कोरोना-काल में प्लेग के सबक
कहते हैं, महामारियां समाज और दुनिया की दिशा बदल देती हैं। भारत के संदर्भ में देखें, तो वर्ष 1896-97 का बूबोनिक प्लेग शायद इतिहास का सबसे बड़ा मोड़ है। प्लेग और हैजे जैसी महामारियों के कहर से भारतीय...
कहते हैं, महामारियां समाज और दुनिया की दिशा बदल देती हैं। भारत के संदर्भ में देखें, तो वर्ष 1896-97 का बूबोनिक प्लेग शायद इतिहास का सबसे बड़ा मोड़ है। प्लेग और हैजे जैसी महामारियों के कहर से भारतीय समाज इससे पहले भी कई बार परिचित हो चुका था, और इन महामारियों ने पहले भी लाखों लोगों की जान ली थी। लेकिन इस बार बड़ा फर्क यह था कि देश में ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार का एक अखिल भारतीय शासन था, जो अपने तमाम पूर्वाग्रहों के साथ इस रोग के पीछे लट्ठ लेकर पड़ गया था। हालांकि कोविड-19 की तरह ही बूबोनिक प्लेग भी भारत में आने से पहले ब्रिटेन समेत दुनिया के कई देशों में फैल चुका था। लेकिन भारत में उसके लिए सरकार की सोच दरअसल भारतीय समाज और खासकर यहां के गरीबों के प्रति शासकों की हिकारत से उपजी थी। वे यह मानकर चल रहे थे कि भारतीयों की जीवन-शैली ही इसके फैलने का सबसे बड़ा कारण है।
सबसे पहले यह महामारी समुद्र-तट पर लंगर डालने वाले जहाजों के साथ मुंबई पहुंची। कुछ ही समय में इसका सबसे बड़ा असर दिखा देश भर से आए मजदूरों की झुग्गी बस्तियों में। उनकी छोटी-छोटी झोपड़ियों को ही सबसे बड़ा गुनहगार माना गया और मजदूरों को जबरन बाहर निकाल इनमें आग लगा दी गई। उन बेघर हो चुके मजदूरों के पास अब इसके सिवाय कोई चारा नहीं था कि वे चुपचाप अपने गांव चले जाएं। बहुत सारे मजदूर अकेले ही अपने गांव नहीं गए, वे अपने साथ प्लेग के कीटाणु भी ले गए। मुंबई में दस्तक देने वाली यह महामारी जल्द ही पूरे देश में फैल गई। सिर्फ यह महामारी ही नहीं फैली, अंगे्रज सरकार का हिकारत के साथ सख्ती बरतने का रवैया भी पूरे देश में फैल गया। प्लेग के प्रकोप वाले हरेक जिले में प्लेग कमिश्नर नियुक्त किए गए, जिन्हें यह पूरी छूट थी कि वे जिस तरह से चाहें, समस्या से निपटें। कुछ ही समय के भीतर देश के पास प्लेग से मरने वालों की जितनी कहानियां थीं, उनसे ज्यादा गाथा इस महामारी को लेकर सरकार के जुल्म की थी।
पश्चिम भारत में प्लेग का सबसे ज्यादा कहर दिखा पुणे में, लेकिन वहां एक दूसरा कहर भी बरपा, जो इससे कहीं बड़ा था। सिविल सेवा के कड़ियल अफसर सतारा के कलेक्टर वॉल्टर चाल्र्स रैंड को पुणे का प्लेग कमिश्नर बनाया गया। रैंड ने सबसे पहले तो हालात से निपटने के लिए सेना को बुला लिया। सेना और डॉक्टरों की टुकड़ियां हर बस्ती में घूमने लगीं। घरों को सैनिटाइज करने के लिए लोगों को जबरन घरों से बाहर निकाला जाता। फिर सार्वजनिक रूप से उन्हें निर्वस्त्र करके जांच की जाती कि उन्हें प्लेग तो नहीं है। इस रवैये के बाद पुणे का मराठी समाज उबलने लगा। गणित की अध्यापकी छोड़कर पत्रकार बने बाल गंगाधर तिलक ने अपने अखबार केसरी में इस पर एक लेख लिखा। उनका कहना था, हम शहर में जो मानव-अत्याचार देख रहे हैं, प्लेग की महामारी तो उसके मुकाबले ज्यादा दयालु है।
