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ऊबे हुए लोगों का स्पष्ट जनादेश

भाजपा ने कर्नाटक उप-चुनावों में एकतरफा जीत दर्ज करते हुए विपक्ष से ज्यादातर सीटें छीन ली हैं। इन चुनाव परिणामों ने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को शेष बचे कार्यकाल के लिए शासन का स्पष्ट बहुमत दे...

ऊबे हुए लोगों का स्पष्ट जनादेश
एस श्रीनिवासन वरिष्ठ पत्रकारTue, 10 Dec 2019 12:00 AM
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भाजपा ने कर्नाटक उप-चुनावों में एकतरफा जीत दर्ज करते हुए विपक्ष से ज्यादातर सीटें छीन ली हैं। इन चुनाव परिणामों ने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को शेष बचे कार्यकाल के लिए शासन का स्पष्ट बहुमत दे दिया है। उन्हें अब न तो बसपा के इकलौते विधायक के समर्थन की जरूरत होगी और न ही एकमात्र निर्दलीय विधायक की। वह पिता-पुत्र (एचडी देवेगौड़ा व एचडी कुमारस्वामी) की जोड़ी की चिरौरी करने की मजबूरी से भी बच गए हैं, जो एक बार फिर त्रिशंकु विधानसभा में ‘किंग मेकर’ बनने के ख्वाब संजो रहे थे।
इन उप-चुनाव परिणामों ने येदियुरप्पा के लिए यह गुंजाइश बना दी है कि वह अब पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी पार्टी के आलाकमान से बात कर सकें। जुलाई के बहुमत परीक्षण में एक अस्थिर-सी जीत हासिल करने के बाद अपने मंत्रिमंडल के गठन के लिए उन्हें हफ्तों का अपमानजनक इंतजार करना पड़ा था। खबरों के मुताबिक, येदियुरप्पा को तब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात का वक्त नहीं मिला था और उन्हें दिल्ली से खाली हाथ बेंगलुरु लौटना पड़ा था। सवाल यह है कि आखिर यह ‘चमत्कार’ कैसे हुआ? जिस मुख्यमंत्री को अपनी पार्टी के ही शीर्ष नेताओं का पूर्ण समर्थन मिलता नहीं दिख रहा हो, उसने कैसे यह कमाल किया?
कर्नाटक की चुनावी राजनीति की कहानी पिछले 19 महीनों में कई पीड़ादायक मोड़ों से गुजरी और एक तरह से यह किसी थ्रिलर को मात देती रही। जहां तक उप-चुनाव के परिणामों का सवाल है, तो इसकी सरल व्याख्या यही होगी कि राज्य में जारी लगातार गतिरोध से ऊब चुके मतदाताओं ने अंतत: भाजपा को सत्ता के लिए चुन लिया है। लेकिन क्या मामला वाकई इतना सरल है? जरा तथ्यों पर गौर कीजिए। भाजपा ने मई 2018 में येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर आगे करके विधानसभा चुनाव लड़ा था। 224 सदस्यीय विधानसभा में पार्टी एंग्लो-इंंडियन सदस्य के साथ सिर्फ 104 सीटें जीत सकी थी। बहुमत से आठ कम। लेकिन इसके बावजूद येदियुरप्पा ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। राज्यपाल ने उन्हें शपथ भी दिलाई, मगर शपथ ग्रहण के महज 48 घंटों के भीतर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, क्योंकि उनके पास संख्या बल नहीं था और वह विश्वास मत का सामना करने की स्थिति में नहीं थे।
सिद्धरमैया के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने 78 सीटें जीती थीं, जबकि देवेगौड़ा के जनता दल(एस) के 37 विधायक चुनकर आए थे। भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस ने जनता दल(एस) के साथ मिलकर दांव खेला और इस तरह कुमारस्वामी सरकार वजूद में आई। तब उदारपंथियों व सेकुलर पार्टियों ने सोचा था कि इसे विपक्षी एकता के नए फॉर्मूले के रूप में केंद्रीय स्तर पर भी लागू किया जा सकता है। लेकिन 2019 के संसदीय चुनाव में सबको चौंकाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहीं बडे़ बहुमत के साथ सत्ता में लौटे।
