अभी तक तो सफल हैं हम
कोरोना ने देश को कई खट्टे-मीठे अनुभव दिए। सबसे महत्वपूर्ण तो ‘जनता कर्फ्यू’ का है। यह आम समझ है कि कफ्र्यू राज्य का विशेषाधिकार है और वही इसे बलपूर्वक लगाता है। हमारे पास कई अनुभव हैं,...
कोरोना ने देश को कई खट्टे-मीठे अनुभव दिए। सबसे महत्वपूर्ण तो ‘जनता कर्फ्यू’ का है। यह आम समझ है कि कफ्र्यू राज्य का विशेषाधिकार है और वही इसे बलपूर्वक लगाता है। हमारे पास कई अनुभव हैं, जिनमें जनता कफ्र्यू किसी एक आंदोलनकारी समूह ने लगाया और फिर बलपूर्वक उसे लागू किया गया, खुली दुकानें लूटी गईं या सड़कों पर चल रहे वाहन तोड़े-फोड़े गए या उनके साथ आगजनी की गई। जब राज्य कफ्र्यू लगाता है, तो उसकी पुलिस और फौज सख्ती से सड़कों को खाली कराती है। इसलिए जब प्रधानमंत्री ने ‘जनता कर्फ्यू’ की बात की, तो लोगों के मन मे संशय था। जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, संशय आत्मविश्वास में बदलता गया कि हम कर सकते हैं और हमने कर भी लिया। यह भी हुआ कि जवानों या किसानों की तरह स्वास्थ्यकर्मियों की भी जय-जय की गई।
दुनिया भर में कोरोना की लड़ाई राष्ट्रीय स्मृतियों और संस्थाओं से जुड़ी हुई है। हर देश अपनी तरह से इसका मुकाबला कर रहा है। शुरुआत दिसंबर के आसपास चीन से हुई। अधिनायकवादी तंत्र में जनता से सूचनाएं छिपाना आसान था, सो काफी दिनों तक वुहान में लोगों को पता ही नहीं चला कि हो क्या रहा है? जब तंत्र के लिए स्वीकार करना मजबूरी बन गया, तब तक शहर में हजारों लोग संक्रमित हो चुके थे। इससे भी खतरनाक यह हुआ कि अफवाहों और अपुष्ट सूचनाओं के चलते हजारों लोग वुहान से भाग निकले और उन्होंने अंतरराष्ट्रीय संक्रमण की शुरुआत कर दी। बहरहाल, जब वहां स्वीकार किया गया कि वे एक अनजान महामारी से निपट रहे हैं, तब हमें भी उनकी लड़ने की क्षमता का एहसास हुआ। एक हफ्ते में हजार बिस्तरों वाले अस्पताल का निर्माण किसी जिन्न ने नहीं, बल्कि महामारी के बीच इंसानों ने ही किया था। लाखों की आबादी वाले पूरे शहर को देश-दुनिया से अलग-थलग कर देना और उसके घरों में बंद लोगों को खाने पीने से लेकर दवा तक सभी जरूरी सामान पहुंचाना, सब कुछ किसी कथा सा लगता है। इस पर बाद में बहस होती रहेगी कि अगर आम जन तक सूचनाएं पहले ही पहुंच गई होतीं, तो क्या नुकसान कम होता? या डॉक्टर ली वेनलियांग को पहली बार कोरोना विषाणु की उपस्थिति पर शंका व्यक्त करने के लिए अफवाह फैलाने के जुर्म में जेल न भेजा गया होता, तो क्या संक्रमण विश्व-व्यापी बनने से रोका जा सकता था? ये सब अकादमिक प्रश्न एक तरफ और दूसरी तरफ यह सच्चाई कि अधिनायकवादी तंत्र ने चार महीने के अंदर एक हजार बेड वाले अस्पताल के पूरी तरह खाली होने की तस्वीरें प्रसारित करनी शुरू कर दी हैं।
