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उस बोलते हुए चेहरे के पीछे की खामोशी

खामोशी उनके आगे-पीछे चलती थी। लेकिन बीच में खुशी थी, हंसी थी और जिंदगी थी। उन्हीं लम्हों में रहती थीं श्रीदेवी, अपनों के बीच, अपनों की दुनिया में, दूसरों को सपने बांटती हुईं...। ऐसा क्यों लग रहा है,...

उस बोलते हुए चेहरे के पीछे की खामोशी
जयंती रंगनाथन, सीनियर फीचर एडीटरSun, 25 Feb 2018 09:53 PM
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खामोशी उनके आगे-पीछे चलती थी। लेकिन बीच में खुशी थी, हंसी थी और जिंदगी थी। उन्हीं लम्हों में रहती थीं श्रीदेवी, अपनों के बीच, अपनों की दुनिया में, दूसरों को सपने बांटती हुईं...। ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे कोई अदृश्य सी शक्ति, जो पिछले चार दशकों से आपको आगे बढ़ने, चुनौतियों का मुकाबला करने की ताकत देती आ रही थी, वह अचानक बंद मुट्ठी से रेत की मानिंद सरक गई? कौन थी वह? एक बेहतरीन अदाकारा, एक बेहद खूबसूरत औरत, कुछ गलत-कुछ सही निर्णय लेने वाली एक मानवीय स्त्री, एक जुझारू औरत, जो जिंदगी के हर मुकाम पर शांति और शिद्दत से बाजी जीतती रही या एक हमउम्र आइडल? शायद ये सब कुछ। 

अस्सी और नब्बे के दशक में जिसने भी श्रीदेवी को सामने से देखा है, वह बता सकता है कि उनकी एक झलक आंखों में रोशनी भरने के लिए काफी थी। बला की दिलकश! यूं लगता, जैसे संगमरमर का कोई तराशा हुआ बुत हो। कैमरे के सामने जैसे उस बुत में जान आ जाती। श्रीदेवी को क्षण भर में किरदार में ढलते देखना अपने आप में अनोखा अनुभव था। कुछ तो बात थी उनमें, जिससे लगता कि वह आपका ही कोई हिस्सा हों। यह बात बरसों बाद निर्देशक रामगोपाल वर्मा ने भी कही थी और इंग्लिश-विंग्लिश  की निर्देशक गौरी शिंदे ने भी। 

साल 1987 में आई फिल्म मिस्टर इंडिया  श्रीदेवी की जिंदगी में एक बदलाव लेकर आई। उसी दौरान पहली बार मुलाकात हुई थी उनसे, फिल्म के निर्माता बोनी कपूर और उनकी पत्नी मोना से। उस मुलाकात का जिम्मा मोना ने उठा रखा था, यह कहते हुए कि श्रीदेवी को देखिए और बातें मुझसे कीजिए। श्रीदेवी ने मोना का हाथ कसकर पकड़ रखा था। कई कामयाब फिल्में देने के बावजूद श्रीदेवी की हिंदी फिल्मों में अजनबीयत साफ दिखाई दे रही थी। तब बुदबुदाते हुए उनका यह कहना था कि वह हिंदी सीख रही हैं और मिस्टर इंडिया  उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती है। पता नहीं, वह उस पर खरी उतर पाएंगी भी या नहीं...। खबर तो यह भी थी कि इस फिल्म के लिए श्रीदेवी की अम्मा ने तगड़ा पारिश्रमिक मांगा है। श्रीदेवी बोनी को भैया कह रही थीं और मोना को अपनी सबसे अंतरंग सहेली। श्रीदेवी उस समय मिठुन चक्रवर्ती के साथ अपने निजी रिश्तों के बारे में बात करने को लेकर बेहद असहज थीं। मोना एक सजग पहरेदार की तरह उनको तमाम सवालों से बचा रही थीं। वैसे भी, श्रीदेवी खुद इतना कम बोलती थीं कि आपको उनके आसपास बिखरे शब्दों को बड़ी मुश्किल से बटोरना पड़ता था। मोना का आत्म-विश्वास रंग लाया। मिस्टर इंडिया  जबरदस्त कामयाब रही। रातोंरात जयप्रदा, मीनाक्षी शेषाद्रि और रेखा को पछाड़कर श्रीदेवी हिंदी फिल्मों की नंबर एक नायिका बन गईं। इस फिल्म की कामयाबी ने कई अफवाहों व खबरों को पीछे छोड़़ दिया।  

हिंदी फिल्मों में श्रीदेवी को एक और बड़़ी कामयाबी मिली यश चोपड़ा के साथ चांदनी  में। यश चोपड़ा पहले रेखा के साथ यह फिल्म बनाना चाहते थे। पर मिस्टर इंडिया  में नीली साड़ी में पानी में भीगती श्रीदेवी को काटे नहीं कटते  गाने में देखने के बाद उन्होंने तय कर लिया कि उनकी चांदनी बस श्रीदेवी हो सकती हैं। यश चोपड़ा ने श्रीदेवी को अपने अंदाज में बयां करते हुए मुझसे कहा था, ‘इस लड़की के अंदर दर्द का ज्वालामुखी कैद है। वह अपने दर्द किसी से नहीं बांटती। बहुत अंतर्मुखी है। खामोश रहती है। नगमा जुबां पर नहीं, उसके दिल में चलता रहता है। जब वह कैमरे के सामने आती है, तो जैसे वह ज्वालामुखी फट जाता है और कयामत आ जाती है।’

चांदनी  की शूटिंग देखकर लौटते समय उस समय के प्रसिद्ध फिल्म आलोचक रऊफ अहमद ने कहा था, ‘अब इस लड़की को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। इसे पता है कि अपनी कमजोरियों से कैसे पार पाना है? अपने को हर दिन कैसे नई चुनौती देनी है और उनसे कैसे लड़ना है?’ रऊफ की बात सही निकली। चांदनी  के जरिए अस्सी के दशक के अंत में एक बार फिर परदे पर प्यार लौट आया। 

मोना से ही उन दिनों श्रीदेवी के बारे में कुछ खबरें मिलती रहती थीं। श्रीदेवी का संघर्षरत बचपन, एक आम स्त्री की तरह जीने की उनकी चाहत और अपनों को खोने का एक अजीब सा डर। अपने अप्पा (पिता) के बहुत करीब थीं श्री। उनका ही ख्वाब था श्री को एक सफल नायिका के रूप में देखने का। अम्मा दबंग थीं और उनसे तो डरती थीं वह। अप्पा ने हर कदम पर साथ दिया। लाड़ से वह सबके सामने श्री को ‘पप्पू’ बुलाते। श्रीदेवी मानती थीं कि अपने पिता की वजह से उनके कदम जमीं पर ही रहे। फिर एक दिन अप्पा चले गए। श्रीदेवी बुरी तरह टूट गईं। मोना ने तब कहा था, ‘इस समय श्रीदेवी को परिवार के साथ की बहुत जरूरत है। हम कोशिश कर रहे हैं कि हर तरह से उनका साथ दे। वह हमारे परिवार का ही एक हिस्सा हैं...।’

वक्त-वक्त की बात है। अंतत: श्रीदेवी उसी कपूर परिवार का हिस्सा बनीं। मोना ने कभी श्रीदेवी के लिए कुछ नहीं कहा। उनका मानना था कि श्रीदेवी को जिंदगी में अपने लिए अपनी पसंद का व्यक्ति चुनने का पूरा हक है। गलती उनके पति की है। बोनी कपूर से शादी और फिल्मों से उनका एक बड़ा विश्राम लेना, दो बेटियों की परवरिश और फिर एक खूबसूरत सी वापसी इंग्लिश-विंग्लिश  के जरिए। श्रीदेवी ने खुद से जुड़ी खबरों के बारे में कभी कुछ नहीं कहा। एक लंबे अरसे बाद वह लोगों, खासकर मीडिया से मिलीं, तब तक उनकी जिंदगी में, फिल्मों में और दुनिया में बहुत कुछ बदल चुका था।

श्रीदेवी से आखिरी बार मुलाकात हुई 2014 में उनकी कमबैक फिल्म इंग्लिश-विंग्लिश के दौरान। बहुत कम बोलने वाली श्रीदेवी तब और भी कम बोलीं। उसमें भी अपने बारे में कम, बेटियों के बारे में ज्यादा। उनसे मिलकर लगा, बीच के साल कहीं ठिठक गए हैं। वही जगमगाता चेहरा, वही छरहरी काया। श्रीदेवी ने कहा था, ‘उन्हें दो चीजों से डर लगता है- बूढ़ी होने से और अपनों को खोने से।’

हसरतें दफन हो गईं... चार दशकों का साथ छूट गया। मन कर रहा है निर्माता-निर्देशक रामगोपाल वर्मा की तरह कहूं- ऐ खुदा, तेरी शुक्रगुजार हूं कि तूने श्रीदेवी को बनाया। पर बहुत नाराज हूं कि तूने उनको वापस क्यों बुला लिया?

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