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बात पशुओं के अधिकारों की भी हो

कुछ समय पहले खबर आई कि इंदौर की पॉश कॉलोनी में एक तेंदुआ घुस आया, जिसने कई लोगों को घायल कर दिया। ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ, विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरों द्वारा शहर में आकर उत्पात मचाने की खबरें...

बात पशुओं के अधिकारों की भी हो
विजय गोयल, केंद्रीय संसदीय कार्य राज्य मंत्रीTue, 16 Oct 2018 09:55 PM
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कुछ समय पहले खबर आई कि इंदौर की पॉश कॉलोनी में एक तेंदुआ घुस आया, जिसने कई लोगों को घायल कर दिया। ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ, विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरों द्वारा शहर में आकर उत्पात मचाने की खबरें आती रहती हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? शेर, बाघ, तेंदुआ, भालू और हाथी जैसे जंगली जानवर शहरों में घुसकर उत्पात मचा रहे हैं और कई बार भीड़ के हाथों मारे जा रहे हैं। तो क्या हमें इन जानवरों को मारने का लाइसेंस मिल गया है? वे किसी को मारें, तो गलत और मनुष्य जानवरों को मारे, तो सही?

सिर्फ छत्तीसगढ़ में साल 2015 से 2017 के बीच करीब 175 लोग हाथियों के हमले में मारे गए, वहीं हाथियों ने 43 हजार से अधिक घरों को उजाड़ दिया और फसलों को भी नुकसान पहुंचाया। इस दौरान लोगों ने बड़ी संख्या में हाथियों को भी मार डाला। उधर झारखंड में ऐसी ही घटनाओं में पिछले साल 56 लोगों और 13 हाथियों की जान चली गई। यहां पिछले पांच साल में ऐसी घटनाओं में करीब 285 लोग और 45 हाथी मारे जा चुके हैं। ये आंकड़े भयभीत करने वाले हैं। झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल सहित कई राज्यों में बड़ी संख्या में हाथी रहते हैं। 

इस समस्या का एक कारण यह भी है कि मनुष्य जंगलों में घुसकर जंगलों को खत्म कर रहा है और वहां के संसाधनों को अपने स्वार्थ के लिए बरबाद कर रहा है। जंगली जानवरों के प्राकृतिक पर्यावास, भोजन और जल पर आदमी कब्जा करता जा रहा है। जंगल सिमटते जा रहे हैं, इसीलिए जानवर जंगलों से भागकर भोजन और पानी की तलाश में शहर में आ जाते हैं। हम जंगलों पर कब्जा कर रहे हैं और जब जंगली जानवर मजबूरी में शहर में घुसता है, तो कहते हैं कि जानवरों ने इतने लोगों को मार दिया। लेकिन जब आदमी जानवरों को मारते हैं तो कोई हल्ला नहीं होता। क्या पशुओं को जीने का अधिकार नहीं है? 

मनुष्य की प्रवृत्ति और प्रदूषण से वैसे भी कई प्रजातियां समाप्ति की ओर हैं। मनुष्य कई बार केवल और केवल अपने स्वाद के लिए जंगली जानवरों को भी मार देता है, जबकि अधिकांश जंगली जानवर स्वभाव से मांसाहारी होते हैं। यदि जंगल में जानवरों के लिए भोजन यानी शिकार खत्म हो जाएंगे, तो वे शहर की तरफ आएंगे और गाय-बकरी और कुछ खास स्थितियों में आदमी तक को शिकार बनाएंगे ही। जानवरों के अंदर भी आत्मा है और उन्हें भी जीने का पूरा अधिकार है। स्वार्थ, सुविधा, लाभ या मनोरंजन, किसी भी कारण से पशुओं के साथ अत्याचार या उनकी हत्या गलत है। हमारे हिंदू धर्म में जानवरों को भी पूरा-पूरा सम्मान दिया गया है। विभिन्न जीव-जंतुओं को देवी-देवताओं के साथ इसीलिए जोड़ा गया है, ताकि कम से कम धर्म के कारण ही लोग इनका सम्मान करें, इनकी रक्षा करें। जैसे, मां दुर्गा के साथ सिंह, भगवान विष्णु के साथ गरुड़, भोले शंकर के साथ सर्प और नंदी, गणेश के साथ मूषक, श्रीकृष्ण के साथ गाय आदि।

‘दया धर्म का मूल है’ और हिंदू धर्म इसी मूल पर स्थित है। बाकी धर्मों में भी जीवों पर दया की शिक्षा दी गई है। यहां तक कि स्कूलों में भी इस बात की शिक्षा दी जाती है, फिर भी लोग अपने स्वार्थ के लिए जानवरों को मार रहे हैं। तो क्यों न पाठ्यक्रम में ही यह भी बता दिया जाए कि किसे मारना है और किसे नहीं? पहले हमारे घरों में गांवों की रसोई में पहली रोटी गाय और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए अलग से बनाकर रखी जाती थी। बदले में वे गांव के लिए उपयोगी होते थे। अब यह चलन करीब-करीब खत्म हो गया है। आजकल केवल गाय को मारने की बात हो रही है, पर बाकी जानवरों को भी तो मारा जा रहा है। देखा जाए तो सारे जानवरों का जीने का अधिकार एक समान है। जिस प्रकार फर्जी मुठभेड़ के मामले में मानव अधिकार आयोग तुरंत संज्ञान लेता है, ऐसा ही जानवरों की हत्या या शिकार के मामलों में भी होना चाहिए। हम मनोरंजन के नाम पर सर्कस में 10-15 प्रजाति के जीवों पर होने वाली ज्यादती या माल ढुलाई या खेलों में इस्तेमाल किए जाने वाले जानवरों और पक्षियों की बात ही क्यों करते हैं? सभी पशु-पक्षियों के अधिकारों के बारे में समान रूप से चर्चा होनी चाहिए। 

मनुष्य को समस्त प्राणी-जगत में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है। ऐसे में उसके द्वारा पशुओं के साथ क्रूरता का व्यवहार शोभा नहीं देता। पशु-पक्षियों से रहित दुनिया की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वसुधैव कुटुम्बकम  के दर्शन वाली संस्कृति में इन प्राणियों का भी उतना ही महत्व है जितना मनुष्य का। ये भी प्रकृति के सौंदर्य का हिस्सा हैं। इसीलिये जरूरी है कि मानव इनके प्राकृतिक आवास और जीवन को सुरक्षित रखे और उसमें दखल न दे। अन्यथा प्रकृति की फूड चेन गड़बडाने का पूरा असर मनुष्य पर भी पड़ना तय है। ऐसे में इस चेन को बचाए रखना इंसानों के लिए भी उतना ही जरूरी है, जितना जानवरों के लिए।

वक्त आ गया है कि सरकार को एक उच्च स्तरीय समिति बनाकर नए कानून बनाने चाहिए कि जीव हत्या में क्या गलत है और क्या ठीक? आखिर क्या कारण है कि ज्यादा से ज्यादा लोग अब शाकाहार की तरफ मुड़ रहे हैं? उन्हीं कारणों पर सरकार  अन्य लोगों को प्रेरित कर सकती है। इंसान और जानवर, दोनों में आत्मा समान है। फिर भेदभाव क्यों? क्या सिर्फ हमें ही उन्हें मारने का लाइसेंस मिला है? (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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