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राय की राय: बेहतर सम्मान के हकदार होमगार्ड

फरवरी या मार्च 1977 की किसी दोपहर, जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिला मिर्जापुर में दिन अभी न तो पूरी तरह से गरम हुआ था और न ही पठारी चट्टानों की ठंड हाड़ कंपा रही थी। पर इस फगुनाहट में एक खास तरह की...

राय की राय: बेहतर सम्मान के हकदार होमगार्ड
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीTue, 22 Oct 2019 12:45 AM
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फरवरी या मार्च 1977 की किसी दोपहर, जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिला मिर्जापुर में दिन अभी न तो पूरी तरह से गरम हुआ था और न ही पठारी चट्टानों की ठंड हाड़ कंपा रही थी। पर इस फगुनाहट में एक खास तरह की सनसनी घुली हुई थी। आपातकाल खत्म हुआ ही था और देश में आजादी के बाद के सबसे महत्वपूर्ण चुनाव होने जा रहे थे। मेरे जीवन का भी यह एक दुर्लभ अनुभव था। पहली बार किसी चुनाव में मैं एक पुलिस अधिकारी की हैसियत से ड्यूटी दे रहा था। कुछ तो अपरिपक्वता और कुछ जवानी का जोश कि पुराने शहर की गलियों में मैं घिर गया। आपातकाल के बंधनों से ताजा-ताजा मुक्त हुई। जनता हर तरह के बंधनों को तोड़ने पर आमादा थी और ऐसी ही किसी स्थिति में मैं अपनी टुकड़ी के साथ पतली-सी गली में ईंट-पत्थरों की बौछार के बीच में था। ऐसे समय में, जब साथियों के हौसले पस्त नजर आ रहे थे और सभी उपलब्ध आड़ के पीछे छिपकर खुद को चोटिल होने से बचा रहे थे, मैंने देखा कि हमारी टुकड़ी में से चार-पांच लठैत लड़के निकले और बलवाइयों से भिड़ गए। ढीली-ढाली वर्दी और कई तो जूतों की जगह चप्पलों में थे। ये किसानों के बेटे थे और उन्हीं की तरह निपुणता से लाठियां भांज रहे थे। जल्द ही उन्होंने शहरी उद्दंडता को शिकस्त दे दी।

यह होमगार्ड से मेरा पहला पेशेवर परिचय था। अगले तीन दशकों से अधिक इन्हें करीब से देखने और इनके साथ काम करने का मौका मुझे मिला। अभी जब अखबारों में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 25,000 होमगार्डों को नौकरी से निकाले जाने की खबरें पढ़ीं, तो मिर्जापुर जैसे कई प्रसंग याद आ गए। अनगिनत मेलों-ठेलों, चुनावों या ट्रैफिक नियंत्रण में मैंने इनका इस्तेमाल किया है और हर बार इनकी उपस्थिति किसी करुण सिंफनी की तरह लगी है। दिहाड़ी मजदूरी के बराबर वेतन, मौसम के लिहाज से अपर्याप्त वर्दी, थकाऊ  ड्यूटी के बाद खाने-पीने या आराम की व्यवस्था का अभाव और बाज वक्त तो पुलिस वालों के बंधुआ मजदूर होने का भ्रम- गरज यह कि जितने महत्वपूर्ण रोल की अपेक्षा पुलिस विभाग और समाज उनसे करता है, उसके लिए अपेक्षित सुविधाओं का शतांश भी उन्हें नहीं मिलता। कुल मिलाकर, अपनी दयनीय उपस्थिति में कभी-कभार ही मीडिया का ध्यान आकर्षित करने वाले इस संगठन पर अचानक सभी की नजर गई, जब सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय उनके दैनिक भत्ते बढ़ाने का आया और उसके बाद यूपी सरकार ने उनकी संख्या 25,000 घटाने का फैसला किया। इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए संगठन के इतिहास पर एक सरसरी नजर डालना उचित होगा।

