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अपने दौर से मुठभेड़ की गाथाएं

उन्नीसवीं सदी में इटालियन लेखक इमिलियो सलगारी ने एक बार कहा था कि ‘पढ़ना सामान की चिंता बिना सफर करना है’। यह एक महान सलाह है, खास तौर पर कोविड-19 के समय। आज जब हर कोई अपने घर से बंध गया...

अपने दौर से मुठभेड़ की गाथाएं
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारFri, 27 Mar 2020 11:23 PM
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उन्नीसवीं सदी में इटालियन लेखक इमिलियो सलगारी ने एक बार कहा था कि ‘पढ़ना सामान की चिंता बिना सफर करना है’। यह एक महान सलाह है, खास तौर पर कोविड-19 के समय। आज जब हर कोई अपने घर से बंध गया है, तब साहित्य और अन्य विद्वतापूर्ण रचनाएं उसे किसी दूसरे देश व दूसरे समय में ले जाने में मदद कर सकती हैं। ये रचनाएं दिमाग को बल और दिल को सुकून दे सकती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा नई महामारी की घोषणा से पहले मैंने अग्रणी नारीवादी और नागरिक अधिकारों की पैरोकार पॉली मरे की आत्मकथा को पढ़ना शुरू कर दिया था। अमेरिका के दक्षिण में 1910 में जन्मी पॉली ने दुनिया में आने के साथ ही तीन तरह के भेदभाव का सामना किया था; वर्ग भेद, नस्ल भेद और लिंग भेद। इन भेदभावों के साथ अनाथ होने का बोझ अलग से था। जब वह बहुत छोटी थीं, तभी मां छोड़ गईं और बीमार पिता एक मनोरोग संस्थान में भर्ती कर दिए गए। पॉली को उनकी मौसी पॉलीन ने पाला-पोसा। मौसी पॉलीन एक बेहतरीन महिला थीं, उन्होंने शादी नहीं की, क्योंकि उन्हें भाइयों-बहनों और भतीजे-भतीजियों का ख्याल रखना था। पॉली ने अपने संस्मरण में मौसी पॉलीन का बहुत प्यारा चरित्र उकेरा है, उनके साहस, बलिदान, समर्पण की खूब तारीफ की है।

पॉलीन एक स्कूल शिक्षिका थीं, उन्हीं की प्रेरणा से पॉली ने तय किया था कि वह विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली परिवार की पहली सदस्य बनेंगी। अथक संघर्ष के बाद उन्हें न्यूयॉर्क के बर्नार्ड कॉलेज में दाखिला मिला। इस शहर में रहते हुए ही उन्हें रचनात्मक लेखन, कविता और कहानी से लगाव पैदा हुआ। यहीं पर रहते उन्होंने खुद को संघर्ष और नागरिक अधिकार आंदोलन से जोड़ा। 1930 के दशक में अमेरिका के उत्तरी हिस्से में भी नस्लवाद था, लेकिन दक्षिणी हिस्से की तुलना में कम क्रूर था। अपने संस्मरण में पॉली ने विस्तार से जिक्र किया है कि बसों, ट्रेनों और होटलों में किस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता था। पॉली ने अपने राज्य उत्तरी कैरोलिना की मुख्य यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए आवेदन किया था, पर चूंकि वह अश्वेत थीं, उन्हें प्रवेश नहीं मिला, भले ही उनके पास दाखिले के लिए सारी जरूरी योग्यताएं थीं।

नस्लीय भेदभाव का इस तरह का पहला बड़ा अनुभव होने के बाद पॉली ने सोचा कि उन्हें वकील बनना चाहिए, लड़ने के लिए सबसे बेहतर यही होगा। उन्हें वाशिंगटन डीसी स्थित अश्वेतों की ऑल-ब्लैक होवार्र्ड यूनिवर्सिटी के लॉ स्कूल में प्रवेश मिला। यहां पर उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया और आगे की पढ़ाई के लिए हार्वर्ड लॉ स्कूल में अर्जी लगाई। शानदार रिकॉर्ड के बावजूद उनके आवेदन को खारिज कर दिया गया। इसके बाद पॉली ने नस्ल, वर्ग और लिंग के अवरोधों के खिलाफ कामयाब वकालत की शुरुआत की। वह महात्मा गांधी की बहुत बड़ी प्रशंसक थीं। कुछ समय तक नए आजाद हुए घाना में पढ़ाने के बाद अमेरिका लौटीं। येल लॉ स्कूल से डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। वह एपिस्कोपल चर्च में विशेष सम्मान हासिल करने वाली पहली महिला बनीं। उनकी जीवन-कथा दिलचस्प है। मैंने बहुत सारे संस्मरण और आत्मकथाएं पढ़ी हैं और मैं उनकी इस रचना को तीन या चार सर्वश्रेष्ठ आत्मकथाओं में रखूंगा। पॉली ने बहुत प्यार, सीख और करुणा से लिखा है। पॉली मरे की आत्मकथा के बाद मैंने अग्रणी महिला वैज्ञानिक ई के जानकी अम्मल की जीवनी की पांडुलिपि को पढ़ना शुरू किया। इसकी लेखिका विज्ञान इतिहासकार सावित्री प्रीथा नायर हैं। जानकी अम्मल, पॉली से थोड़ी भाग्यशाली थीं। उनका परिवार मध्यवर्गीय था। पर औपनिवेशिक व पितृ-सत्तात्मक भारत में जन्मी इस महिला को बड़े पैमाने पर बाधाओं का सामना करना पड़ा। उन्होंने साहस और संकल्प के साथ बाधाओं को पार किया।

