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यहीं कहीं रहेंगे केदारनाथ सिंह

हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण पीढ़ी तेजी से विदा हो रही है। यह एक दुखद और डरावना दृश्य है, जहां ऐसे बहुत कम कवि बचे हैं, जिनसे कविता का विवेक और प्रकाश पाया जा सके। पिछले वर्ष कुंवर नारायण, चंद्रकांत...

यहीं कहीं रहेंगे केदारनाथ सिंह
मंगलेश डबराल, वरिष्ठ कविTue, 20 Mar 2018 10:15 PM
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हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण पीढ़ी तेजी से विदा हो रही है। यह एक दुखद और डरावना दृश्य है, जहां ऐसे बहुत कम कवि बचे हैं, जिनसे कविता का विवेक और प्रकाश पाया जा सके। पिछले वर्ष कुंवर नारायण, चंद्रकांत देवताले, दूधनाथ सिंह और अब केदारनाथ सिंह। केदारजी रक्तचाप, मधुमेह या हृदयाघात जैसी व्याधियों से मुक्त थे, जो अस्सी वर्ष पार करने वाले व्यक्ति को प्राय: अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं और सबको उम्मीद थी कि वह निमोनिया पर काबू पाकर फिर से लेखन में सक्रिय होंगे। लेकिन यह उम्मीद पूरी नहीं हो पाई।

रघुवीर सहाय और कुंवर नारायण की शानदार पीढ़ी में केदारजी शायद कवि और मनुष्य, दोनों रूपों में सबसे अधिक लोकप्रिय थे और उनसे अधिक जनप्रिय किसी कवि की याद आती है, तो वह बाबा नागार्जुन ही हैं। केदारजी ने यह भी प्रमाणित किया कि कविता अगंभीर या ‘तरल-सरल’ बनाए बगैर, उसकी शर्तों से समझौता किए बगैर भी लोकप्रियता अर्जित कर सकती है और इसके लिए कवि को अपनी वास्तविक जगह, अपनी मूलभूमि और अपने लोगों से गहरे जुड़ना पहली शर्त है। केदारजी की कविता के केंद्र में यह ‘निवास-स्थल’ हमेशा बना रहा। चकिया, जहां जन्म हुआ या बनारस, जहां उनकी काव्य-संवेदना विकसित और विस्तृत हुई और पडरौना, जहां वह शिक्षक के रूप में लंबे समय तक काम करते रहे। दिल्ली में भी उनका लंबा प्रवास रहा और उनकी संतानों के परिवार भी यहीं बसे, लेकिन उनका वास्तविक निवास और घर चकिया, पडरौना और बनारस ही रहा। शायद यही वजह थी कि वह अक्सर दिल्ली से घबराकर अपने गांव-कस्बे में चले जाते, खेतों में टहलते और बचपन के मित्रों के साथ एक ठेठ भोजपुरी जिंदगी जीते हुए परम प्रसन्न होते। या फिर उनका मन अपनी बड़ी बहन के घर कोलकाता में लगता, जो महानगर होने के बावजूद अब भी एक विराट गांव है और जहां बांग्ला के कई कवियों से उनकी अच्छी मित्रता रही। कविगण प्राय: अपने मूल निवास नहीं बदलते और भले ही वे विस्थापित होकर कहीं चले जाएं, वे मूल भूमियां उनके साथ बनी रहती हैं। केदारजी की कविता में देहात और शहर के बीच का तनाव हमेशा बना रहा। दिल्ली जैसे निर्मम महानगर में रहते हुए वह ड्रॉइंग रूम में एक कुदाल की उपस्थिति को इसी तनाव और विडंबना की आंखों से देखते हैं। 

