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कठिन समय का संयत रहनुमा

उनके जाने से मेरे सहित अनेक लोगों के जीवन में एक गहरा शून्य रह गया है। मुझे लंबे समय तक उनके साथ लगाव, स्नेह और मित्रता का गहरा जुड़ाव साझा करने का सौभाग्य हासिल हुआ था। उन्होंने अनेक प्रकार से कई...

कठिन समय का संयत रहनुमा
एनके सिंह, वित्त आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसदSun, 25 Aug 2019 09:32 PM
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उनके जाने से मेरे सहित अनेक लोगों के जीवन में एक गहरा शून्य रह गया है। मुझे लंबे समय तक उनके साथ लगाव, स्नेह और मित्रता का गहरा जुड़ाव साझा करने का सौभाग्य हासिल हुआ था। उन्होंने अनेक प्रकार से कई जिंदगियों को आकार दिया और मुझे संकट की घड़ियों में उनसे प्रेरणा और उद्देश्य प्राप्त हुआ। उनके अनेक पहलुओं और उपलब्धियों का तार्किक ढंग से बखान आसान नहीं है।

उनकी चार प्रमुख विशेषताएं हैं, जो मेरे दिमाग में बहुत सहजता से आ रही हैं। एक राजनेता, एक वकील और एक ऐसा दोस्त, जिससे मुश्किल मौकों पर आप सलाह मांगते थे। वह आपकी खुशी में साथ रहते, लेकिन इससे ज्यादा अहम यह कि दुख की घड़ी में वह साथ खड़े हो जाते थे। पहली विशेषता, अनेक वर्षों तक हम राज्य सभा में साथ रहे थे। विपक्ष के नेता के रूप में उनमें एक विरल योग्यता थी, वह पूरी राजनीतिक बिरादरी में अपने प्रति सम्मान का भाव जगा देते थे। किसी दूसरे नेता को ऐसा तादात्म्य हासिल नहीं था। समझाने, मना लेने और शुरुआती विरोधियों का मन बदल देने की वैसी योग्यता किसी में नहीं थी। वह राज्य सभा में जब भी बोलने खड़े होते, उन्हें शांति से सुना जाता। जो उन्हें बेहिसाब नापसंद करते थे, वे भी सम्मान और विस्मय से सुनते थे।

विपक्ष में रहते हुए भी उन्होंने यही किया और सत्ता पक्ष के सदस्य रहते, तो उससे भी ज्यादा। अटल बिहारी वाजपेयी के समय और उसके बाद नरेन्द्र मोदी के पहले कार्यकाल में वह यह काम बखूबी करते रहे। मैं कैसे भूल सकता हूं, जब भी मैंने राज्यसभा में सार्थक हस्तक्षेप किया, मुझे उनसे हमेशा प्रशंसा और प्रोत्साहन की हस्तलिखित पर्ची मिलती थी। वह एक उत्कृष्ट सांसद थे।

दूसरी विशेषता, जेटली जैसे कुछ बेहतर लोग सुधार और बदलाव करने की सहज प्रवृत्ति के साथ जन्म लेते हैं। वह स्वभाव से उदारवादी थे। वह प्रतिस्पद्र्धा शक्ति, उत्पादकता वृद्धि और समग्र राष्ट्रीय हित में विश्वास करते थे। ऐसा तब भी था, जब वह वित्त मंत्री थे। वह गहरे आर्थिक सुधारों के पहलुओं पर विचार करते थे और वार्ता टेबल पर विकसित देशों के घाघ वार्ताकार भी उनकी वाक्पटुता के सामने तर्क की खोज में बगले झांकने लगते थे। अगर वह कभी एक छोटी दलील में पिछड़ भी जाते, तो बड़े मुद्दों पर संघर्ष कर कामयाब हो जाते थे। वित्त मंत्री के रूप में उन्हें व्यापक जीएसटी पर विचार-विमर्श के लिए हमेशा याद किया जाएगा। इसी तरह, दिवालिया संहिता संबंधी सुधार भी उनके विचार-विमर्श का एक ऐसा जटिल और केन्द्रीय विषय रहा था, जिस पर देश का समग्र बैंकिंग सुधार निर्भर था।

