लोकतंत्र के खिलाफ है चुनावी बॉन्ड
इस महीने की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने यह संकेत दिया कि वह चुनावी बॉन्ड योजना को चुनौती देने वाली उन याचिकाओं की जल्द सुनवाई करेगा, जो काफी समय से लंबित हैं। चुनावी बॉन्ड योजना की शुरुआत साल 2018 की...
इस महीने की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने यह संकेत दिया कि वह चुनावी बॉन्ड योजना को चुनौती देने वाली उन याचिकाओं की जल्द सुनवाई करेगा, जो काफी समय से लंबित हैं। चुनावी बॉन्ड योजना की शुरुआत साल 2018 की जनवरी में की गई थी, और यह सियासी दलों की निजी फंडिंग के नए रास्ते खोलती है। इस योजना की आलोचना पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त सहित कई लोग कर चुके हैं। बेशक सर्वोच्च अदालत की जल्द सुनवाई की यह घोषणा देर से आई है और यह आगामी आम चुनावों पर शायद ही कोई असर डाले। फिर भी, इस मामले का जो भी फैसला होगा, वह हमारे लोकतंत्र के भविष्य को खासा प्रभावित करेगा।
चुनावी बॉन्ड आखिर काम कैसे करते हैं? बहुत विस्तार में न जाएं, तो यह कहा जा सकता है कि ये बॉन्ड स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) द्वारा साल में एक बार खास दिनों के लिए जारी किए जाते हैं, जो 1,000 रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक के होते हैं। दानकर्ता इन बॉन्ड को खरीदता है और उसे राजनीतिक पार्टी के बैंक खाते में ट्रांसफर कर देता है। पार्टी के खाते में यह रकम उसे मिली दानराशि के रूप में जमा हो जाती है।
चुनावी बॉन्ड योजना की कई ऐसी चीजें हैं, जो गहन सांविधानिक पड़ताल की मांग करती हैं। इसका पहला और सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसमें छिपी गोपनीयता है। इसमें दरअसल, न तो दानकर्ता (यह कोई एक व्यक्ति भी हो सकता है और कोई कॉरपोरेट यानी कंपनी भी हो सकती है) और न ही राजनीतिक दल को यह बताने के लिए बाध्य किया जा सकता है कि उसे दान आखिर किससे मिला?
जाहिर तौर पर यह राजनीतिक सूचनाओं को हासिल करने की स्वतंत्रता जैसे हमारे मौलिक सांविधानिक उसूल को कमजोर करता है, जो अभिव्यक्ति की आजादी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (अ) का एक अभिन्न तत्व है। जबकि सभी प्रासंगिक जानकारियों तक पहुंच के साथ-साथ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में मतदान करने की स्वतंत्रता हर भारतीय का मौलिक अधिकार है, और इसी अधिकार के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीदवारों के पिछले आपराधिक रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने का आदेश सुनाया था। वोट डालते समय ‘इनमें से कोई नहीं’ यानी नोटा बटन दबाने का विकल्प भी मतदाताओं को इसी अधिकार के तहत मिला है।
यदि कोई मतदाता यह नहीं जान सकता कि राजनीतिक दल को पैसे कहां से आए, तो मतदान की पूरी प्रक्रिया एक प्रहसन में बदल जाएगी। यहां यह भीगौर करना जरूरी है कि चुनावी बॉन्ड योजना अपारदर्शी तो है ही, यह अपारदर्शिता भी बेमेल है। मसलन, ये बॉन्ड चूंकि बैंक के माध्यम से खरीदे जाएंगे, इसलिए सरकार को निश्चय ही पता चल जाएगा कि दानदाता कौन है? ऐसे में, सत्तासीन दल इन सूचनाओं का फायदा अपने हित में उठा सकता है। इस बीच कुछ ऐसी खबरें भी आई हैं कि भारतीय जनता पार्टी को चुनावी बॉन्ड द्वारा सबसे अधिक फंडिंग हासिल हुई है।
मेरा मानना है कि चुनाव कानूनों में हाल में हुए बदलावों के साथ ही चुनावी बॉन्ड योजना को भी देखा जाना चाहिए। इन बदलावों में कॉरपोरेट फंडिंग यानी किसी कंपनी द्वारा राजनीतिक दलों को दी जाने वाली दानराशि को सीमित करने की बाध्यता को हटाना भी शामिल है। पहले दानराशि की यह सीमा उस कंपनी के पिछले तीन साल के औसत लाभ की 7.5 फीसदी थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इतना ही नहीं, अब किसी कंपनी के लिए उस बाध्यता को भी हटा दिया गया है कि वह अपने नफे-नुकसान के खाते में राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे का जिक्र करे। फिर, अब इस बात की भी कोई बाध्यता नहीं रही कि सिर्फ वही कंपनी सियासी पार्टियों को चंदा दे सकेगी, जो पिछले तीन वर्षों से अस्तित्व में है। इन सबका नतीजा है कि अब वे तमाम कंपनियां असीमित राशि दान दे सकती हैं, जो मुश्किलों में हैं, मृतप्राय हैं या फिर छद्म नाम से काम कर रही हैं। यह सब कुछ जाहिर तौर पर गुमनाम रहकर भी किया जा सकता है। इससे अधिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को विकृत करने की कल्पना क्या कोई कर सकता है?
कहा गया है कि चुनावी बॉन्ड योजना के लागू होने से चुनावों से काला धन खत्म हो जाएगा, खासतौर से परदे के पीछे होने वाले नकदी का लेन-देन अब बीते दिनों की बात हो जाएगी। मगर इस योजना में दानकर्ता का नाम गुमनाम रखने का प्रावधान और अपर्याप्त ही सही, पर कुछ हद तक सभी को समान अवसर मुहैया कराने वाले नियम-कानूनों को हटाने से चुनावी फंडिंग में सुधार की प्रक्रिया से हम कई कदम दूर जाते दिख रहे हैं। सांविधानिक नजरिये से देखें, तो यह न केवल स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में मत डालने की मतदाता की स्वतंत्रता को प्रभावित करता है, बल्कि वोट देने के सांविधानिक अधिकार पर भी नकारात्मक रूप से असर डालता है। फिर, यह उस दावे के भी विपरीत है, जिसे हासिल करने की बात सरकार ने कही है। तार्किकता और गैर-निरंकुशता की कसौटी पर तो खैर यह योजना खरी उतरती ही नहीं। इन्हीं तमाम वजहों से जरूरी है कि इन याचिकाओं की शीर्ष अदालत में तुरंत सुनवाई हो और वह इस योजना को असांविधानिक बताकर खारिज कर दे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)