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शक का दायरा और पुलिस की सोच

ढाई-तीन दशक पहले की एक शाम आईबी के एक वरिष्ठ अधिकारी से गपियाते हुए मुझे दो दिलचस्प तथ्य पता चले। पहला तो यह कि अलिखित नियमों के तहत आईबी यानी भारत की सबसे महत्वपूर्ण खुफिया संस्था इंटेलिजेंस ब्यूरो...

शक का दायरा और पुलिस की सोच
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी Mon, 10 Sep 2018 08:11 PM
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ढाई-तीन दशक पहले की एक शाम आईबी के एक वरिष्ठ अधिकारी से गपियाते हुए मुझे दो दिलचस्प तथ्य पता चले। पहला तो यह कि अलिखित नियमों के तहत आईबी यानी भारत की सबसे महत्वपूर्ण खुफिया संस्था इंटेलिजेंस ब्यूरो में किसी मुस्लिम आईपीएस अफसर को नहीं लिया जाता। यह कोई ढका-छिपा सच नहीं था। मुझे भी पता था, पर दिलचस्प इसलिए कह रहा हूं कि उन दिनों नौकरशाही के सबसे बड़े ओहदे कैबिनेट सेक्रेटरी के पद पर एक मुसलमान अधिकारी तैनात थे और आईबी की तमाम सूचनाओं तक उनकी रसाई थी। इस पाबंदी के पीछे एक खास तरह की मानसिकता थी, जो दशकों से मानती थी कि देश की सुरक्षा की खुदाई फौजदार वही है और जिन सूचनाओं को वह अपने सीने से चिपकाए हुए है, वे अगर ‘अपात्रों’ तक पहुंच गईं, तो अनर्थ हो जाएगा। पिछले दो दशकों में जब आईबी के वरिष्ठ पदों पर मुसलमान नियुक्त होने लगे हैं और इस बीच एक तो डायरेक्टर के सवार्ेच्च पद तक पहुंच गया। मुझे नहीं पता कि राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने वाली कोई सूचना उन्होंने लीक की है या नहीं, क्योंकि जो जानकारी आम है, उसके अनुसार तो उच्च पदों पर बैठे तमाम लोग जो शक के घेरे में आए, सभी गैर-मुस्लिम थे। 

दूसरे अपात्र कम्युनिस्ट थे, जिनके बारे में उस शाम मुझे पता चला कि आईबी उन्हें भी अपनी कतारों में नहीं शरीक करती। मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ, क्योंकि मेरी जानकारी के मुताबिक तो भारत में सरकारी नौकरी के लिए किसी भी राजनीतिक दल की सदस्यता बाधक हो सकती है, फिर सिर्फ कम्युनिस्टों की बात क्यों हो रही थी? बातचीत से स्पष्ट हुआ कि उनका मतलब ऐसे छात्र संगठनों की सदस्यता से था, जो वामपंथी रुझानों वाले थे। अर्थात आईपीएस में चयन के पहले यदि किसी का संबंध एक वामपंथी संगठन से रहा हो, तो आईबी उसे अपनी कतारों में शरीक नहीं करती। मैंने मजाक भी किया कि आप आईबी के लिए चयन करते हैं या सीआईए के लिए, पर बात बड़ी स्पष्ट थी कि देश की सबसे महत्वपूर्ण खुफिया एजेंसी वामपंथियों को खतरा समझती है। वामपंथ एक अमूर्त सा शब्द है, जो दुनिया भर में ऐसी विचारधारा के लिए प्रयुक्त होता है, जिसमें तरजीह गरीबों, आदिवासियों या भारतीय संदर्भ में दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों समेत हाशिये के समाजों को दी जाती है और जो आस्था से बढ़कर विवेक की बात करता है। उस बातचीत के दौरान मुझे सैयद शहाबुद्दीन का मशहूर उदाहरण याद आया, जिसमें उनके आईएफएस में चुन लिए जाने के बाद आईबी ने रिपोर्ट लगा दी थी कि उनका संबंध स्टूडेंट फेडरेशन से है और प्रधानमंत्री  नेहरू के हस्तक्षेप से ही उन्हें नौकरी मिल सकी।

हाल में कुछ ‘शहरी माओवादियों’ की गिरफ्तारी इसी दिलचस्प समझ से निर्मित मानसिकता है। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जो भूमिगत हो या जिसके खिलाफ हथियार लेकर लड़ने के आरोप लगे हों। सभी महानगरों में उच्च मध्यवर्गीय इलाकों में रहते हैं और लेखन या भाषण ही उनके हथियार हैं। उनके लिए लोक बुद्धिजीवी या ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। जिन बयानों या दस्तावेजों का पुलिस ने मुकदमे में उल्लेख किया है, वे सभी सहज उपलब्ध हैं। कई उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय अपने फैसलों में कह चुके हैं कि किसी प्रतिबंधित संगठन का साहित्य बरामद होने से ही कोई उस संगठन का सदस्य नहीं हो जाता। कुछ मामलों में किसी गिरफ्तार व्यक्ति की रिहाई की मांग या किसी की शोक सभा में शामिल होने को भी अपराध मान लिया गया है। इस तरह तो देश के अधिकांश मानवाधिकार कार्यकर्ता जेल में होने चाहिए।

जिन दो ‘अपात्रों’ का ऊपर उल्लेख हुआ है, उनकी अपात्रता का निर्धारण दुर्भाग्य से वे लोग कर रहे हैं, जिनका बौद्धिक विकास एक उम्र के बाद रुक जाता है। देश की सबसे मुश्किल प्रतियोगिता परीक्षा पास कर लाखों उम्मीदवारों में से चुने गए और आईएएस, आईपीएस या आईएफएस जैसी नीति-निर्धारक सेवाओं में जाने वाले ये प्रतिभाशाली चंद वर्षों में ही किसी समाजशास्त्रीय परिघटना को समझ सकने वाले बौद्धिक विमर्श के सर्वथा अनुपयुक्त हो जाते हैं। गृह मंत्रालय की किसी गंभीर गोष्ठी में, जिसमें इस्लामी आतंकवाद या माओवादी खतरे जैसे विषय पर चर्चा हो रही हो, आप इस बात से निराश हो सकते हैं कि बड़े ओहदों पर बैठे और विशेषज्ञता का लबादा ओढे़ ज्यादातर वक्ता नहीं जानते कि अल-कायदा और दायश में कोई फर्क है या देश में सशस्त्र संघर्ष कर राज्यसत्ता पर कब्जा करने का सपना देखने वाले दर्जनों गुटों में बटे हैं और उनमें आपस में गहरे सैद्धांतिक मतभेद हैं। ये नौकरशाह इतने गंभीर विषयों पर भी किसी समाज वैज्ञानिक से संवाद करने में हिचकते हैं। सुरक्षा व गोपनीयता से ज्यादा अपनी बौद्धिक सीमाओं का एहसास उन्हें ऐसा करने से रोकता है, पर इससे जो नुकसान होता है, उसकी कल्पना की जा सकती है।

अपराध एक समय और मूल्य सापेक्ष शब्द है। हाल में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से निकालने का उच्चतम न्यायालय का फैसला इसका बड़ा उदाहरण है। इस नतीजे पर न्यायालय को पहुंचाने का श्रेय उन बहसों को मिलना चाहिए, जो पिछले कई दशकों से लिखे और छपे शब्दों की दुनिया में चल रही थीं। इनमें भाग लेने वाले वैसे ही पब्लिक इंटेलेक्चुअल थे, जिन्हें भीमा कोरेगांव से जुड़े प्रसंग में पुलिस ने गिरफ्तार किया था, बल्कि इनमें से कई तो समलैंगिकता के पक्ष में भी सक्रिय थे। न्यायालय के फैसले के पहले पुलिस समलैंगिकों को गिरफ्तार करती ही रही है। ये उस मामले में भी गिरफ्तार हो सकते थे। 

पुरानी कहावत है कि युद्ध इतना महत्वपूर्ण मसला है कि उसे जनरलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इसी तरह, किसी गतिविधि की सामाजिक प्रासंगिकता का फैसला सिर्फ पुलिस नहीं कर सकती। जिन्हें साक्ष्य मानकर पुलिस ने गौतम नवलखा, वरवर राव, सुधा भारद्वाज या दूसरों को गिरफ्तार किया है, वे कोई गोपनीय दस्तावेज नहीं हैं और उस तरह के दस्तावेज तो देश के किसी भी मानवाधिकार कार्यकर्ता के कंप्यूटर से निकाले जा सकते हैं। दरअसल, इस मुकदमे के फैसले से ही स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई अर्थ है भी या नहीं? साथ ही यह भी कि भारतीय समाज में अपराध को परिभाषित व निर्धारित करने का काम पुलिस करेगी या समाजशास्त्री, कानूनविद् और अदालतें गंभीर विमर्शों के बाद नतीजों पर पहुंचेंगी?
    (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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