सबको हिला देने वाला वह एक दिन
जलियांवाला बाग नरसंहार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की एक ऐसी घटना है, जिसने बाद के तमाम आंदोलनों को गहरे प्रभावित किया। इसका सबसे ज्यादा असर तो 1920 में हुए असहयोग आंदोलन में दिखता है, जिसे...
जलियांवाला बाग नरसंहार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की एक ऐसी घटना है, जिसने बाद के तमाम आंदोलनों को गहरे प्रभावित किया। इसका सबसे ज्यादा असर तो 1920 में हुए असहयोग आंदोलन में दिखता है, जिसे पहला ‘अखिल भारतीय जन-आंदोलन’ भी कहा जाता है। इतिहासकार इसे जलियांवाला बाग हत्याकांड का जवाब मानते हैं। महात्मा गांधी ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था, और जो कारण उन्होंने बताए थे, उनमें शीर्ष पर पंजाब में हुई ज्यादतियां थीं। स्वराज की मांग इसके बाद की गई।
पंजाब में ब्रिटिश सरकार ने काफी ज्यादा जुल्म ढाया था। असल में, पहले विश्व युद्ध के बाद हिन्दुस्तान को यह भरोसा था कि अंग्रेज कुछ राजनीतिक-सांविधानिक बदलाव करेंगे। लोगों को कुछ नई रियायतें दी जाएंगी, सेंट्रल असेंबली और राज्यों की लेजिस्लेटिव कौंसिल को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाया जाएगा और भारतीय प्रतिनिधियों को उनमें अधिक ताकत दी जाएगी। यह उम्मीद यूं ही नहीं बनी थी, विश्व युद्ध में भारत को झोंकने के समय अंग्रेजों ने यह सब करने का वादा किया था। कयास ये भी लगाए जा रहे थे कि मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू किया जाएगा, जिसमें हिन्दुस्तान के लिए स्वशासी संस्थाओं की बातें की गई थीं। मगर यह सब करने की बजाय अंग्रेज टाल-मटोल करने लगे। उल्टे वे सेंट्रल असेंबली में रॉलेट ऐक्ट ले आए, जिसके पीछे उनकी दलील थी कि वे क्रांतिकारी गतिविधियों को रोकना चाहते थे। मगर असलियत में उनका मकसद राष्ट्रीय आंदोलनों को कुचलना था।
असेंबली में भारतीय प्रतिनिधियों के भारी विरोध के बावजूद जब इस ऐक्ट को पास कर दिया गया, तो आम लोगों में नाराजगी बढ़ गई। गांधीजी ने इसके खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरुआत की। छह अप्रैल को उनकी देशव्यापी हड़ताल का खासा प्रभाव पड़ा। पंजाब में इसका काफी ज्यादा असर दिखा, क्योंकि विश्व युद्ध में शामिल भारतीय सेना में यहां के लोगों की संख्या अधिक थी। आमतौर पर यह हड़ताल शांतिपूर्ण ही थी, पर कुछ जगहों से हिंसा की भी खबर आई। नतीजतन, पुलिस ने सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को विद्रोह भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। इसी गिरफ्तारी के विरोध में जब 13 अप्रैल को लोग जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा कर रहे थे, तो जनरल रेगिनाल्ड डायर ने अपनी हनक में उन निहत्थे लोगों पर गोलियां चलवा दीं। इसमें शहीद लोगों का सरकारी आंकड़ा 379 है, पर अनधिकृत रूप से 1,000 लोगों की मौत की बात कही जाती है।