आक्रोश बढ़ा, तो एक शाम पुणे के वकील दामोदर हरि चापेकर ने अपने दो भाइयों बालकृष्ण हरि और वासुदेव हरि के साथ मिलकर रैंड की उस समय हत्या कर दी, जब वे क्वीन विक्टोरिया की ताजपोशी के रजत जयंती समारोह से लौट रहे थे। चापेकर बंधुओं को फांसी दी गई, लेकिन वे रातों-रात नायक बन गए। आज उन्हें स्वतंत्रता सेनानी की तरह याद किया जाता है। उन पर किताबें लिखी गईं, फिल्म भी बनी। देश आजाद हुआ, तो दामोदर हरि चापेकर पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया। पुणे के चिचविंडेमें तीनों भाइयों की भव्य मूर्ति इस पूरी कथा की आज भी लोगों को याद दिलाती है।
इसके साथ ही बाल गंगाधर तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चला। रैंड की हत्या की वजह के रूप में उनके लेखों को पेश किया गया कि किस तरह उसने लोगों को भड़काने का काम किया। देश के इतिहास में यह पहला मौका था, जब किसी अखबार में छपे लेख पर किसी को कैद की सजा सुनाई गई। 18 महीने तक जेल में रहने के बाद तिलक जब बाहर निकले, तो वह मराठा समाज के ही नहीं, पूरे देश के बडे़ नेता बन चुके थे। जेल से निकलते ही उनका पहला वाक्य था- स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा। जिस स्वतंत्रता आंदोलन ने 1947 में भारत को आजादी दिलाई, उसका इतिहास दरअसल यहीं से शुरू होता है।
उन्नीसवीं सदी के उन जुल्मों की कल्पना 21वीं सदी की इस दुनिया में नहीं की जा सकती। यहां तक कि बची-खुची तानाशाहियां भी इस हद तक नहीं जातीं। तब और अब का फर्क इसी से समझा जा सकता है कि तब फैसले या तो वायसराय और उनके प्रतिनिधियों के स्तर पर लिए जाते थे या फिर देश भर के प्लेग कमिश्नरों की बैठक में, और अब कोई भी कदम उठाने से पहले प्रधानमंत्री देश से संवाद बनाने की कोशिश करते हैं, और बहुत सारे फैसले देश भर के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक में होते हैं। यानी फैसलों का अंतिम सिरा नौकरशाहों के नहीं, जन-प्रतिनिधियों और चुनी हुई सरकार के हवाले है। फिर भी ऐसा बहुत कुछ है, जिसे सरकारें बूबोनिक प्लेग की महामारी से सीख सकती हैं।
ये सबक इसलिए भी जरूरी हैं, क्योंकि इन दिनों यह सोच भी जोर पकड़ रही है कि सरकार को हर मोर्चे पर सख्ती से पेश आना चाहिए। सख्ती किस हद तक और कहां पर जरूरी है, यह एक अलग मामला है, लेकिन प्लेग की पूरी कहानी बताती है कि फैसले लेने और उन्हें लागू करने की पूरी प्रक्रिया में उन गरीबों के साथ हमदर्दी सबसे पहली जरूरत है, जो पहले ही बुरी स्थिति में होते हैं और महामारी उन्हें कहीं ज्यादा बदहाल बना देती है। यह ध्यान रखा जाना इसलिए भी जरूरी है कि हमारी नौकरशाही और फैसलों को लागू करने वाली एजेंसियों में इस तरह की हमदर्दी अक्सर नहीं दिखाई देती। इस समय हमारी केंद्रीय चिंता यही होनी चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)