लक्ष्य से भटकती एक मुहिम
अंतराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक बार फिर मैड्रिड में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन कॉप-25 की शुरुआत हो चुकी है। पहला कॉप सम्मेलन वर्ष 1955 में जर्मनी के बर्लिन शहर में आयेजित हुआ था...
अंतराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक बार फिर मैड्रिड में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन कॉप-25 की शुरुआत हो चुकी है। पहला कॉप सम्मेलन वर्ष 1955 में जर्मनी के बर्लिन शहर में आयेजित हुआ था और उसके बाद से ये सम्मेलन कॉन्फे्रंस ऑफ पार्टीज (कॉप) के अंतर्गत लगातार आयोजित होते रहे हैं। इस बार के सम्मेलन का मुख्य मकसद बढ़ते प्रदूषण के मुद्दों पर बातचीत करना और यह पड़ताल करनी है कि इससे पहले जो तमाम निर्णय लिए गए ,उन पर हम कितने खरे उतरे हैं। यह सम्मेलन पहले ब्राजील में होना था, लेकिन ब्राजील ने इससे अपने हाथ पीछे खींच लिए। फिर तय हुआ कि यह चिली में होगा, लेकिन वहां भी अशांति होने के कारण इसके आयोजन की जिम्मेदारी स्पेन ने ली। ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोलसोनारो हमेशा ही पर्यावरण -चर्चाओं से कतराते रहे हैं। वे मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन जैसा कोई मुद्दा नहीं है और यह सब कुछ उद्योगों के खिलाफ रचा गया अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र है। ऐसा सोचने वाले वह अकेले राष्ट्रपति नहीं हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो पहले ही इस तरह की गोष्ठियों से किनारा कर लिया है और साफ शब्दों में कह दिया है कि जलवायु परिवर्तन जैसा कोई मुद्दा ही नहीं है।
ऐसे लोगों की सोच के विपरीत अगर संयुक्त राष्ट्र की तीन रिपोर्टों को देखें, तो साफ है कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया का कोई भी ऐसा हिस्सा नहीं है कि जहां बाढ़ का असर न पड़ा हो या सूखा व चक्रवात जैसी बड़ी कुदरती आपदाएं न आई हों। आज दुनिया के करीब 17 करोड़ लोगों पर खाद्य सुरक्षा का संकट भी मंडराने लगा है। विश्व में चार देश कार्बन उत्सर्जन के मामले में पहली श्रेणी में आते हैं। इनमें चीन पहले, अमेरिका दूसरे, भारत तीसरे और रूस चौथे स्थान पर है। आज दुनिया में
आधे से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन इन चारों देशों द्वारा किया जा रहा है।
वर्ष 2015 में पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन समझौते के बाद यह तय हुआ था कि सभी मुख्य देश अपने कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाएंगे। इस दिशा में प्रगति दिखाई भी पड़ी है। खासतौर से चीन और भारत ने इस बाबत कई अहम कदम उठाए। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि इतने से कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि स्थितियां बहुत गंभीर हो चुकी हैं। दुनिया भर में, खासतौर से ऊष्णकटिबंधीय अफ्रीकी क्षेत्र व इंडोनेशिया जैसे इलाकों के बारे में यह बताया जा रहा है कि वर्ष 2100 के अंत तक उनके यहां बर्फ के द्रव्यमान में 80 फीसदी तक की कमी आने की आशंका है, अगर वर्ष 2100 के अंत तक कार्बन उत्सर्जन की यही रफ्तार रही। लगभग यही कहानी अन्य इलाकों की भी है। इसका जो सीधा बड़ा असर पड़ने वाला है, वह समुद्र के ऊपर होगा और अभी तक पिछले कुछ दशकों