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तो फिर सेंसर बोर्ड की जरूरत ही क्या

हाल ही में आई फिल्म वीरे दी वेडिंग  ने बॉक्स ऑफिस पर कई रिकॉर्ड तोड़े, लेकिन सबसे बड़ा रिकॉर्ड तोड़ा अश्लीलता का। फिल्म के संवाद को सुनकर यह सवाल फिर मौजूं हो गया है कि क्या वाकई देश में राष्ट्रीय...

तो फिर सेंसर बोर्ड की जरूरत ही क्या
विजय गोयल, संसदीय कार्य राज्यमंत्रीWed, 20 Jun 2018 10:32 PM
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हाल ही में आई फिल्म वीरे दी वेडिंग  ने बॉक्स ऑफिस पर कई रिकॉर्ड तोड़े, लेकिन सबसे बड़ा रिकॉर्ड तोड़ा अश्लीलता का। फिल्म के संवाद को सुनकर यह सवाल फिर मौजूं हो गया है कि क्या वाकई देश में राष्ट्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, यानी सेंसर बोर्ड की कोई जरूरत बची है? इस फिल्म में द्विअर्थी संवादों, विशुद्ध गालियों और दृश्यों का जिस तरह बार-बार इस्तेमाल हुआ है, वह चौंकाने वाला है। जो लोग वीरे दी वेडिंग  को स्वस्थ हास्य फिल्म समझकर सिनेमा हॉल पहुंचे, उन्हें बड़ी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। यदि सेंसर बोर्ड गालियों को बैन न करने के लिए तर्क देता है कि यह समाज में प्रचलित शब्दावली है, तो बोर्ड की जरूरत ही क्या है? उसकी जिम्मेदारी है कि फिल्म के माध्यम से समाज में प्रचलित बुराइयों को बढ़ावा न मिले और समाज में गलत संदेश न जाए। अच्छा होता कि फिल्म के शुरू में और बीच-बीच में भी ‘वयस्कों के लिए’ और ‘अश्लील संवाद’ जैसी हिदायतें दी गई होतीं। फिल्म बनाने वालों का आत्मविश्वास भी देखिए कि उन्होंने ऐसी फिल्म के लिए करोड़ों खर्च कर दिए, इस यकीन के साथ कि फिल्म पास जरूर होगी।

सेंसर बोर्ड की कैंची किस नियम से चलती है, यह समझ से परे है। इसकी दो मिसाल हैं। पहली, 1975 में आई फिल्म आंधी  को लेकर हुआ विवाद, जिसके बारे में कहा गया था कि इसमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन का गलत चित्रण किया गया है। विवाद बढ़ने पर इंदिरा गांधी के दो सहायकों ने फिल्म देखने के बाद रिलीज की इजाजत दी थी। लेकिन 20 हफ्तों के बाद फिल्म को फिर बैन कर दिया गया। सेंसर बोर्ड का कहना था कि हीरोइन के ‘ड्रिंकिंग’ और ‘स्मोकिंग’ वाले सीन को फिर से शूट किया जाए। दूसरी मिसाल, कुछ समय पहले आई एक फिल्म से ‘साला’ शब्द हटाने पर सेंसर बोर्ड का अड़ना। वह भी तब, जब हमारे यहां कमीने और रासकल्स के नाम से फिल्में ही मौजूद हैं, साला मैं तो साहब बन गया  जैसे गाने हैं। और अब वीरे दी वेडिंग  में आपको वह सब मिलेगा, जिसे इन दोनों उदाहरणों के हिसाब से बैन हो जाना चाहिए था। लेकिन इसके विरोध में कोई बोला ही नहीं।

मैंने पिछले दिनों एक ऐसी फिल्म देखी, जिसमें कई सीन में किरदार सिगरेट का धुआं उड़ाते नजर आ रहे थे, लेकिन इस दौरान छोटे अक्षरों में एक चेतावनी आती थी, जिसे पढ़ना भी मुश्किल था। अश्लील दृश्यों के मामले में भी ऐसा हो सकता है, जिसमें दर्शक अपने विवेक के अनुसार आंखें मूंदने के लिए स्वतंत्र हों। कुछ लोगों का कहना है कि सेंसर बोर्ड हर फिल्म की शुरुआत में एक चेतावनी लगा दे, यह फिल्म फलां श्रेणी की है, जैसे अश्लील, डरावनी, अभद्र भाषा, हिंसक आदि और देखने का फैसला दर्शकों पर छोड़ दे। उनका तर्क है कि सिगरेट और शराब की पैकिंग पर भी ऐसी ही चेतावनी होती है, बाकी इसके उपभोग करने वाले की मर्जी। इससे सेंसर बोर्ड फिल्मों में बेतुकी काट-छांट के आरोपों से भी बरी हो जाएगा।

