए प्रेरित किया, ताकि संसदीय चुनाव की बड़ी पटकथा रचने में इसका लाभ उठाया जा सके।

यदि एग्जिट पोल के मुताबिक, केसीआर तेलंगाना में अपनी सत्ता बचा लेते हैं और उत्तर भारत के तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस 2-1 की बढ़त लेती है, तब भी नायडू भाजपा विरोधी फ्रंट की अगुवाई जारी रखेंगे। गौर करने वाली बात यह भी है कि वह एकमात्र नेता हैं, जो खुलेआम कहते हैं कि ‘भाजपा विरोधी कोई भी मोर्चा कांग्रेस के बगैर मुमकिन नहीं’। लेकिन वह कांग्रेस और ममता बनर्जी, मायावती तथा अखिलेश यादव जैसे क्षेत्रीय नेताओं के बीच पुल बन सकते हैं, यह अभी उन्हें साबित करना है।

इसके अलावा, राकांपा सुप्रीमो शरद पवार और ओडिशा के नवीन पटनायक के साथ भी नायडू  समीकरण साध सकते हैं। लेकिन ये सारी योजनाएं बेमानी हो जाएंगी, अगर नायडू तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में विफल हुए। नायडू ने जोखिम भरा दांव तो चल दिया है, नतीजे का इंतजार कीजिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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