सन 1897 में मालाबार में जन्मी जानकी अम्मल की शिक्षा मद्रास में हुई, जहां उन्होंने असामान्य रूप से विज्ञान जैसे विषय को चुना। स्नातक होने के बाद और मिशिगन यूनिवर्सिटी की छात्रवृत्ति पाने से पहले उन्होंने एक स्थानीय कॉलेज में वनस्पति विज्ञान पढ़ाया। साड़ी पहने एक पतली-सी मलयाली महिला 1924 में समुद्र पार एक अनदेखी जमीन पर जा पहुंची। उन्हें ऐन आर्बर में एमएससी और पीएचडी, दोनों करना था। वह विज्ञान में डॉक्टरेट करने वाली पहली भारतीय महिला के साथ ही अमेरिकी यूनिवर्सिटी से वनस्पति विज्ञान में पहली महिला डॉक्टरेट बनीं। जानकी अम्मल के कई शुरुआती शोध घास पर थे। पीएचडी के बाद वह ब्रिटेन चली गईं, जहां वह सरे में जॉन इन्स हॉर्टिकल्चरल इंस्टीट्यूट में शामिल हो गईं। वहां उन्होंने महान जीव-विज्ञानी सिरिल डार्लिंगटन के साथ काम किया। एक ऐतिहासिक कृति ‘अ क्रोमोजोम एटलस ऑफ कल्टिवेटेड प्लांट्स’ के लेखन में उन्होंने सहयोग दिया।

भारत के आजाद होने के बाद जानकी अपने देश की सेवा करने लौट आईं। लंदन में पंडित नेहरू से हुई मुलाकात से उन्हें देश लौटने की प्रेरणा मिली थी। उन्होंने भारतीय विज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारत के वानस्पतिक सर्वेक्षण को पुनर्गठित किया। युवा महिलाओं को शोध के लिए प्रेरित किया। उनका ज्ञान निर्विवाद है। उन्होंने अपने सहयोगियों, नौकरशाही और राजनीतिक वर्ग के पूर्वाग्रहों का भी खूब सामना किया। उन्हें नजरंदाज कर कनिष्ठ पुरुष वैज्ञानिकों को पुरस्कार और पदोन्नतियां दे दी जाती थीं। बेशक, जानकी अम्मल का जीवन अनुकरणीय है। जब उनकी जीवनी प्रकाशित होगी, तो यह एक भारतीय वैज्ञानिक की सर्वश्रेष्ठ जीवनी होगी। जो संवेदना इसमें बरती गई है, उसके बल पर यह जीवनी सी वी रमन, होमी जहांगीर भाभा और मेघनाद साहा जैसे आदर्श पुरुष वैज्ञानिकों की मौजूदा जीवनियों से आगे निकल जाएगी।

एक विशेषाधिकार प्राप्त उच्च जाति के पुरुष के रूप में मैंने विस्मय के साथ इन दो पुस्तकों को पढ़ा है और अपनी खुद की कमजोरियों के प्रति मेरी जागरूकता बढ़ी है। मुझे कभी उन भेदभावों का सामना नहीं करना पड़ा, जिन्हें पॉली और जानकी ने एक या दो बार नहीं, बल्कि ताउम्र झेला था। दोनों ने संकल्प व गरिमा के साथ दुर्गम बाधाओं को पार किया था। दोनों ज्ञान के क्षेत्र व समाज में बड़े योगदान के लिए आगे बढ़ी थीं। कोविड-19 के समय में उनकी गाथाएं पढ़ना समृद्ध कर गया। पॉली और जानकी ने समग्रता में जिस साहस और सुघड़ता का परिचय दिया था, उसका एक हिस्सा भी अगर मानवता आज दिखा सके, तो कमाल हो जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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