जातीय व्यवहारों में विशिष्टता की दूसरी झलक इटली या स्पेन समेत दूसरे पश्चिमी समाजों में देखने को मिली। उत्सवधर्मी और खिलंदडे़ इतालवी समाज ने दफ्तरी या व्यापारिक गतिविधियों पर रोक को मौज-मस्ती का उपयुक्त अवसर समझा और निकल पड़ा समुद्र तटों या नाइट क्लबों की ओर। जल्द ही लाखों इटली वासी वायरस संक्रमित होकर अस्पतालों की शरण में पहुंच गए और विश्व मानकों में ऊंचे पायदान पर स्थित इटली की स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह से ध्वस्त हो गईं। जैसे-जैसे चीन में संक्रमण का चार्ट गिरा, इटली का ऊपर उठता गया। पिछले दिनों मृत्यु के मामलों में इटली ने चीन को पछाड़ दिया है। हालात ये हैं कि वहां मृतकों को दफनाने वाले नहीं मिल रहे हैं। परिवारीजन मृतक को कंबल में लपेटकर घर से बाहर रख दे रहे हैं और सेना अंत्येष्टि कर रही है। सैर-सपाटे के शौकीन इतालवी दुनिया के कई हिस्सों में इस खतरनाक वायरस के संवाहक बने। भारत में शुरुआती मामलों में कई ऐसे थे, जिनका रिश्ता इटली से भारत भ्रमण पर आए पर्यटकों या इटली घूमने गए भारतीय नागरिकों से था।
इटली की ही तरह एक अन्य मस्तमौला समाज स्पेन ने भी अपनी आदतों की कीमत चुकाई है। वे नुकसान के तीसरे पायदान पर खड़े हैं। यूरोप के कई अन्य मुल्क भी बुरी तरह हिले हुए हैं। अमेरिका भी इसी श्रेणी में आ गया है। ये सभी देश अपनी अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जाने जाते हैं। ये सभी देश महंगी होने के बावजूद राज्य बीमा या दूसरे हस्तक्षेपों के जरिए अपने नागरिकों को जीवन-रक्षक चिकित्सा उपलब्ध कराते रहते हैं। वे लड़खड़ाए तो महज इसलिए कि उन्होंने अपनी मस्तमौला दिनचर्या बदलने में काफी देर कर दी।
हमारे लिए विचारणीय होना चाहिए कि इतनी सुविधाओं के बावजूद अगर इन समाजों में स्वास्थ्य सेवाएं लड़खड़ा गई हैं, तो हमारा क्या हाल होता, यदि वुहान की जगह कोरोना का शुरुआती हमला दिल्ली, कोलकाता या हैदराबाद में हुआ होता? यह जरूर मानना होगा कि हमारी सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियों ने जब मौका आया, तो उसका मुकाबला खूब डटकर किया और अभी तक तो सफल ही कहे जाएंगे।
कोरोना के पांच चरण होते हैं और अभी हम दूसरे या तीसरे चरण में हैं। अंतिम विजय के लिए जरूरी है कि संक्रमण की शृंखला टूटे और इसके लिए सामाजिकता में कमी लानी होगी। एक लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती है कि क्या वह चीन की तरह अपने नागरिकों को घरों में बंद कर सकता है और जिसमें यह सुनिश्चित भी हो कि उन्हें घरों में खाने-पीने की चीजें मिलती रहें। किसी तरह के अभावों से घबराकर उनका धैर्य न टूटे और वे बाहर सड़कों पर न आ जाएं। खतरा बहुत बड़ा है, कोरोना अगर सामाजिक संक्रमण के दौर में प्रवेश कर गया, तो हमारी स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा जाएंगी और शुरुआती सफलता किसी काम न आएगी। जनता कफ्र्यू की सफलता से कुछ उम्मीद बंधती है कि अधिनायकवादी न होने पर भी राज्य नागरिकों को अपने आप को घरों में बंद रहने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।
लोक-कल्याण की यह भावना भी इस बार दिखी कि कुछ राज्य सरकारों ने लॉकडाउन के दौरान रोज कमाने और खाने वालों के खातों में कुछ रकम भेजने की घोषणा की है। यह अलग बात है कि यह राशि बहुत कम है और सरकारों को चीन से सबक लेकर इस बात की व्यवस्था करनी चाहिए कि घरों में बंद लोग भूखे न मरें। यह एक अच्छा मौका भी है, जब हम अपनी स्वास्थ्य सेवाओं का पुनर्मूल्यांकन करें और कोरोना जैसे खतरों से निपटने के लिए खुद को तैयार करें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)