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तो यह था दूधनाथ सिंह

दूधनाथ मेरे लिए ही नहीं, समूचे हिंदी साहित्य के लिए लंबे अरसे से इलाहाबाद का आकर्षण था। वह आकर्षण आज खत्म हो गया। मैं दो महीने से पुडुचेरी में हूं। इलाहाबाद में नहीं हूूं। मुझ पर क्या गुजर रही है,...

 तो यह था दूधनाथ सिंह
काशीनाथ सिंह, प्रसिद्ध कथाकारFri, 12 Jan 2018 09:54 PM
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दूधनाथ मेरे लिए ही नहीं, समूचे हिंदी साहित्य के लिए लंबे अरसे से इलाहाबाद का आकर्षण था। वह आकर्षण आज खत्म हो गया। मैं दो महीने से पुडुचेरी में हूं। इलाहाबाद में नहीं हूूं। मुझ पर क्या गुजर रही है, मैं ही जानता हूं। मैं यहां बहुत दूर हूं, लेकिन मेरी आत्मा नई झूंसी इलाहाबाद में दूधनाथ की देह के आसपास है। मेरा अब यहां मन नहीं लग रहा है। मैं नवंबर में गुड़गांव में दूधनाथ के साथ था हफ्ते भर तक। उसने विदा होने से पहले मुस्कराते हुए गालिब का एक शेर कहा था- था जिंदगी में मर्ज का खटका लगा हुआ/ मरने से पेशतर भी मिरा रंग जर्द था।

उससे 55 साल तक मेरा साथ रहा है। उसका इशारा शायद समय-समय पर होती रहने वाली उन बीमारियों की ओर था, जिनमें उसे मौत से जूझना पड़ा था, लेकिन जर्द को मैं उसके ठहाकों, हंंसी-ठट्ठों, उल्लास और छेड़छाड़ से जोड़ता हूं। तमाम संघर्षों के बीच वह एक जीवंत और जिंदादिल इंसान था।

वह मेरा दोस्त, सहयात्री लेखक और रिश्ते में समधी था। वह हमारे सातवें दशक का सबसे तेज-तर्रार, सबसे प्रबुद्ध और बहुपठित तथा सबसे प्रतिभाशाली लेखक रहा है। उसने हम सबसे अधिक लिखा और काम भी किया है, और वे काम अपने क्षेत्र के कीर्तिमान हैं। जैसे संस्मरणों में लौट आओ धार,  उपन्यासों में बाबरी मस्जिद विध्वंस पर आखिरी कलाम, निराला पर आत्महंता आस्था, नाटकों में यमगाथा, कहानियों में धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे और नमोन्धकारम्। हम लोगों में सबसे लंबे समय तक कोई लेखन में लगा रहा, तो वह दूधनाथ रहा। यहां तक कि कैंसर डिटेक्ट होने के बाद भी। हम कथाकारों में किसी ने कविताएं नहीं लिखीं। आलोचनाएं नहीं लिखीं। किताबों के संपादन नहीं किए। दूधनाथ ने यह सब किया। 

2017 में निकली उसकी अंतिम पुस्तक थी सबको अमर देखना चाहता हूं।  यह उसके निकट अतीत में गुजर गए दोस्तों पर लिखे गए संस्मरणों का संग्रह है। उनमें कुछ अमर नहीं भी रह सकते थे, लेकिन दूधनाथ की कृतियां उन्हें अमर रखेंगी, इसकी मुझे पूरी उम्मीद है। 

दूधनाथ से मेरा परिचय और देखा-देखी हुई सन 1963 में। उन दिनों मैं लोलार्क कुंड पर रहता था और व्याकरण कार्यालय में 200 रुपये महीने पर काम करता था। वे शायद महीने की अंतिम तारीखें थीं। मैं कार्यालय से दोपहर में घर लौटा, तो देखा मेरी ही उम्र का एक लड़का नीचे बसौटे पर लेटा हुआ है, गंदी गंजी और पायजामे में। मैंने पत्नी से पूछा कि यह कौन है? उन्होंने नाम दूधनाथ बताया। उस समय तक दूधनाथ के लेखन से मैं परिचित हो चुका था। उसकी कहानियां और कविताएं पत्रिकाओं में आ चुकी थीं। संग्रह सपाट चेहरे वाला आदमी और अपनी शताब्दी के नाम  नहीं छपे थे, लेकिन उसके प्रति सम्मान का भाव था। मैंने आवाज दी। वह उठा। पूछा कि अचानक कैसे आए तुम? दूधनाथ ने कहा कि गाजीपुर से पैदल आ रहे हैं और इतना थक गए हैं कि नींद आ गई थी। मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि गाजीपुर से बसें चलती थीं। उसने बताया कि पैसे नहीं थे, क्या करता, पैदल ही आना पड़ा। लेकिन देखो, मैं यहां से इलाहाबाद जाना चाहता हूं और उसके लिए पैसे चाहिए। शायद वह 28-29 तारीख थी। मेरा खुद उधारी खाता चल रहा था। मैं थोड़ा परेशान हुआ, लेकिन उसके लिए सब्जी वाले से उधार ले आया। शायद 30 रुपये। बाद में मालूम हुआ कि उसने झूठ बोला था और वह कलकत्ते से आया था स्टेशन और फिर वहां से उसे इलाहाबाद या गाजीपुर जाना था। संभवत: सुगंधा गांव। यह बात भी इलाहाबादियों ने बताई। 

वह कितना पढ़ता था, इसका ज्ञान मुझे उसी समय हुआ। उन दिनों धूमिल और हमारे साथ के एक लेखक थे बनारस में नागानंद मुक्तिकंठ। उनकी एक कहानी आज अखबार में छपी थी। लेकिन इसके पहले दो पत्रिकाओं में छप चुकी थी। शीर्षक था नीली आंखों वाली लड़की। दूधनाथ को मैंने बताया कि देखो, बनारस में इस तरह का लेखन हो रहा है। नीली आंखों वाली लड़की की कहानी में गांव में होटल है, जिसमें नायक ठहरता है। मैंने दूधनाथ से कहा कि भारत के किस गांव में होटल है, मैं नहीं जानता। तुम जानते हो, तो बताओ? उसने कहानी का पहला पैराग्राफ पढ़ा और कहा कि यह तो अनुवाद है, जिसे नागानंद ने अपने नाम से छपवाया है। उसने एवरग्रीन रिव्यू नामक अमेरिकी पत्रिका के बारे में बताया, जिसे हंग्री जनरेशन के बीटनिक कवि निकालते थे। मेरे यहां वह पत्रिका थी संयोग से। दूधनाथ ने वह पत्रिका ली और बताया कि देखो यह कहानी है ए बकेट ऑफ ब्लू आईज।  इसी कहानी का अनुवाद है। फिर साहित्य की दूसरी समस्याओं पर बातचीत हुई, तो मालूम हुआ कि उसका साहित्य का अध्ययन बहुत ही गहरा है। उसने अकहानी के दौर से शुरू किया और नई कहानी का दौर खत्म हुआ। लिखना बंद कर दिया था। एक लंबे गैप के बाद उसने जनवादी लेखन शुरू किया और धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे  जैसी कहानियों से शुरू करके अपनी पहचान को पुख्ता किया। जितना लेखन दूधनाथ ने किया है, उतना किसी ने नहीं। सच तो यह है कि दूधनाथ ने जिस पर कलम चलाई, चाहे वह महादेवी वर्मा हों या सुमित्रानंदन पंत या मुक्तिबोध, उसमें कुछ अनूठा और अनोखा किया। जिन पर किसी और की नजर नहीं गई थी। उसकी कहानियों में और उपन्यासों में जैसे दुर्लभ विवरण और वर्णन मिलते हैं, वैसे बहुत कम लेखकों में हैं। खासतौर से उसकी भाषा जितनी निर्मल, निर्झर और सुगंध से भरपूर है, कहीं और मुश्किल से नजर आती है। वस्तुत: वह लेखक ही नहीं, संपूर्ण लेखक था, वरना भुवनेश्वर समग्र  निकालने की बात कैसे दिमाग में आती? हमारे दौर का वह जीनियस था। 

मेरे दूधनाथ के रिश्ते बने, यह बहुुत ही दिलचस्प प्रसंग है। मैं दूधनाथ के घर ठहरा हुआ था। उन दिनों वह सिविल लाइन्स के काफिल्स रोड पर रहता था। शाम को दूधनाथ ने कहा कि बहुत दिन हुए, आज बाजार चलें, और वहां से चिकन और रम लाई जाए। शाम को साथ खाया-पीया जाए। उन दिनों मेरे मन में बेटी के विवाह की चिंता थी। एमए फाइनल में थी वह। दूधनाथ के पास पुराना लेंब्रेटा था। मैंने पूछा- चला लोगे? उसने कहा- चलो, डरो मत। मील-डेढ़ मील चलने के बाद मैंने धीरे से दूधनाथ के कान में कहा- दूधनाथ, अपने बेटे से मेरी बेटी की शादी करोगे? दूधनाथ ने ठहाका लगाया और स्कूटर रोक दिया। हम दोनों नीचे उतरे। उसने मुझे देखा और बोला- अब मैं पूछता हूं, तुम जवाब दो- यह बताओ मेरे बेटे से तुम अपनी बेटी की शादी करोगे? हम दोनों ने ठहाके लगाकर एक-दूसरे को छाती से लगा लिया और वहीं एक मिनट में शादी तय हो गई। यह था दूधनाथ। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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