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क्या हम इस हादसे से सबक सीखेंगे

सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। सुरक्षा प्रथम, काम हरदम। ...ये ऐसे ‘स्लोगन’ हैं, जो हरेक निर्माण स्थल के आसपास हम बडे़-बड़े अक्षरों में लिखा देखते हैं। मगर लगता नहीं कि इन वाक्यों का शब्दश:...

क्या हम इस हादसे से सबक सीखेंगे
कुमार नीरज झा, एसोसिएट प्रोफेसर आईआईटी, दिल्लीWed, 16 May 2018 10:35 PM
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सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। सुरक्षा प्रथम, काम हरदम। ...ये ऐसे ‘स्लोगन’ हैं, जो हरेक निर्माण स्थल के आसपास हम बडे़-बड़े अक्षरों में लिखा देखते हैं। मगर लगता नहीं कि इन वाक्यों का शब्दश: पालन भी किया जाता है। अगर किया जाता, तो तमाम हादसों से हम अपने आप बच सकते थे। वाराणसी में निर्माणाधीन पुल के गर्डर (भारी बीम) गिरने की घटना भी ऐसी ही है। अगर गर्डर रखने में सावधानी बरती गई होती, इसके तकनीकी पहलू पर ध्यान दिया जाता, यातायात नियमों का न्यूनतम ख्याल भी रखा गया होता, तो निश्चय ही इस हादसे से हम बच सकते थे। हालांकि अभी इस घटना की जांच जारी है और मूल वजह तलाशी जा रही है, पर इस तरह के हादसे अमूमन मामूली चूक का नतीजा होते हैं। 

अपने देश में गर्डर गिरने की घटनाएं आम हैं। हर कुछ समय के अंतराल पर एक नए हादसे के हम गवाह बनते हैं। हर बार सबक सीखने की बात भी कही जाती है, पर अनुभव यही बताता है कि हमने कोई सबक नहीं सीखा है। अकेले उत्तर प्रदेश में पिछले 10 वर्षों के भीतर करीब पांच ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं, जबकि इनसे आसानी से बचा जा सकता था। दुर्घटनाओं से बचने का कोई बड़ा अंकगणित नहीं है। इसके लिए जरूरत है, तो बस गर्डर रखने या ऐसा कोई भी काम करने के दौरान कुछ मामूली सावधानियां बरतने की।

यह जानने से पहले कि हमें किस तरह की सावधानियां रखनी चाहिए, पहले इस प्रक्रिया यानी गर्डर रखने की इंजीनियरिंग को समझना जरूरी है। असल में गर्डर के ऊपरी हिस्से का भार ज्यादा होता है, और नीचे का कम। यानी इसका ऊपरी हिस्सा भारी होता है और नीचे का हिस्सा पतला। इसके कारण इसकी बुनियाद ‘अन्स्टेबल’ यानी अस्थिर मानी जाती है। यही कारण है कि गर्डर का गुरुत्वाकर्षण-केंद्र बीच में नहीं होता, बल्कि जहां भार ज्यादा होता है, यानी ऊपर की तरफ होता है। 

इसके अलावा, गर्डर को किसी खंभे या आधार पर टिकाने से पहले उसकी ‘प्री-स्ट्रेशिंग’ की जाती है। यह कंक्रीट के खिंचाव को दबाकर रखने की एक तकनीकी प्रक्रिया है, जिसका पालन सुरक्षा के लिहाज से करना जरूरी होता है। असल में, कंक्रीट घनत्व में इतना मजबूत होता है कि उसे दबाया नहीं जा सकता, लेकिन उसका खिंचाव अपेक्षाकृत कमजोर होता है। उसे आसानी से खींचा जा सकता है। इस खिंचाव को रोकने के लिए और कंक्रीट को मजबूत बनाने के लिए ही ‘प्री-स्ट्रेशिंग’ करते हैं। यह दो चरणों में किया जाता है। इस प्रक्रिया में गर्डर के निचले हिस्से का ‘कॉन्टेक्ट एरिया’ यानी खंभे पर टिकने वाला हिस्सा थोड़ा-सा कम हो जाता है। इस स्थिति में यदि उसके किनारे पर हल्का लेटरल लोड (क्षैतिज भार) भी पड़ेगा, तो गर्डर नीचे गिर जाएगा। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि अगर किसी वस्तु का किनारा कमजोर हो, तो वहां पड़ने वाला हल्का झटका भी उस वस्तु को नीचे गिरा देगा। यह इतना कमजोर होता है कि हवा का तेज झोंका भी गर्डर को जमीन पर ला सकता है।

