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तमिलनाडु में महात्मा की चमक

महात्मा गांधी आधुनिक युग के ऐसे इंसान हैं, जो किसी भी अन्य भारतीय की अपेक्षा अपने होने को सार्थक करते हैं। एक ऐसे हिंदू, जिन्होंने मुसलमानों के समान अधिकारों के लिए अपना करियर तो समर्पित किया ही,...

तमिलनाडु में महात्मा की चमक
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार,नई दिल्लीMon, 21 Jan 2019 12:06 AM
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महात्मा गांधी आधुनिक युग के ऐसे इंसान हैं, जो किसी भी अन्य भारतीय की अपेक्षा अपने होने को सार्थक करते हैं। एक ऐसे हिंदू, जिन्होंने मुसलमानों के समान अधिकारों के लिए अपना करियर तो समर्पित किया ही, जीवन भी बलिदान कर दिया। 1922 में राजद्रोह के मुकदमे की सुनवाई कर रहे अंग्रेज जज ने पेशा पूछा, तो उनका जवाब था- ‘किसान और बुनकर’। जीवन यापन के दो ऐसे तरीके, जो उनके पूर्वजों की विरासत से कोसों दूर थे। गांधीजी गुजराती भाषा से बहुत प्यार करते थे और उसके साहित्य में भी उनका खासा योगदान है। वैसे उन्हें भारत की सभी क्षेत्रीय भाषाओं से गहराई से प्यार था।

गांधी के अकादमिक करियर और जीवन का अध्ययन करते हुए उनके अंदर जो बात सबसे ज्यादा मुखर दिखी, वह है ‘सांप्रदायिकता का स्पष्ट अभाव’। इसी महीने की शुरुआत में उनके अखिल भारतीय चरित्र का ताजा, विशद और वैविध्यपूर्ण प्रदर्शन तब दिखा, जब उनकी 150वीं जयंती पर साल भर तक चलने वाले आयोजनों की कड़ी में कोयंबतूर के एक कार्यक्रम में शामिल हुआ। कार्यदिवस होने के बावजूद सुबह नौ बजे ही मुक्ताकाशी मंच जिस तरह भर चुका था, वह महात्मा के प्रति लोगों के सम्मान का सूचक है। इस उत्सव में शहर के सभी जाति-धर्म या शायद जाति-धर्म की सोच से कोसों दूर रहने वाले युवा और वृद्ध, पुरुष और स्त्री भारी संख्या में मौजूद थे। इनमें डर्बन की एक महिला और दर्जन भर तमिल लोग शामिल थे, जिन्हें सम्मानित किया जाना था। वह महिला कोई और नहीं, महात्मा गांधी की पौत्री इला गांधी थीं, जिन्हें नस्लभेद के खिलाफ एक बहादुर सेनानी के तौर पर जाना जाता है और जो दक्षिण अफ्रीका की पहली बहु-नस्लीय संसद में सांसद भी रहीं। उन्हें उनकी जन्मभूमि में ‘शांति की रक्षक’ की सशक्त भूमिका के लिए सम्मानित किया गया। सम्मानित होने वाले दर्जन भर तमिल सर्वोदय परंपरा के ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता थे, जिन्होंने अपना जीवन बुनियादी शिक्षा, कताई-बुनाई प्रशिक्षण और सतत विकास के लिए काम करते हुए गांधी के आदर्शों के प्रचार प्रसार में समर्पित कर दिया। इला गांधी सहित ये सभी लोग 70 पार कर चुके हैं, कुछ तो 80 के भी पार हैं। इनमें से एक की उम्र 104 वर्ष बताई गई, तो पहले से ही तालियों से गूंजता माहौल और ज्यादा उल्लास से भर गया।
कोयंबतूर के इस आयोजन के दो मुख्य भागीदार थे। एक 1938 में प्रख्यात देशभक्त, वकील और लेखक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा स्थापित भारतीय विद्या भवन और दूसरा 1986 में गांधीवादी शिक्षक एम अरम द्वारा स्थापित शांति आश्रम। अरम ने तमिलनाडु के गांधीग्राम ग्रामीण विश्वविद्यालय के कुलपति का काम संभालने से पहले काफी दिनों तक नगालैंड में काम किया। सामुदायिक स्वास्थ्य और जीवन स्तर सुधारने की दिशा में सक्रिय शांति आश्रम को अब उनकी बेटी वीनू अरम चला रही हैं। भारतीय विद्या भवन की वेबसाइट पर नजर डालें, तो इसे महात्मा गांधी का आशीर्वाद तो प्राप्त रहा ही, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और राधाकृष्णन का आशीर्वाद भी समान रूप से हासिल हुआ। इनके अलावा, अनेक अन्य संस्थाएं भी इस आयोजन में भागीदार रहीं, जिनके नाम देखकर ही लगता है कि यह धर्म और संप्रदाय की सोच से बहुत दूर रहने वाले आम नागरिकों का खुद की कल्पना और पहल से आयोजित कार्यक्रम था। परस्पर सहयोग के इस स्वैच्छिक प्रयास की विशेषता यह भी थी कि इसमें किसी कॉरपोरेट हाउस की भागीदारी नहीं थी।

तमिल और तमिलनाडु से महात्मा गांधी का खासा गहरा रिश्ता रहा। इसकी शुरुआत दक्षिण अफ्रीका से हुई, जहां मिस्टर ऐंड मिसेज थांबी नायडू, शहीद नागप्पन और वेलिम्मा जैसे उनके संघर्षों के सबसे मजबूत सत्याग्रही मिले थे और वे सब तमिलनाडु के ही थे। जे एम लॉरेन्स जैसा तमिल दोस्त ही था, जिसने सबसे पहले गांधी का परिचय उनकी अपनी मातृभूमि में फैले जातीय भेदभाव से कराया और कहा कि उनके नेतृत्व में होने वाले किसी भी राजनीतिक आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण केंद्रीय पक्ष अस्पृश्यता उन्मूलन होना चाहिए। भारत में उनके काम पर नजर डालें, तो गांधी के कुछ सबसे करीबी लोगों में तमिल शामिल थे। सबसे प्रमुख नाम तो गांधी के ‘दक्षिणी कमांडर’ कहे  जाने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, यानी ‘राजाजी’ का ही है, जिन्होंने पूरे तमिलनाडु में सर्वधर्म समन्वय, अस्पृश्यता उन्मूलन और खादी को बढ़ावा देने का काम किया। साहसी और आजाद खयाल राजाजी को गांधीजी ने ‘मेरी अंतरात्मा का रक्षक’ कहकर संबोधित किया। कोलंबिया यूनीवर्सिटी से पढ़े तमिल क्रिश्चियन जे सी कुमारप्पा जैसे लोग भी थे, जो मुंबई में 1929 में जोर-शोर से चल रहा अकाउंटेन्सी जैसा महत्वपूर्ण पेशा छोड़कर गांधी के साथ आ गए थे और अगले चार दशक खुद के दिए नाम ‘स्थायित्व वाली अर्थव्यवस्था’ (इकोनॉमी ऑफ परमानेन्स) को आगे बढ़ाने में लगा दिए। एक अन्य गांधीवादी, प्रख्यात टीवीएस औद्योगिक घराने में जन्मे सौंदरम रामचंद्रन थे, जिन्होंने गरीबों और वंचितों के साथ रहने के लिए वैभव का अपना संसार छोड़ना जरूरी समझा।

एक व्यक्तिगत और पारिवारिक कारण भी रहा, जिसने महात्मा को तमिल और तमिलनाडु से जोड़ा। उनके तीन बच्चों ने तो गुजरात में शादी की, चौथे का विवाह तमिल परिवार में हुआ। इस रिश्ते से बनी पीढ़ियों ने गांधी और तमिलनाडु के रिश्तों को और मजबूती के साथ आगे बढ़ाया है। 
तमिलों पर गांधी का बहुत बड़ा ऋण है। गांधी के लिए तमिलनाडु का ऋण भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। यहां भूलना नहीं चाहिए कि गांधीजी का देश के अन्य प्रमुख प्रांतों से भी ऐसा ही प्रगाढ़ संबंध रहा है। यह उनके जीवन की विरासत और उनका अखिल भारतीय चरित्र ही है, जो उन्हें देश के अन्य तमाम समाज सुधारकों और राजनेताओं के बीच अलग दर्शाता है। 150वीं जयंती के इस वर्ष में उम्मीद की जानी चाहिए कि देश  के अन्य राज्य भी उनका उपयुक्त स्मरण करते हुए गांधी के प्रति अपनी समझ को और मजबूती से आगे बढ़ाएंगे। कोयंबतूर का उत्सव इसके लिए शायद एक मॉडल बन सके। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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