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अफगानिस्तान की शांति और शंकाएं

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीते गुरुवार को दक्षिण एशिया के बारे में अपनी नीति की चर्चा करते हुए भारत से यह अपेक्षा जताई कि अफगानिस्तान में स्थिरता लाने के लिए नई दिल्ली अमेरिका की मदद करे।...

अफगानिस्तान की शांति और शंकाएं
शशांक, पूर्व विदेश सचिवMon, 26 Aug 2019 11:05 PM
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीते गुरुवार को दक्षिण एशिया के बारे में अपनी नीति की चर्चा करते हुए भारत से यह अपेक्षा जताई कि अफगानिस्तान में स्थिरता लाने के लिए नई दिल्ली अमेरिका की मदद करे। दरअसल, अमेरिका की इस समय दो प्राथमिकताएं हैं- एक, अफगानिस्तान में स्थिरता लाने की, यानी तालिबान व मौजूदा अशरफ गनी सरकार के साथ किसी तरह से कोई समझौता करके वहां एक शांतिपूर्ण गठबंधन खड़ा किया जाए और उसकी दूसरी प्राथमिकता है, अपने सैनिकों को वहां से सुरक्षित बाहर निकालने की।

इन दोनों प्राथमिकताओं के लिए अमेरिका को तालिबान और पीछे से उनका समर्थन करने वाले पाकिस्तान पर निर्भर होना पड़ रहा है। पाकिस्तान की हमेशा से यह सोच रही है कि अफगानिस्तान को लेकर अमेरिकी रुख में निरंतरता नहीं है, इसलिए कभी न कभी तो वह उसे छोड़कर जाएगा ही, उस समय तालिबान पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है, इसलिए इसे अपने यहां से हटाना नहीं चाहिए। हक्कानी नेटवर्क को लेकर अमेरिका ने पाकिस्तान पर काफी दबाव बनाया, मगर इस्लामाबाद ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की, यहां तक कि अमेरिका को सीधे हस्तक्षेप करके एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन के विरुद्ध ऑपरेशन करना पड़ा।

अमेरिका तालिबान और पाकिस्तान के साथ अपनी बातचीत की बिना पर भले दावा करे कि अफगानिस्तान में शांति आ जाएगी, मगर भारत के लिए इस पर विश्वास करना मुश्किल है। बल्कि गनी सरकार को ही इसका भरोसा नहीं है। जिस तरह से हाल ही में वहां एक शादी समारोह को आतंकियों ने निशाना बनाया, जिसमें 60 से ज्यादा लोग मारे गए और 100 से अधिक बुरी तरह जख्मी हुए, उससे साफ हो गया कि तालिबान ने अल-कायदा और आईएस से अपने रिश्ते नहीं तोडे़ हैं। ये आतंकी तंजीमें भी वहां हमले कर रही हैं।

ऐसे में, अमेरिका को इन संगठनों से भी बात करनी पड़ेगी, इनसे भी तालिबान की तरह समझौते करने पड़़ेंगे। अगर वाशिंगटन ऐसा करता है, तब तो कोई बात बनती है। वरना अमेरिका की जो पुरानी नीति है कि जो क्षेत्रीय देश हैं, जिनमें चीन, रूस, यूएई, सऊदी अरब और भारत भी शामिल हैं, इन सबको साथ लेकर पहल की जाए, उसमें कई पेच हैं। अव्वल तो अमेरिका अपनी इस नीति को कभी पूरी तरह से लागू नहीं कर पाता और न ही ये पड़ोसी देश तालिबान के साथ बातचीत की अमेरिकी कवायद पर भरोसा करके कोई जोखिम मोल लेने को तैयार हैं। इन देशों की यही कोशिश होगी और होनी चाहिए कि अफगानिस्तान में किसी तरह से अशरफ गनी की सरकार अस्थिर न होने पाए।

ऐसे में, हमें अमेरिका को यह बताना होगा कि शांति की किसी भी भूमिका के लिए भारत तैयार है। हम अपने पड़ोसी देशों से बात करके यही चाहेंगे कि अफगानिस्तान में शांतिपूर्ण तरीके से एक स्थिर सरकार बने। मगर तालिबान, अल-कायदा व आईएस जैसे संगठनों पर भी रोक लगनी चाहिए। ये संगठन पहले अफगानिस्तान में अपने पैर जमाना चाहते हैं, और फिर आस-पड़ोस के मुल्कों में अपने प्रभाव के विस्तार की मंशा रखते हैं। भारत की एक चिंता यह भी है कि पाकिस्तान अगर कुछ समय के लिए अफगानिस्तान में सतही तौर पर मान भी जाए, तो कुछ वक्त बाद वह अल-कायदा और अन्य कट्टरपंथी गुटों के लड़ाकों को, जिनसे उसके तार जुड़े हुए हैं, पड़ोसी इलाकों में भेज सकता है।

हम कंधार कांड भूले नहीं हैं, जब भारतीय विमान के अपहरणकर्ता कंधार में उतरने के बाद पाकिस्तान की तरफ भाग गए थे। उस वक्त अफगानिस्तान में तालिबान की ही सरकार थी। भारत अफगानिस्तान में शांति के लिए लगातार प्रयत्न करता रहा है। हमने वहां काफी संरचनात्मक काम किए हैं। न सिर्फ उसे अनाजों की आपूर्ति की जाती रही है, बल्कि वहां के स्कूलों, बांधों, सड़़कों के अलावा संसद की इमारत बनाने में भी भारत ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। साल 2001 से अब तक भारत ने वहां तीन अरब डॉलर से अधिक की रकम खर्च की है।

यह ठीक कि अफगानिस्तान में लोकतंत्र लाने के लिए अमेरिका हमेशा वहां खड़ा नहीं रह सकता, मगर अफगानिस्तान को एक मौका तो मिलना ही चाहिए। उसे यह मौका दिए बिना यदि अमेरिका निकल जाता है, तो यह न सिर्फ अफगानिस्तान के लिए बहुत बुरा होगा, बल्कि इस पूरे क्षेत्र की सुरक्षा के लिए भी। उम्मीद है, प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका और जी-7 के अन्य देशों को यह जरूर बताया होगा कि भारत इस पूरे क्षेत्र में शांति लाने के लिए किस तरह से लगातार प्रयास करता रहा है। यहां तक कि पाकिस्तान में फौजी शासन के दरम्यान भी हमने शांति-वार्ता की कोशिशें कीं। मगर पाकिस्तान अपनी हरकतों से कभी बाज नहीं आया। ऐसे में, सिर्फ दोस्ती की बात करने से कुछ नहीं होगा, पाकिस्तान पर लगातार दबाव बनाए रखना बहुत जरूरी है।

पाकिस्तान अमेरिका से अफगानिस्तान में शांति लाने के दावे कर रहा है। मगर वह किस तरह की शांति होगी? वहां अब तक जो लोकतांत्रिक प्रगति हुई है, उन सबको खत्म करके? पाकिस्तान तो चाहेगा कि तालिबान को पूरी तरह सत्ता सौंप दी जाए, फिर उसके पीछे-पीछे कुछ और कट्टरपंथी समूह आ जाएंगे। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री खुद कुबूल कर चुके हैं कि उनकी चौहद्दी में ही अभी 40 हजार आतंकी हैं। जब वह अपने मुल्क में 40 हजार को नहीं संभाल पा रहे हैं, तो दूसरे देश (अफगानिस्तान) में दहशतगर्दों को कैसे काबू करा देंगे? हमें अमेरिका को यह बताना होगा कि पाकिस्तान, तालिबान और अन्य कट्टरपंथी जमातों पर दबाव कायम किए बिना शांति की बात सफल नहीं हो सकती है।

काबुल में जब पहली बार तालिबान सरकार आई थी, तब चीन ने उसके साथ बाकायदा एक लिखित समझौता किया था कि वे चीन को तंग नहीं करेंगे, बाकी देशों के साथ चाहे जो करें। उसके बाद ही भारतीय विमान के काठमांडू से अगवा किए जाने की घटना घटी थी। भारत इसलिए भी शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बना है। वह इसके जरिए भी रूस, चीन और अन्य देशों के साथ मिलकर अफगानिस्तान में स्थाई शांति और उसकी आर्थिक तरक्की में निवेश की कोशिशें कर रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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