टेलीविजन खुद अपने को सेंसर करता है। समाचार चैनलों और टीवी सीरियल अपने कंटेंट की निगरानी अमूमन खुद करते हैं। क्या यही काम फिल्मों पर छोड़ा जा सकता है? बोर्ड फिल्म को सेंसर करने की बजाय जिस दर्शक-वर्ग के लिए उसे बनाया गया है, उसके अनुसार फिल्मों की रेटिंग कर दे, बस। सेंसर बोर्ड चाहे, तो सर्वे करा डाले और फिर जो समाज चाहता है, वही परोसा जाए। एक सूची बन जाए कि बस इतने प्रकार के काम, संवाद या दृश्य सेंसर होंगे।

मेरा विरोध इस बात को लेकर नहीं है कि समाज में क्या स्वीकार्य है और क्या अस्वीकार्य? मेरा सवाल यह है कि हम सेंसर बोर्ड का खर्चा क्यों उठा रहे हैं? मैं समझता हूं कि सोशल मीडिया पर कंटेंट को नियंत्रित करने की अपनी सीमाएं हैं, लेकिन जहां इस पर नियंत्रण संभव है, वहां भी नहीं हो रहा है। ऐसा है, तो सेंसर बोर्ड को भंग क्यों न कर दिया जाए?

कुछ फिल्मकार भी सवाल उठाते रहे हैं कि आखिर भारत में सेंसरशिप क्यों होनी चाहिए? वे मानते हैं कि फिल्मकार खुद तय कर सकते हैं कि क्या दिखाना है और क्या नहीं? हालांकि सेंसर बोर्ड के पक्ष में खड़े होने वाले मानते हैं कि सिनेमा एक व्यावसायिक माध्यम है, जिससे निर्माताओं का फायदा भी जुड़ा है। इसे सिर्फ फिल्मकारों के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता। चूंकि फिल्मों का समाज पर गहरा असर होता है, इसीलिए फिल्मकारों की जिम्मेदारी तय करने वाली संस्था की जरूरत हमेशा रहेगी। अगर फिल्मों को सिर्फ निर्माताओं के भरोसे छोड़ दिया गया, तो वे फिल्म की व्यावसायिक सफलता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। इसलिए प्रदर्शन से पहले सरकार तय करे कि फिल्म कोई गलत संदेश तो प्रसारित नहीं कर रही है। अगर सेंसर बोर्ड यह सब देख ही नहीं रहा, तो उसका होना बेमानी हो जाता है। फिल्मकार खुद कंटेंट तय करें, तो कम से कम सरकार पक्षपात के आरोपों से दूर रह पाएगी।

वीरे दी वेडिंग  से जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह आगे बढ़ने वाला है और हमारे घरों की मॉडर्न भाषा और संवाद का स्तर यही होने वाला है। क्या हम इस तरह की चीजों के लिए तैयार हैं?

सेंसर बोर्ड जिस तरह से अनावश्यक आपत्तियों, रिलीज की तारीख करीब आने तक फिल्मों को लटकाने और दूसरे आरोपों-आलोचनाओं का शिकार रहा है, उसे देखते हुए हमें फिल्मों के आकलन की प्रक्रिया को नए तरीके से अंजाम देने की जरूरत है। जनवरी 2016 में सेंसर बोर्ड में सुधार के लिए श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में गठित कमेटी की जो सिफारिशें मीडिया के हवाले से सामने आई हैं, उसके मुताबिक कमेटी ने कहा है कि सेंसर बोर्ड का रोल सिर्फ उतना हो, जितना उसे बनाए जाने का मकसद था, यानी सेंसर बोर्ड सिर्फ फिल्मकारों को सर्टिफिकेट दे, न कि काट-छांट पर सलाह। फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का हक सिर्फ केंद्र सरकार को देने की सिफारिश भी कमेटी ने की है। सिनेमेटोग्राफर ऐक्ट में बदलाव अभी विचाराधीन है, इसीलिए यह वक्त बेहद मुफीद है कि समाज में भी सेंसर बोर्ड की प्रासंगिकता और वक्त के मुताबिक उसमें बदलाव पर बहस छिड़े। यह दर्शकों के भी हित में होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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