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आर्थिक संकट की गहराई

आर्थिक मोर्चे पर हमारा देश इस समय बाहरी और घरेलू, दोनों तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है। अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों में अमेरिका-चीन, अमेरिका-यूरो जोन और अमेरिका-मेक्सिको के बीच जारी ‘ट्रेड...

आर्थिक संकट की गहराई
अरुण कुमार अर्थशास्त्रीMon, 10 Jun 2019 06:12 AM
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आर्थिक मोर्चे पर हमारा देश इस समय बाहरी और घरेलू, दोनों तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है। अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों में अमेरिका-चीन, अमेरिका-यूरो जोन और अमेरिका-मेक्सिको के बीच जारी ‘ट्रेड वार’ (कारोबारी जंग) महत्वपूर्ण तो हैं ही, भारत पर सीमा शुल्क लगाने संबंधी अमेरिकी चेतावनी भी खासा महत्व रखती है। अमेरिका ने ईरान, वेनेजुएला, रूस जैसे तेल-उत्पादक देशों पर भी प्रतिबंध लगा दिए हैं, जबकि इराक, सीरिया, यमन, लीबिया, नाइजीरिया, सूडान जैसे बड़े तेल-उत्पादक देश पहले से ही काफी अस्थिर हैं। तेल पर हमारी निर्भरता ज्यादा है, इसलिए इन तमाम उथल-पुथल का असर हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। जब कभी तेल-अर्थव्यवस्था पर संकट बढ़ता है, हमारी माली हालत बिगड़ने लगती है। इससे हमारा भुगतान-संतुलन गड़बड़ाने लगता है, महंगाई बढ़ने लगती है और राजकोषीय व चालू खाता घाटा आंखें दिखाने लगते हैं। जाहिर सी बात है कि बाहरी चुनौतियों का हम अकेले हल नहीं निकाल सकते, इसलिए जरूरी है कि हम स्थानीय चुनौतियों से पार पाएं। कहा भी जाता है कि घरेलू आर्थिक स्थिति यदि बेहतर हो, तो अंतरराष्ट्रीय मुश्किलों से टकराया जा सकता है।
घरेलू मोर्चे पर सुस्त आर्थिक रफ्तार, बेरोजगारी, कृषि संकट जैसी कई समस्याएं हमारे सामने हैं। मुश्किल यह है कि आमतौर पर संगठित क्षेत्र पर ही ध्यान दिया जाता है, जबकि तमाम मुश्किलें असंगठित क्षेत्र से शुरू हुई हैं, वह भी पिछले तीन वर्षों में। करीब सात फीसदी विकास दर के दावे भले ही किए जा रहे हों, पर कई अन्य आंकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते। विकास दर सिर्फ संगठित क्षेत्र के आंकड़ों के आधार पर तैयार की जाती है, जो जांचने का सही तरीका नहीं है। असंगठित क्षेत्र की बिगड़ती सेहत के कारण पिछले तीन वर्षों से ‘वास्तविक’ विकास दर कहीं नीचे है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि 45 फीसदी अर्थव्यवस्था को समेटने वाले असंगठित क्षेत्र में करीब 10 फीसदी कार्य-बल कम हुआ है, यानी यहां 4.5 फीसदी की गिरावट आई है। जबकि संगठित क्षेत्र, जो 55 फीसदी अर्थव्यवस्था को समेटता है, सात फीसदी की दर से यानी 3.8 फीसदी सालाना बढ़ रहा है। इन दोनों आंकड़ों का योग ऋणात्मक एक फीसदी (-4.5+ 3.8) के करीब है। इसमें अगर कृषि क्षेत्र के आंकड़ों को भी जोड़ दें, जो 2.4 फीसदी से सालाना बढ़ रहा है, तो विकास दर असलियत में एक-डेढ़ फीसदी ही होती है।