अंग्रेजों का दमन व अत्याचार यहीं तक नहीं रुका। इस हत्याकांड के बाद पंजाब में मार्शल लॉ लगा दिया गया। लोगों को जमकर प्रताड़ित किया जाने लगा। यहां तक कि गांधीजी को भी वहां नहीं जाने दिया गया। मगर बाद में, जब पंजाब में हुए जुल्म की सूचनाएं जाहिर हुईं, तो पूरा देश गुस्से से उबल पड़ा। अंग्रेजों से लोग इसलिए भी नाराज हुए, क्योंकि जलियांवाला बाग हत्याकांड पर अपनी गलती मानने की बजाय जनरल डायर का समर्थन किया जा रहा था। ब्रिटिश संसद में उनकी तारीफ की गई थी। मॉर्निंग पोस्ट नामक अखबार ने उन्हें पुरस्कार देने के लिए पाठकों से बाकयादा चंदा इकट्ठा किया था। और तो और, इस मामले की जांच के लिए बनी हंटर कमेटी ने भी उन्हें बेदाग बता दिया था।
जिन कुछ लोगों में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति थोड़ी सी हमदर्दी उस वक्त तक बची हुई थी, इन सबके कारण वह भी जाती रही। अंग्रेजों की असलियत उनके सामने थी, और उनका यह भ्रम टूट चुका था कि अंग्रेज सभ्य होते हैं। अब उन्हें भी औपनिवेशिक हुकूमत शोषणकारी लगने लगी थी। यानी, इस एक घटना ने अंग्रेजों के खिलाफ पूरे देश को एक करने का काम किया। लोग औपनिवेशिक व्यवस्था का खुलकर विरोध करने लगे, जो अगले वर्ष असहयोग आंदोलन का आधार बना।
जलियांवाला बाग हत्याकांड का एक और संदेश है। यह बताता है कि यदि लोगों पर ज्यादतियां की जाएंगी, तो मुमकिन है कि उस वक्त वे उसका प्रतिकार न कर सकें, लेकिन वक्त आने पर उसका जवाब जरूर देंगे। जनता सब कुछ देखती और समझती है, बस जवाब के लिए वह माकूल वक्त का इंतजार करती है। 1975 के आपातकाल में हम यह देख चुके हैं कि मौका मिलते ही लोगों ने उस सत्ता को उखाड़ फेंका, जिसने उनके अधिकार खत्म किए थे।
अपने देश में वक्त-वक्त पर जलियांवाला बाग हत्याकांड के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा माफी मांगने की बात की जाती है। यह मांग तब और ज्यादा तेज हो जाती है, जब इंग्लैंड की महारानी या वहां के प्रधानमंत्री भारत का दौरा करते हैं। मगर मैं इस एक घटना के लिए माफी की पक्षधर नहीं हूं। माफी की मांग करने वाले लोगों को स्वतंत्रता संग्राम के चरित्र को समझना चाहिए। दरअसल, आजादी की लड़ाई हमने किसी एक व्यक्ति के खिलाफ नहीं लड़ी थी, वह पूरे तंत्र के खिलाफ थी। एक ऐसे तंत्र के खिलाफ, जो नागरिक अधिकारों का दमन कर रहा था। हम आज तक इसलिए गरीबी झेल रहे हैं, क्योंकि हमारी बहुमूल्य संपदा वही हुकूमत अपने साथ लेकर चली गई। उसी सरकार की वजह से हम औद्योगिक क्रांति में अपनी भागीदारी नहीं निभा सके। इसलिए माफी की मांग किसी एक घटना के लिए नहीं, बल्कि 200 वर्षों के उस पूरे शासनकाल के लिए होनी चाहिए। गांधीजी भी कहा करते थे कि अंग्रेजों के खिलाफ हम इसलिए नहीं हैं कि उनकी चमड़ी गोरी है, या वे ईसा मसीह को मानते हैं, या फिर किसी दूसरे देश के हैं। हम इसलिए उनका विरोध करते हैं, क्योंकि वे हमारा शोषण करते हैं और हमारी तरक्की की राह में रुकावट बनते हैं। वाकई, रंगों के आधार पर भेद हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का आधार कभी नहीं रहा। वैसे भी, सिर्फ जलियांवाला बाग के लिए माफी मांगने की वकालत करना आजादी की बाकी दूसरी दमनकारी घटनाओं का औचित्य ठहराना होगा। क्या हम ऐसा चाहेंगे?
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)