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नेताजी से इतना डरते क्यों थे अंग्रेज 

वे कभी भारत नहीं आए थे। उन्होंने हिन्दुस्तान को कभी देखा तक नहीं था। उन्होंने यहां के बारे में केवल अपने आजा और आजी से कहानियां सुनी थीं। ये वे नौजवान थे, जिनके माता-पिता गिरमिटिया मजदूर बनाकर...

नेताजी से इतना डरते क्यों थे अंग्रेज 
कपिल कुमार निदेशक, स्वतंत्रता संग्राम अध्ययन केंद्र, इग्नूWed, 23 Jan 2019 12:37 AM
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वे कभी भारत नहीं आए थे। उन्होंने हिन्दुस्तान को कभी देखा तक नहीं था। उन्होंने यहां के बारे में केवल अपने आजा और आजी से कहानियां सुनी थीं। ये वे नौजवान थे, जिनके माता-पिता गिरमिटिया मजदूर बनाकर तमिलनाडु से मलाया ले जाए गए थे, और वे तब भी वहां गिरमिटिया का काम कर रहे थे। इन नौजवानों को जब पता चला कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया है, तो उन्होंने आजादी की जंग में उतरने की ठानी। तब न जाने कितने आप्रवासी भारतीय आजाद हिंद फौज में शामिल हुए और देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया।
सबसे बड़ी बात यह कि आजाद हिंद फौज के पास अपना पैसा नहीं था। जो खजाना फौज का बना, वह इन्हीं आप्रवासी भारतीयों द्वारा दिए गए पैसों-आभूषणों से बना था। मगर दुर्भाग्य कि वह खजाना खो गया। दो बक्से जरूर 1952 में वापस हिन्दुस्तान आए, जिनमें कुछ जले-बचे सामान थे और यह बताने की कोशिश हुई थी कि नेताजी की मृत्यु विमान हादसे में हो गई है। तत्कालीन नेहरू सरकार ने उन बक्सों को राष्ट्रीय संग्रहालय में रखवा दिया था, पर पता नहीं कि अब बक्से किस दशा में हैं?
इन दोनों घटनाओं का जिक्र इसलिए, क्योंकि हमारे इतिहास में न तो इन आप्रवासी भारतीयों के लिए उचित जगह बन पाई है और न नेताजी सुभाषचंद्र बोस के लिए। आज भी नेताजी की यह कहकर आलोचना की जाती है कि वह इटली, जर्मनी और जापान के तानाशाहों से मिल गए थे। लेकिन आजादी की जंग को आगे बढ़ाने के लिए जब नेताजी हिन्दुस्तान से निकले थे, तो वह रूस जाना चाहते थे। काबुल पहुंचकर उन्होंने यह कोशिश भी की, मगर रूस ने उन्हें मना कर दिया। इसीलिए वह बर्लिन की तरफ बढ़े थे। ऐसे में, उन पर हिटलर या तोजो के साथ सांठगांठ करने का आरोप महज साम्यवादी सोच है। वैसे भी, जब तक दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी ने रूस पर हमला नहीं बोला था, तब तक साम्यवादियों ने न तो हिटलर को फासीवाद बताया और न विश्व युद्ध को जन-युद्ध।
नेताजी जब काबुल में थे, तब अफगानिस्तान की तरफ से अंग्रेज हुकूमत पर हमला करने की योजना उन्होंने बनाई। इस बाबत एक पत्र भी लिखा, जो उस समय तो भारत नहीं पहुंच सका, लेकिन 1948 में यह उनके बड़े भाई शरतचंद्र बोस को सौंपा गया। उस पत्र में आक्रमण का पूरा खाका तैयार दिखता है। मसलन, स्थानीय कबीलों के साथ बैठकें करने, छोटे-छोटे हवाई अड्डे बनाने के लिए जगह ढूंढ़ने, रेडियो स्टेशन जैसे संचार के माध्यम तैयार करने आदि पर उसमें जोर दिया गया है। इस चिट्ठी में सबसे खास बात अंग्रेजों को अंदरूनी चोट पहुंचाने की है। उन्होंने लिखा है कि अंग्रेज अपनी सेना के लिए जो नई भरती कर रहे हैं, उसमें अपने नौजवानों को भेजा जाए, ताकि जरूरत के वक्त वे हमारी मदद कर सकें। आगे जाकर यही हुआ भी। आजाद हिंद फौज में या तो वे लोग शामिल हुए, जो ब्रिटिश सेना से निकले थे या फिर आप्रवासी भारतीय।