दूसरे महायुद्ध के समय ब्रिटिश समाज ने काफी बड़ी संख्या में गृहरक्षकों की फौज खड़ी कर दी थी। थोड़ी-बहुत फौजी ट्रेनिंग प्राप्त यह विभिन्न नागरिक क्षेत्रों से आए ऐसे लोगों का समूह था, जिन्होंने युद्ध के दौरान नागरिकों को आसन्न हवाई हमलों की चेतावनी देने, घायलों को प्राथमिक सुविधाएं प्रदान करने, ट्रैफिक संचालन में पुलिस की मदद करने या महत्वपूर्ण इमारतों, पुलों आदि की सुरक्षा जैसे बहुत से काम किए। भारत में सबसे पहले 1946 में बंबई प्रांत के तत्कालीन प्रीमियर (आज के मुख्यमंत्री) मोरारजी देसाई ने एक छोटे स्तर पर इसका प्रयोग किया। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद एक राष्ट्रीय संगठन के रूप में इसकी परिकल्पना की गई। भारत सरकार ने नागरिक सुरक्षा और होमगार्र्ड का एक अलग निदेशालय बनाया और राज्य सरकारों को आर्थिक मदद की कि वे भी अपने यहां इसी तरह के संगठन खड़े करें। इनके पीछे योजना यह थी कि नागरिकों के बीच 18 से 50 वर्ष आयु के सुरक्षित स्वयंसेवकों की एक ऐसी फौज हर समय उपलब्ध हों, जिन्हें युद्ध, प्राकृतिक आपदा, मेलों जैसे मौकों पर पुलिस के सहयोग के वास्ते अल्प अवधि के लिए बुलाया जा सके। आजकल इनका इस्तेमाल सबसे अधिक चुनावों या परीक्षाओं के संचालन में किया जा रहा है। साल में एक छोटे से प्रशिक्षण कार्यक्रम के अतिरिक्त उनका अपने संगठन से कोई खास संबंध नहीं रहता और अलग-अलग रोजगार से जुडे़ रहकर ये अपना जीवन यापन करते हैं।

विकीपीडिया के अनुसार, देश में इस समय होमगार्ड की कुल स्वीकृत संख्या 5,73,793 है। उत्तर प्रदेश में यह संख्या एक लाख के आस-पास बैठती है। जिन वर्षों में चुनाव नहीं होता, उन्हें छोड़कर शायद ही कभी एक होमगार्ड को दो-तीन महीने से अधिक की ड्यूटी मिलती है। हाल तक उन्हें 500 रुपये प्रतिदिन का भत्ता मिलता था, अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, 672 रुपये मिलेंगे। यूपी सरकार बजट की उपलब्धता के अनुसार प्रदेश के 25,000 होमगाड्र्स की सेवाएं खत्म करने की बात कही। यह भ्रम पैदा करने वाला निर्णय था। वे कोई नियमित सरकारी कर्मचारी तो थे नहीं कि उनकी सेवाएं समाप्त करने जैसा कदम उठाने की जरूरत थी। हर होमगार्ड को मिलने वाली ड्यूटी में इस प्रकार कटौती की जा सकती थी कि निर्धारित बजट में ही सबकी सेवाएं बची रहतीं। आलोचना झेलने के बाद सरकार ने यही किया भी।

वैसे इस कटौती की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए थी। उत्तर प्रदेश पुलिस में हर समय 25,000 से ज्यादा रिक्तियां रहती हैं। होमगार्ड तो पुलिस के सहायक के रूप में ही काम आते हैं और बड़े आराम से इन्हें पुलिस की रिक्तियों के सापेक्ष खपाया जा सकता है। बेहतर प्रशिक्षण और संसाधनों के साथ होमगार्ड एक अत्यंत उपयोगी मशीनरी में तब्दील हो सकते हैं। आज जब सरकारों में नागरिकों के दरवाजे तक सुविधाएं पहुंचाने की होड़ लगी है, होमगार्ड एक अच्छे संवाहक बन सकते हैं। दुर्भाग्य से वे ज्यादातर भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के चंगुल में फंसे रहे हैं और जिस पुलिस के साथ वे सड़कों पर दिखते हैं, उसके लिए भी इनकी हैसियत बंधुआ मजदूर जैसी रही है। इन स्थितियों में स्वाभाविक रूप से पहली क्षति उनके आत्म-सम्मान की होती है। इसका सीधा असर उनके काम पर पड़ता है। यदि सरकारें पारदर्शी तरीकों से भर्ती किए गए होमगार्ड को बेहतर प्रशिक्षण और संसाधन मुहैया कराएं, तो वे समाज के लिए बड़ी पूंजी बन सकते हैं। तभी वह लक्ष्य भी हासिल हो सकेगा, जिसे ध्यान में रखकर 1962 में इस संगठन की परिकल्पना की गई थी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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