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चेतावनियां, जो आज भी गूंज रही हैं

वार्षिक भारतीय इतिहास कांग्रेस का आयोजन बंबई में दिसंबर 1947 में हुआ था। उस साल अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मोहम्मद हबीब इतिहास कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। वह प्रारंभिक मध्यकालीन भारत...

चेतावनियां, जो आज भी गूंज रही हैं
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारSun, 08 Dec 2019 11:35 PM
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वार्षिक भारतीय इतिहास कांग्रेस का आयोजन बंबई में दिसंबर 1947 में हुआ था। उस साल अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मोहम्मद हबीब इतिहास कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। वह प्रारंभिक मध्यकालीन भारत के विशेषज्ञ इतिहासकार थे, उन्हें खासतौर से दिल्ली सल्तनत पर अध्ययन के लिए जाना जाता था। 1930 के दशक के आखिरी वर्षों में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अनेक छात्र व शिक्षक मोहम्मद अली जिन्ना और उनके पाकिस्तान आंदोलन के सक्रिय समर्थक थे, पर मोहम्मद हबीब उनमें शामिल नहीं थे। वह ऐसे समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति पूर्ण प्रतिबद्ध थे, जहां नागरिकता आम धार्मिक आस्था के आधार पर नहीं, बल्कि साझा मूल्यों से परिभाषित होनी थी। वह गांधी को जीते थे और उनकी पत्नी सोहैला भी, जिनके पिता अब्बास तैयबजी ने महात्मा गांधी के साथ काम किया था।

दिसंबर 1947 में भारत ने खुद से लड़ाई ठान रखी थी। आजादी और बंटवारे के पहले व बाद में सांप्रदायिक दंगे छिड़े हुए थे। प्रोफेसर हबीब को उनके परिजनों और दोस्तों ने कहा कि वह अलीगढ़ से बंबई की लंबी रेल यात्रा पर न जाएं। उन्हें चिंता थी कि वह कहीं धर्म के आधार पर निशाना न बन जाएं, लेकिन उस देशभक्त विद्वान ने इन सलाहों पर कान नहीं दिया। वह बंबई गए और अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने जो शब्द कहे, जो चेतावनियां दीं, वे 72 साल बाद भी गूंज रही हैं। 
मोहम्मद हबीब ने गांधी की प्रशंसा के साथ इतिहास कांगे्रस में उद्बोधन शुरू किया। वह गांधी को सर्वकालीन महानतम भारतीय शिक्षक मानते थे। फिर उन्होंने बंटवारे के सच और वहां तक हम कैसे पहुंचे, यह बताना शुरू किया। वह स्वयं यह सोचते थे कि इसका मुख्य कारण ब्रिटिश शासन द्वारा बनाए गए सांप्रदायिक निर्वाचन क्षेत्र थे।

यह एक ऐसी घृणित व्यवस्था थी, जिसे कोई पश्चिमी लोकतंत्र एक पल के लिए भी बर्दाश्त नहीं करता। उन्होंने तर्क दिया कि जब एक बार मुस्लिमों को अलग मतदान के लिए कह दिया गया, तो हमारे जैसे एक देश में धार्मिक मतभेद अपरिहार्य हो गए। दो विपरीत राजनीतिक समूह बन गए और उनके बीच वैमनस्य भी अपरिहार्य हो गया। चुनाव-दर-चुनाव वैमनस्य बढ़ता गया। सांप्रदायिक निर्वाचन क्षेत्र का एक अपरिहार्य (और हानिकर) परिणाम हुआ कि अल्पसंख्यक विदेशी शक्ति की ओर ज्यादा झुकने लगे और विदेशी शक्ति का समर्थन पाने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन से दगा कर अपनी अहमियत साबित करने लगे।

मुस्लिमों की भूमि के रूप में पाकिस्तान बना। हालांकि बहुत सारे मुस्लिमों ने भारत में रहने के पक्ष में मतदान किया। इनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने वालों को मोहम्मद हबीब ने जवाब दिया था, इस भूमि के मुस्लिमों का बड़ा हिस्सा भारतीय राज्यसत्ता के साथ है। यह सच है कि भारत में ऐसे असंख्य मुस्लिम परिवार हैं, जो विदेशी मूल का दावा करते हैं, लेकिन यह जुड़ाव पूरी तरह से ख्याली है। हबीब ने मध्यकालीन इतिहास के प्रति ‘नॉस्टेल्जिया’ के खिलाफ भारतीय मुस्लिमों को चेताया था। यह इतिहास का वह दौर था, जब देश के शासक मुस्लिम थे।