में समुद्री जलस्तर 15 सेंटीमीटर ऊपर उठ चुका है। अगर यही हाल रहा, तो प्रतिवर्ष 3़ 6 मिलीमीटर की दर से यह बढ़ता चला जाएगा। और 2100 में यह 30 से 60 सेंटीमीटर ऊपर पहुंच जाएगा। इस स्थिति में धरती का बहुत कुछ समुद्र में डूब जाएगा। इस बात का संकेत अंतरराष्ट्रीय स्तर की कई बड़ी रपटों ने दिया है। जब अत्यधिक गरमी होती है, तो उसका 90 फीसदी हिस्सा समुद्र ही सोखते हैं। इस तरह वर्ष 2100 तक समुद्र वर्ष 1970 और आज की तुलना में 2-4 गुना अधिक गरमी सोखेगा। समुद्र के तापक्रम के बढ़ने से उसकी जल क्षमताओं में ऑक्सीजन व पोषक तत्वों की कमी तो आती ही है, अम्लीय परिस्थितियां भी पैदा होती हैं, जिससे समुद्री जीवन पर सीधा बड़ा असर पड़ता है।
हालात जब इतने गंभीर हों, तब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो भी संजीदगी इन बैठकों में दिखाई दे रही है, उससे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं बांधी जा सकतीं। इस दिशा में अभी तक जितनी प्रगति हुई, उसमें कई बड़े देशों खासतौर से ब्राजील, अमेरिका और सऊदी अरब ने खुद को पीछे खींच लिया है। वे मानते हैं कि इसके लिए उन्हें अपने उद्योगों पर अंकुश लगाना पड़ेगा और वे ऐसा कतई नहीं करना चाहते। इस बार का सम्मेलन भी इन तमाम मुद्दों पर किया जा रहा है, ताकि किसी तरह से संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए फैसलों पर अमल हो और हर्जाने के रूप में कॉमन फंड तैयार हो।
सवाल 25 सम्मेलनों के कुलजमा हासिल पर भी उठ रहे हैं। कुछ देश अपनी तरफ से छिटपुट कदम उठाने के दावे जरूर कर सकते हैं, लेकिन इसे बड़ी कामयाबी नहीं माना जा सकता, क्योंकि इस दौरान स्थितियां लगातार बिगड़ी ही हैं। दो दशक में जलवायु में परिवर्तन हुआ है और प्रदूषण बढ़ा ही है, जिससे गरमी बढ़ी, नदियां सूखीं, समुद्र के तापक्रम बढ़े और ग्लेशियर भी पिघलने शुरू हुए। इसी के चलते कहा जाता है कि कॉप सम्मेलन दरअसल आपस में बैठकर चिंता जताने का मंच भर रह गया है, इसके आगे उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं बची।
इस बीच एक और दिलचस्प अध्ययन सामने आया है। एक अनुमान लगाने की कोशिश की गई है कि संयुक्त राष्ट्र के एक कॉप सम्मेलन से कितना कार्बन उत्सर्जन होता है? अध्ययन का आकलन है कि कॉप के एक सम्मेलन से 60,000 टन कार्बन उत्सर्जन होता है, यानी उतना, जितना 7,000 घर साल भर में उत्सर्जित करते हैं। यह आकलन किसी एनजीओ का नहीं है। यह आंकड़ा पिछले वर्ष पोलैंड में हुए कॉप सम्मेलन के बाद वहां के पर्यावरण मंत्रालय ने ही जारी किया था। सम्मेलन में भाग लेने के लिए आए मेहमानों के विमानों से जो उत्सर्जन हुआ, वहां के हवाई अड्डों की सामान्य स्थिति से 80 फीसदी अधिक था। इसके अलावा, 50,000 टन उत्सर्जन सम्मेलन स्थल के लिए आवासीय व बिजली के उपयोग के कारण था।
इससे एक बात और सामने आई कि एक ग्रह को बचाने के लिए 20,000 लोगों का एक साथ एकत्र होना भी उस ग्रह के लिए हानिकारक हो सकता है। हालांकि पोलैंड में सम्मेलन के बाद लगभग 700 हेक्टेयर जमीन पर पेड़ लगाकर उस नुकसान की भरपाई की कोशिश की गई, जिससे वे पेड़ 55,000 टन उत्सर्जित गैसों को सोख सकें। यहां मामला सिर्फ यह है कि इस तरह के सम्मेलनों को अगर प्रभावी नहीं बनाया गया, तो नुकसान बहुत ज्यादा हो सकता है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं)