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ताकि चुनाव का दांव सही बैठे

चुनाव किसी गंभीर स्थिति को सामान्य बनाने का सबसे भरोसेमंद रास्ता माना जाता है। और जब यह स्थानीय स्तर पर हो, तो कहीं ज्यादा प्रभावी साबित होता है। मगर जम्मू-कश्मीर के म्यूनिसिपल और पंचायत चुनाव इस...

ताकि चुनाव का दांव सही बैठे
नीरजा चौधरी, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकSun, 23 Sep 2018 11:46 PM
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चुनाव किसी गंभीर स्थिति को सामान्य बनाने का सबसे भरोसेमंद रास्ता माना जाता है। और जब यह स्थानीय स्तर पर हो, तो कहीं ज्यादा प्रभावी साबित होता है। मगर जम्मू-कश्मीर के म्यूनिसिपल और पंचायत चुनाव इस तर्क पर खरे नहीं उतर रहे। इसकी बड़ी वजह है, इसका समय। सैद्धांतिक तौर पर यह चुनाव कराना सही फैसला हो सकता है, पर इसकी टाइमिंग गलत है। चुनाव में वक्त काफी अहमियत रखता है। इस बार चुनाव का बहिष्कार अलगाववादी तो कर ही रहे हैं, मुख्यधारा की पार्टियां भी इससे किनारा कर चुकी हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) जैसी बड़ी राजनीतिक पार्टियां खुलकर इसकी मुखालफत कर रही हैं। हालांकि भाजपा और कांग्रेस ने इसमें शामिल होने का एलान किया है। लेकिन स्थानीय निकाय के चुनावों में स्थानीय पार्टियों की अनुपस्थिति इस पूरी कवायद के औचित्य को सवालों के घेरे में ला देगी।

जम्मू-कश्मीर में अगले महीने म्यूनिसिपल चुनाव होने वाले हैं और उसके बाद लोग अपनी-अपनी पंचायतों के लिए वोट डालेंगे। मगर जब दबदबा रखने वाली स्थानीय पार्टियां इससे बाहर हों और अलगाववादी चुनाव में शामिल होने वाले लोगों को ‘नतीजे भुगतने’ की खुलेआम धमकी दे रहे हों, तब समझा जा सकता है कि इन चुनावों में कितने मत गिरेंगे? जम्मू और लद्दाख में कुछ हद तक वोट पड़ सकते हैं, मगर घाटी में इस बहिष्कार का बड़ा असर दिखेगा। वहां चंद लोग ही बाहर निकल सकते हैं, और वह भी डरते-डरते। संचार के तेज साधनों ने लोगों की गोपनीयता छीन ली है। अब वे वोट गिराकर अपनी पहचान छिपा नहीं सकते। हालांकि केंद्र सरकार ने मतदाताओं को सुरक्षा का पूरा भरोसा दिया है। अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा के लिए गई सैन्य टुकड़ियों को भी वहीं रोक लिया गया है। मगर सुरक्षा-व्यवस्था की अपनी एक सीमा होती है।

पिछले चार-पांच वर्षों में घाटी की हालत काफी खराब हुई है। खासतौर से आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद स्थिति काफी बदल गई है। हाल के वर्षों में 15 के करीब सरपंचों की हत्या हो चुकी है। वहां इस तरह का आतंकवाद 1990 के दशक में भी रहा है। मगर तब और अब के दहशतगर्दों में बड़ा फर्क यह आया है कि आज शिक्षित नौजवान आतंकवाद की राह पर बढ़ चले हैं। स्थिति यह है कि स्थानीय पुलिस तक आतंकियों के निशाने पर है। पुलिसकर्मियों को अगवा करके उनकी हत्या कर देना उनकी नई रणनीति बन गई है। इससे वे खुद के बेखौफ होने का संदेश देना चाहते हैं। यह गंभीर स्थिति का सूचक है। हमारे नीति-नियंताओं की तरफ से बड़ी चूक हुई है। इसीलिए पहले इस भूल को सुधारने और लोगों की नाराजगी खत्म करने की कोशिश होनी चाहिए, और उसके बाद चुनाव की ओर बढ़ना चाहिए। 

अगर हम कश्मीर मसले का स्थाई समाधान चाहते हैं, तो हमें बातचीत की प्रक्रिया जारी रखनी ही होगी। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की पहल पर बातचीत का माहौल बना था। दोनों देशों के विदेश मंत्री अमेरिका में मिलने वाले थे। मगर अब ऐसा नहीं होगा। निश्चय ही आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते। 
पाकिस्तान को अपनी जमीन की आतंकी तंजीमों पर लगाम लगानी ही होगी। यही तंजीमें हमारे सैनिकों के साथ बर्बरता कर रही हैं। ऐसी घटनाएं शांति का माहौल खराब करती हैं। हो सकता है कि एक बार फिर पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कोई कार्रवाई करने की मांग जोर पकड़ ले। हालांकि मेरा मानना है कि इस तरह की कोई कार्रवाई एक हद तक ही प्रभावी होगी। लंबी अवधि में इसका बहुत ज्यादा फायदा नहीं मिल सकता। आखिरकार बातचीत का रास्ता ही हमें किसी मंजिल पर ले जाएगा। घाटी के लोगों का विश्वास भी हम इसी से जीत सकते हैं।

यह सही है कि जब लोग चुनावों में अपने नुमाइंदे चुनते हैं, तो उनकी शिकायतें दूर होने लगती हैं। विद्रोह की सुगबुगाहट भी कम होने लगती है, और वे बिजली, पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं की मांग करने लगते हैं। मगर चुनाव की गलत टाइमिंग स्थिति को प्रतिकूल बना सकती है। यह स्थिति तब विध्वंसक हो सकती है, जब चुनावी नतीजों से कोई लाभ उठाने की मंशा हो। जम्मू-कश्मीर स्थानीय चुनावों को लेकर ही आवाज उठने लगी है कि किसी खास हित के तहत ये कराए जा रहे हैं। इनके जरिये देश भर में ध्रुवीकरण की कोशिश हो सकती है। अगर ये कयास सच साबित हुए, तो घाटी का माहौल और बिगड़ सकता है। लोगों में इसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया होगी। घाटी को संभालने के लिए उनके बीच का वास्तविक नुमांइदा ही कारगर होगा। ऐसे में, अगर इस चुनाव को अगले कुछ महीनों में देश के बाकी हिस्सों में होने वाले मतदान में मुद्दा बनाने की कोशिश होगी, तो इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। हमें इससे बचने का प्रयास करना चाहिए।

एक बात और, खासतौर से जम्मू-कश्मीर के मामले में राज्य सरकार एक ‘बफर’ (आम जनता और केंद्र के बीच किसी टकराव को कम करने) का काम करती है। वह वहां की नाराजगी को कम करने में काफी मददगार साबित होती रही है। जबकि हमारा यह पुराना अनुभव रहा है कि जब कभी वहां का शासन सीधे केंद्र के अधीन आया, स्थिति खराब हुई है। अभी की हालत भी यही है। फिर भी यदि स्थानीय चुनाव कराना अनिवार्य हो, तो बाकी सभी राजनीतिक पार्टियों को भरोसे में लेकर यह काम होना चाहिए। परदे के पीछे पहले भी तमाम पार्टियां आपस में सलाह-मशविरा करती रही हैं। घाटी की संवेदनशीलता को देखते हुए केंद्र सरकार को इसी विकल्प की तरफ आगे बढ़ना चाहिए। (ये लेखिका के अपने विचार हैं) 

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