जब मैं पलटकर देखता हूं, एक अलग ही जीएसटी पर चर्चा की शुरुआत वर्ष 1992 में हो गई थी, लेकिन इसे अरुण जेटली के अनुपम वार्ता कौशल ने ही 26 साल बाद मुकाम पर पहुंचाया। भारत में कराधान नीति में आमूलचूल बदलाव लागू हो सका। ध्यान देने की बात है, अनेक देशों को ऐसा करने में इससे भी ज्यादा समय लगा है। वह जीएसटी के लिए काफी लंबी जद्दोजहद से गुजरे थे। सभी राज्यों को कर संबंधी सांविधानिक संशोधनों के लिए राजी करना और संसद के दोनों सदनों में इस विधेयक को पारित करवाना आसान नहीं था। और यह कठिन काम उन्होंने तब किया, जब संसद में भाजपा के पास बहुमत नहीं था। उनकी यह राजनीतिक उपलब्धि एक बेमिसाल गवाह है। हमारे लिए जीएसटी जैसी समृद्ध विरासत वह हमेशा के लिए छोड़ गए हैं।

तीसरी विशेषता, भाजपा में उन जैसा मार्ग दिखाने वाला सितारा कोई दूसरा नहीं है। वह एक रहनुमा, एक प्रवक्ता, एक वकील और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को निखारने-संवारने में मदद करने वाले। राजनीति में मुश्किल दौर का पहले ही अंदाजा लगा लेने वाले और उससे जूझने-संभालने का कौशल रखने वाले उन जैसे नेता दुर्लभ हैं। राष्ट्रीय प्रशासन के ढांचे में पैदा होने वाले जटिल मुद्दों को सुलझाने का उनमें अद्भुत कौशल था। भाजपा के पास कोई दूसरा अरुण जेटली नहीं है और मेरी पार्टी उनकी कमी को हमेशा महसूस करेगी।

चौथी विशेषता, बहुत कम लोग होते हैं, जो आधिकारिक कर्त्तव्यों के दबावों और परिवार व नजदीकी लोगों के प्रति लगाव को इतने बेहतर ढंग से संभाल पाते हैं। वैसी शैली, लालित्य और व्यवहार कुशलता स्वाभाविक रूप से लोगों में नहीं देखी जाती है। बेशक, वह विरल समूह के इंसानों में शामिल थे। वह केवल चाणक्य या अनमोल रत्न जैसे ही नहीं थे। लगातार परेशान करने वाली अपनी बीमारी से वह अविश्वसनीय साहस के साथ लड़ते रहे। कहना न होगा, दोस्ती और विरासत छोड़कर वह असमय गए हैं। उनमें दृढ़ विश्वास का साहस था। वे अपनी सेहत के मोर्चे पर लड़ते रहते थे और जब भी कुछ बेहतर महसूस करते, उनका ध्यान फिर काम पर के्द्रिरत हो जाता था। जब भी कोई जटिल मुद्दों के साथ उनके कमरे में जाता था, कम से कम समय में वह संक्षेप में ही समाधान निकाल देते थे और आपको एक सटीक निर्णय सुना देते थे। यह कहना आसान होता है, लेकिन करना मुश्किल। हम में से कई लोग गंभीर बीमारियों से पीड़ित रहते हुए अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं, लेकिन वह इस मोर्चे पर भी एक दुर्लभ अपवाद थे।

मैंने उन्हें कभी तनाव में नहीं पाया। वह बहुत कम उत्तेजित होते थे, चाहे कितनी भी कठिन परिस्थितियां क्यों न आ जाएं। उनके नेतृत्व में ही मैं नरेन्द्र मोदी के साथ बात करने के बाद भाजपा में शामिल हुआ था, इससे मुझे नई पहचान मिली और नया उद्देश्य मिला। भारतीय राजनीति में आज इस रूप में उनका कोई विकल्प नहीं कि वह मूल्यों, शिष्टाचार और उदारता में विश्वास करते थे। ये ऐसे सिद्धांत हैं, जो हमारे स्वस्थ लोकतंत्र का अभिन्न अंग रहे हैं। हारुकी मुराकामी ने ठीक ही कहा है, ‘मृत्यु जीवन का विपरीत नहीं है, बल्कि इसका एक हिस्सा है।’ जीवन की लंबाई नहीं, बल्कि जीवन की वही गहराई और तरंगें, लहरें ही बचती हैं, जिन्हें आप पैदा करते हैं और जो अनंतकाल तक जीवित रहती हैं। शायद उन जैसे एक अच्छे सुसंगठित मस्तिष्क के लिए मृत्यु भी एक और महान साहसिक मुकाम होगी। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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