कविता में भी केदारजी ने लोक और स्थानीय-ग्रामीण संवेदना को एक अत्यंत चुस्त मुहावरे और उत्कट बिंबों के साथ न सिर्फ संभव किया, बल्कि उसे आधुनिक रचना-संसार में प्रतिष्ठा भी दी। उनके काव्य-जीवन की शुरुआत नवगीतों से हुई थी और उनके लोक-कविता जैसे बिंब और दृश्य बहुत से पाठकों को आज भी याद होंगे और प्रभावित करते होंगे:धान उगेंगे कि प्राण उगेंगे/ उगेंगे हमारे खेत में/ आना जी बादल जरूर।  केदारजी की इस दौर की कविता उस नई पीढ़ी के मर्म को छूती थी, जो एक परंपरा और पुरानी रचनाशीलता के बीच अपनी जड़ें जमाने की छटपटाहट से गुजर रही थी: मां ने लगाया है आंगन में तुलसी का बिरवा/ और पिता ने बरगद छतनार/ मैं अपना यह नन्हा गुलाब कहां रोपूं।  केदारजी को अपने पहले संग्रह अभी बिलकुल अभी  और तीसरा सप्तक  में शामिल कविताओं से ही पर्याप्त पहचान मिल गई थी, लेकिन उसके बाद उनकी संवेदना में नए प्रस्थान-बिंदु पैदा हुए, वह ज्यादा आधुनिक और कम रूमानी हुई और कई वर्ष बाद प्रकाशित दूसरे संग्रह के साथ वह एक ऐसे कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए, जो प्रतिबद्ध और ‘नई कविता’ की चौहद्दियों, उसके आत्मगत घात-प्रतिघात की भाषा में बात करता था। यह ‘दांतों के बीच फंसी हुई भाषा’ थी, जहां ‘चीजें एक ऐसे दौर से गुजर रही थीं कि मेज को मेज कहना उसे वहां से उठाकर अज्ञात अपराधियों के बीच रख देना’ था। 

प्रकृति केदारनाथ सिंह की कविता में एक जैविक उपस्थिति है, जो पहले कविता संग्रह से ही साथ थी और अब तक के आखिरी संग्रह सृष्टि पर पहरा  में और भी सघन और अर्थपूर्ण हुई है। केदारजी की कविता की यह बड़ी सामथ्र्य है कि वह किसी मामूली वस्तु या व्यक्ति को एक गैर-मामूली और मार्मिक परिप्रेक्ष्य में रख देती है और उसे अलग से अपना कोई वक्तव्य निर्मित नहीं करना पड़ता। उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए/ मैंने सोचा/ दुनिया को इतना ही सुन्दर और गर्म होना चाहिए  ऐसा ही चर्चित बिंब है। केदारजी अक्सर बिंब या दृश्य को ही पूरा वक्तव्य बना देते हैं, जिससे उनकी कविता बहुत मुखर नहीं हुई और उसका स्वर मद्धिम बना रहा, जिसकी कुछ आलोचना भी होती रही कि वह बिंबों से बाहर नहीं आ पाते और अपने समय के भयावह सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ पर कोई प्रत्यक्ष टिप्पणी नहीं करते। 

अक्सर कविता के पीछे उसका कवि छिपा होता है। केदारजी में अपनी कविताओं जैसी ही शराफत थी। वह अपने बारे में, निजी सुख-दुख के बारे में बहुत कम बात करते थे। बहुत पूछने पर ही कुछ कहते, लेकिन उन्हें दूसरों, पुराने दोस्तों-जैसे कैलाशपति निषाद के बारे में बताना और खासकर अपने से कम उम्र के लेखकों से गपशप करना बहुत प्रिय था। निषाद को लिखी उनकी चिट्ठियों की एक पुस्तक भी प्रकाशित है। किसी मंच पर अपनी प्रशंसा सुनना भी उन्हें अटपटा लगता और जब कोई उनका लंबा-चौड़ा परिचय देने लगता, तो वह उसे बीच में ही रोक देते। जिन लोगों ने उनके साथ कोई सफर किया हो या शाम बिताई हो, वे जानते हैं कि उनसे बात करना कितना खुशनुमा होता था। वह जेएनयू में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे, लेकिन आम अध्यापकों के उलट वह गुरुडम से दूर थे। उनकी गद्य पुस्तक कब्रिस्तान में पंचायत  की बहुत चर्चा नहीं हुई, पर उससे पता चलता है कि केदारजी आम लोगों से कितना अपनापा रखते थे।

अपने आखिरी दिनों में केदारजी जगह-जगह प्रकाशित रचनाओं को खोजने-सहेजने का काम कर रहे थे और संभव है कि जल्दी ही उनका नया कविता संग्रह और नया संकलन हमारे सामने आए। लेकिन विचित्र और त्रासद-सा संयोग है कि केदारजी ने अपने अंतिम संग्रह में जाऊंगा कहां  को अंतिम कविता के रूप में रखा, जिसमें संसार से विदा लेने की आहट के साथ उनके उत्तर-जीवन का भी संकेत है: जाऊंगा कहां, रहूंगा यहीं/ किसी किवाड़ पर/हाथ के निशान की तरह/ पड़ा रहूंगा/ किसी पुराने ताखे/ या संदूक की गंध में...। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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