नेताजी की सिर्फ एक विचारधारा थी, राष्ट्रवाद। उन्होंने बार-बार अपने भाषणों में यही कहा है कि इटली और जर्मनी जो कुछ कर रहे हैं, उसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं। मेरा उद्देश्य भारत को स्वतंत्र कराना है और इसमें जो भी हमारी मदद करेगा, वह हमारा मित्र है। यह उनका राष्ट्रवाद ही था कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से मतभेद होते हुए भी उन्होंने इन दोनों के नामों पर अपनी सेना में रेजिमेंट बनाए। हम अब जाकर सेना की अगली पंक्ति में महिलाओं को रखने की वकालत कर रहे हैं, लेकिन नेताजी ने पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापान की यात्रा के क्रम में ही महिलाओं की रेजिमेंट बनाने की योजना तैयार कर ली थी। रानी झांसी रेजिमेंट आधुनिक युग में औरतों की विश्व की पहली रेजिमेंट मानी जाती है। इस रेजिमेंट में आधी औरतें गिरमिटिया मजदूर थीं, जबकि कई कुलीन वर्ग की महिलाएं। 
बड़ा सवाल यह है कि अंग्रेज आखिर नेताजी से इतना डरते क्यों थे? नेताजी को कुल 11 बार जेल जाना पड़ा। मांडले जेल जाने वाले वह बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय के बाद तीसरे भारतीय नेता थे; वह भी महज 25-26 वर्ष की उम्र में। असल में, अंग्रेज इसलिए नेताजी से खार खाए हुए थे, क्योंकि वह ऐसे पहले इंसान थे, जिन्होंने सिविल सेवा यानी आईसीएस में चयन के बावजूद उसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था। अंग्रेजों ने परिवार पर दबाव डाला, तो पिता ने अपने बेटे को पत्र लिखकर कहा कि एक बार सहमति दे दो, बाद में इस्तीफा दे देना। मगर जवाब में नेताजी ने यही लिखा कि यदि उन्होंने सहमति दे दी, तो उसका सीधा अर्थ होगा कि उन्होंने अंग्रेजों की सरपरस्ती स्वीकार कर ली है। जाहिर है, नेताजी समझौते के मूड में नहीं थे, इसलिए अंग्रेज उन्हें हमेशा देश से बाहर रखने की कोशिश करते दिखे। कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन से पहले 1929 में सीआईडी की एक रिपोर्ट कहती भी है कि इस व्यक्ति पर नजर रखनी होगी, क्योंकि यह भारत की आजादी के लिए दूसरे देशों से सशस्त्र सहायता ले सकता है। संभवत: इसीलिए, जब इसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई, तो उन्हें बंबई ले जाकर जहाज पर बिठाने के बाद रिहा किया गया। नेताजी ने उस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है कि जब तक उन्हें जहाज के अंदर नहीं पहुंचा दिया गया, पुलिसवालों ने उन्हें ऐसे घेरे रखा, मानो शिकारी कुत्तों ने अपने शिकार को घेर रखा हो। हालांकि ब्रिटेन में रहकर भी उन्होंने तमाम संपर्क बनाए और अपने कामों को अंजाम दिया।
नेताजी की मौत हवाई हादसे में होेने की बात कही जाती है। मगर यह एक काल्पनिक कहानी है। जो शख्स कलकत्ता के अपने घर से पुलिस को चकमा देकर पेशावर पहुंच गया, और काबुल-बर्लिन होते हुए जिसने पनडुब्बी की तकलीफदेह यात्रा की, वह भला इतना कमअक्ल कैसे होगा कि जापान पर परमाणु बम गिरने और ब्रिटेन के सामने उसके आत्म-समर्पण के बाद जापान जाने की सोचेगा? जबकि ऐसे दस्तावेज भी हैं, जो बताते हैं कि फॉर्मोसा (अब ताईवान) में उस समय हवाई हादसा हुआ ही नहीं था। आने वाले दिनों में दूसरे तमाम तथ्यों की तरह इस सच से भी शायद परदा उठेगा। बहरहाल, नेताजी आज भी भारतीयों के हृदय में जीवित हैं और सदैव जीवित रहेंगे। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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