जब अंग्रेजों का शासन आया, तब हम विदेशी शासक होने के निर्मम सच के आगे हीनता बोध के शिकार थे, तब हमने मध्यकालीन राजपूत राजाओं और तुर्क सुल्तानों को याद किया। अब यह ढर्रा जरूरी नहीं है। यह सच साफ-साफ कहना चाहिए कि हमारी सभी मध्यकालीन सरकारें राजतंत्रिक संस्थाएं थीं। जंग और सियासत खेल थे, जिसे खेलने की मंजूरी सिर्फ खानदानी लोगों को मिली थी। तब सरकारें किसी मायने में जनता की सरकारें न थीं।

मुगल और मुगल-पूर्व दिल्ली की सरकारों के अधिकारियों की विवेचना से एक साफ और दुखद सच पता चलता है कि भारत में जन्मे मुस्लिमों को जान-बूझकर उच्च सामरिक और प्रशासनिक पदों पर नहीं रखा जाता था। दिल्ली के साम्राज्य में किसी भारतीय मुस्लिम के महायोद्धा बनने की गुंजाइश बहुत कम थी। 
हबीब की चेतावनियां आज भी प्रासंगिक हैं। अंतर यही है कि ये मुस्लिमों की बजाय हिंदुओं पर लागू होती हैं। आजकल चंद्रगुप्त और शिवाजी जैसे हिंदू शासकों का महिमामंडन करते हुए हम इस सच को झुठला देते हैं कि उस दौर में लिंगभेद और जातिगत भेदभाव का पालन होता था। यह आधुनिक, लोकतांत्रिक गणराज्य के बिल्कुल खिलाफ था।

पूरी तरह से लोकतांत्रिक हबीब ने दिसंबर 1947 में इस सच का खुलासा किया था कि ‘व्यक्ति’ पर ‘समाज’ की पकड़ आज भी उतनी ही है, जितनी मध्यकाल में हुआ करती थी। सामाजिक आग्रह, पूर्वाग्रह पहले की तुलना में कहीं ज्यादा हैं, जो ‘व्यक्ति’ की गुलामी को मजबूत करते हैं। वह हर मामले में, यहां तक कि व्यक्तिगत और घरेलू मामलों में भी पूरी तरह से समाज और उसके नेताओं की दया पर आश्रित है। भारत में धार्मिक समुदाय ही व्यक्ति को परिभाषित और नियंत्रित करते हैं। जब वह जिंदा है, तब भी और जब वह दुनिया से चला जाए, तब भी। हबीब ने कहा था, किसी भारतीय समुदाय का सदस्य हुए बिना एक भारतीय होना आज भी असंभव है।

आज इस जमीन पर कोई कब्रिस्तान नहीं है, जहां कोई भारतीय सिर्फ भारतीय होने के नाते दावा पेश कर सके। कब्रिस्तान (या श्मशान) में भी किसी न किसी समुदाय के जरिए ही दाखिला मिलता है। उन्होंने कहा था, ‘व्यक्ति’ को ‘समाज’ के ऊपर लाना आज की असली चुनौती है। आज का ‘सांप्रदायिक’ परंपरा से उपजा जीव है। यह परंपरा इतनी विकृत है, मानो बर्बरता का पड़ोस हो। भविष्य का नागरिक सार्वजनिक हित के लिए सुसंयोजित संविधान का एक जीव होगा। उन्होंने स्वीकार किया था कि धर्म के विभेद हैं और रहेंगे, लेकिन इसमें कोई अहित नहीं है। वह मानते थे कि आकार ले रहे गणराज्य का केंद्रीय कार्य एक भूमि के लिए एक राज्य, एक कानून और एक राष्ट्रीय समुदाय हो। वह निश्चित रूप से सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता के पक्ष में होंगे, तभी उन्होंने एक अन्य जगह पर कहा था, ‘भारतीय नागरिक का न एक विवाह कानून है और न एक उत्तराधिकार कानून।’ 

इतिहास के बारे में प्रोफेसर हबीब ने कहा था, सरकार ऐतिहासिक शोध को वित्त पोषित तो करे, पर उसे इतिहास की व्याख्या के प्रश्न में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। एक आजाद भारत के इतिहास को भी इतना आजाद होना चाहिए कि जिसमें हर विचार को सुने जाने का हक हो। राजनेताओं को इस पर नियंत्रण या निगरानी से दूर ही रहना चाहिए कि इतिहास को कैसे पेश किया जा रहा है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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