असंगठित क्षेत्र की बेहतरी हमारी अर्थव्यवस्था के लिए काफी महत्वपूर्ण है। कृषि संकट भी इसी से जुड़ा है। देश का लगभग 94 फीसदी कार्य-बल असंगठित क्षेत्र में लगा है। यहां लोगों की आमदनी कम होने का अर्थ है, खाद्यान्न की मांग में कमी। खाद्यान्नों की कीमतें गिरने से किसानों को अपनी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। फिर, ढांचागत खामियों की वजह से कृषक समाज न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी बहुत ज्यादा फायदा नहीं उठा पाता। यह असंगठित क्षेत्र की बदहाली ही है कि मनरेगा की तरफ लोगों का झुकाव लगातार बढ़ रहा है। शहरी क्षेत्रों के असंगठित मजदूर गांव लौटकर मनरेगा से जुड़ रहे हैं। यह हालत तब है, जब 100 दिनों की बजाय उन्हें सिर्फ 45 दिन का काम मिल रहा है। लोग इस कदर मनरेगा को लेकर उत्सुक हैं कि नोटबंदी से पहले इस योजना के लिए 38 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए जाते थे, जो अब बढ़कर 60 हजार करोड़ रुपये हो गए हैं। कल्पना कीजिए, यदि सभी लाभार्थियों को मनरेगा के तहत 100 दिनों का रोजगार मिलने लगा, तो आवंटित राशि बढ़ाकर एक लाख 20 हजार करोड़ रुपये करनी होगी।
नोटबंदी के अलावा वस्तु एवं सेवा कर, यानी जीएसटी ने भी असंगठित क्षेत्र को चोट पहुंचाई है। जीएसटी में भले ही असंगठित क्षेत्र को छूट दी गई है, लेकिन इसने इसका नुकसान ही किया है। छूट मिलने की वजह से इस क्षेत्र में इनपुट क्रेडिट नहीं मिलता, नतीजतन संगठित क्षेत्र की तुलना में असंगठित क्षेत्र की लागत तो बढ़ती ही है, इसके लिए उत्पादों को बेचना भी महंगा हो जाता है। यदि कोई संगठित क्षेत्र यहां से माल खरीदता भी है, तो उसे ‘रिवर्स चार्ज’ देना पड़ता है, यानी जो टैक्स असंगठित क्षेत्र के व्यापारी को देना चाहिए, वह संगठित क्षेत्र का व्यापारी चुकाता है। इससे संगठित क्षेत्र के व्यापारी का लागत-मूल्य स्वाभाविक तौर पर बढ़ जाता है, और वह असंगठित क्षेत्र से उत्पाद खरीदने से हिचकता है। जीएसटी से अखिल भारतीय कंपनियों (संगठित क्षेत्र) को ‘स्केल इकोनॉमी’ मिल जाती है, यानी उनको जहां सस्ता माल मिलता है, वे खरीद लेती हैं और उसका भंडारण भी इच्छानुसार करती हैं। लेकिन असंगठित क्षेत्र के व्यापारी स्थानीय स्तर पर माल बेचते हैं और ‘स्केल इकोनॉमी’ के लाभ से वंचित रह जाते हैं। 
मांग की कमी जैसी स्थिति अब संगठित क्षेत्र में भी दिखने लगी है। यह तस्वीर पिछले एक-डेढ़ साल में बदली है, इसलिए हमारी विकास दर गिर रही है। ऐसे में, यह कहना गलत नहीं होगा कि लगभग सभी घरेलू चुनौतियों के केंद्र में असंगठित क्षेत्र है, इसलिए इनका हल भी असंगठित क्षेत्र को बेहतर करके ही निकलेगा। इस क्षेत्र में रोजगार-सृजन के प्रयास करने होंगे और निवेश बढ़ाना होगा। यहां जब तक मांग नहीं बढ़ेगी, संगठित क्षेत्र में भी सुस्ती बनी रहेगी। गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) पर छाए संकट के बादल भी दूर करने होंगे। संगठित क्षेत्र अपने लिए टैक्स में राहत की मांग करता रहता है, लेकिन इसका बहुत ज्यादा फायदा नहीं होने वाला। लोगों की क्रय क्षमता बढ़ाने के लिए हमें असंगठित क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान देना होगा। वैसे भी, ऑटोमेशन की वजह से संगठित क्षेत्रों से नौकरियां खत्म हो रही हैं और नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे। असंगठित क्षेत्र में ऐसी स्थिति नहीं है। यहां निवेश करने से रोजगार संकट का भी हल निकलेगा। लिहाजा, जरूरी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, गांवों की सड़क, ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि पर खासतौर से निवेश बढ़ाए जाएं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सींचा जाए। इसी से असंगठित क्षेत्र की सेहत सुधरेगी, कृषि संकट दूर होगा, संगठित क्षेत्र मजबूत होगा और देश सही मायनों में विकास का गवाह बनेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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