ऐसी स्थिति से बचने के लिए गर्डर को तब तक अस्थाई रूप से बांधकर रखा जाता है, जब तक कि उसे मजबूत स्थाई सहारा न मिल जाए या फिर काम पूरा न हो जाए। मगर जब ठेकदार या सुपरवाइजर यह मामूली सावधानी भी नहीं बरतते, तो हादसे हो जाते हैं। अप्रैल, 2016 में ठीक इसी तरह लखनऊ में निर्माणाधीन मेट्रो के पिलर की शटरिंग गिरने से कुछ लोग घायल हुए थे। सिंतबर, 2008 में लखनऊ-फैजाबाद कॉरिडोर पर भी एक निर्माणाधीन ओवरविज्र का हिस्सा इसी तरह गिरा था। 2012 में उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में बन रहा पुल भी करीब आधा दर्जन लोगों की मौत की वजह बना था। साफ है, निर्माण-कार्यों में बरती जाने वाली मामूली चूक कई लोगों के जीवन पर भारी पड़ती है। ऐसे में, अब होना यह चाहिए कि गर्डर को डिजाइन करने वाले लोग, कंपनी के ठेकेदारों या कॉन्ट्रैक्टर को इसके इस्तेमाल का उचित प्रशिक्षण दें। उन्हें यह भी बताया जाना चाहिए कि इसे किस तरह खंभे पर टिकाना है और किस तरह इसके बेस को मजबूती से थामना है।

ऐसे मामले सीधे-सीधे यातायात सुरक्षा से भी जुड़े होते हैं। जहां कहीं भी इस तरह के निर्माण-कार्य होते हैं, वहां कामगारों के इतर किसी अन्य के जाने की मनाही होती है। ट्रैफिक की आवाजाही तो बिल्कुल रोक दी जाती है। इसके लिए आस-पास बाकायदा बेरिकेडिंग की जाती है। लोगों को साइट से दूर रखा जाता है। मगर तस्वीरें बताती हैं कि बनारस में इनमें से कोई भी सावधानी नहीं बरती गई। अगर नीचे सड़क पर यातायात चालू नहीं रहता, तो गर्डर गिरने से जान-माल का इतना बड़ा नुकसान नहीं होता। बल्कि वहां मलबा हटाने के दौरान भी तमाम तरह की लापरवाही दिख रही थी।

ऐसी घटनाओं को लेकर आईआईटी दिल्ली के हम कुछ लोगों ने एक स्टडी की थी, जिसकी सिफारिशें सेफ्टी मैनुअल के रूप में भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण की वेबसाइट पर भी उपलब्ध हैं। इसमें यह बताया गया है कि किस तरह गर्डर को बीच के खंभों से टिकाकर रखा जाना चाहिए। लेकिन सच है कि इस पर कोई कॉन्ट्रैक्टर या ठेकेदार शायद ही ध्यान देता हो। जबकि ऐसा करने के लिए हमें ज्यादा कुछ नहीं करना होता है। इसमें कोई अतिरिक्त पैसे भी खर्च नहीं करने पड़ते। यह काम तो साइट पर मौजूद स्टील की उन कतरनों से भी हो सकता है, जो काम के लिहाज से हमारे लिए अमूमन अनुपयोगी हो चुकी होती हैं। 

स्पष्ट है कि हमें सावधानी बरतनी होगी। हम ऐसी दुर्घटनाओं में अपनी जान इस तरह नहीं गंवा सकते, जो मामूली सी सावधानी से सुरक्षित हो सकती हैं। पर सवाल अब भी वही है कि क्या हम इसके लिए तैयार हैं? क्या हम वाराणसी हादसे से सचमुच सबक सीखेंगे? (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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