चूंकि कर्नाटक में पूंछ को सिर से बांधने का काम हुआ था, इसलिए कुमारस्वामी सरकार अधिक दिनों तक टिक न सकी। कांग्रेस और जनता दल(एस) के अंतर्विरोध जल्द ही उभरकर सामने आ गए। मुख्यमंत्री बनने के महज दो महीने के भीतर रुआंसे मुख्यमंत्री ने कहा था कि ‘मैंने शिव की तरह विष पिया है।’ मंत्रिमंडल के कई कांग्रेसी मंत्री सरेआम कुमारस्वामी की आलोचना कर रहे थे और वे सब सिद्धरमैया के करीबी माने जाते थे। दरअसल, देवेगौड़ा और सिद्धरमैया की वर्षों पुरानी प्रतिस्पद्धर को देखते हुए इसे एक स्वाभाविक नतीजे के रूप में देखा गया था। इस बीच खबरों के मुताबिक, भाजपा ने ‘ऑपरेशन कमल 2.0’ शुरू कर दिया था, जिसमें दूसरी पार्टियों के विधायकों का समर्थन हासिल किया जाना था।
दिलचस्प तरीके से कांग्रेस के 15 और जनता दल(एस) के दो विधायकों ने अपनी-अपनी पार्टी से बगावत की। मुख्यमंत्री कुमारस्वामी को विश्वास मत हासिल करने के लिए बाध्य होना पड़ा। उसके बाद के पूरे सियासी ड्रामे को पूरे देश ने टेलीविजन पर देखा। इन 17 विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष ने अयोग्य करार दिया, जिसके कारण सदन का संख्या बल 208 रह गया था और 106 सदस्यों के समर्थन के साथ येदियुरप्पा ने जुलाई में एक बार फिर सरकार बनाने का दावा पेश किया और वह विश्वास मत हासिल करने मेंं भी सफल रहे।
अयोग्य करार दिए गए इन विधायकों ने स्पीकर के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने स्पीकर द्वारा दलबदल कानून के तहत उन्हें तत्काल अयोग्य करार दिए जाने के निर्णय को सही ठहराया, मगर मौजूदा विधानसभा की पूरी अवधि तक के लिए उनकी अयोग्यता का समर्थन न करते हुए इन्हें दोबारा उप-चुनाव लड़ने की इजाजत दे दी। कांग्रेस और जनता दल(एस) के इन बागी विधायकों को न सिर्फ भाजपा की सदस्यता दी गई, बल्कि उप-चुनाव में पार्टी का टिकट भी दिया गया। ऐसा लगता है कि इन बागियों को चुनकर मतदाताओं ने इस पूरी प्रक्रिया में अपनाई गई नैतिकता को अपना पूर्ण समर्थन दिया है। कांग्रेस और जनता दल(एस) मतदाताओं को आश्वस्त करने में नाकाम रहे, क्योंकि उनका प्रचार अभियान बेहद फीका था। चूंकि मुकाबला त्रिकोणीय था, ऐसे में स्वाभाविक ही भाजपा लाभ उठाने में कामयाब रही। कांग्रेस के लिए चिंता की बात यह है कि उसने विपक्ष को सत्ता से बेदखल करने की भाजपा की आक्रामक रणनीति को उजागर करने का जो अभियान चलाया था, वह कर्नाटक व महाराष्ट्र, दोनों जगहों पर कारगर साबित नहीं हुआ।
कई ऐसे मुद्दे हैं, जो मतदाताओं के सामने थे और यह माना जाना चाहिए कि वोट डालते हुए उन्होंने उन पर भी गौर किया होगा। जैसे, साल 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने जिन प्रतिद्वंद्वियों के हाथों इन सीटों पर चुनाव हार गई थी और वही उम्मीदवार सिर्फ पार्टी बदलकर एक बार फिर जीत गए हैं। इस बीच, कांग्रेस पार्टी के मुख्य रणनीतिकार डी के शिवकुमार के खिलाफ आयकर विभाग व प्रवर्तन निदेशालय ने कई मुकदमे दर्ज किए और उन्हें दिल्ली की जेल में रहना पड़ा। इसने उन्हें प्रचार अभियान के दौरान बिल्कुल निष्क्रिय कर दिया था और फिर जनता दल(एस) का सत्ता के लिए भाजपा या कांग्रेस के पक्ष में जाने के पुराने इतिहास ने भी भगवा पार्टी के पक्ष में माहौल बनाया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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