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क्या निवेशकों को लुभा पाएगा महाराजा

एअर इंडिया के विनिवेश को लेकर केंद्र सरकार एक बार फिर सक्रिय है। कहा जा रहा है कि दुनिया की कई कंपनियां इसमें अपनी रुचि दिखा रही हैं, इसलिए मन-मुताबिक खरीदार मिलते ही इसे निजी हाथों में सौंप दिया...

क्या निवेशकों को लुभा पाएगा महाराजा
हर्षवर्द्धन, पूर्व प्रबंध निदेशक वायुदूत Fri, 20 Sep 2019 03:24 AM
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एअर इंडिया के विनिवेश को लेकर केंद्र सरकार एक बार फिर सक्रिय है। कहा जा रहा है कि दुनिया की कई कंपनियां इसमें अपनी रुचि दिखा रही हैं, इसलिए मन-मुताबिक खरीदार मिलते ही इसे निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा। इससे पहले भी दो बार महाराजा के निजीकरण की कोशिशें हो चुकी हैं। मगर 1998 और 2018 के उन प्रयासों में सरकार को सफलता नहीं मिल सकी। एअर इंडिया पर फिलहाल करीब 58,000 करोड़ रुपये का कर्ज है। खत्म हुए वित्तीय वर्ष (2018-19) में 8,400 करोड़ रुपये का घाटा दर्ज किया गया है। ऐसे में, इसकी देनदारी और बढ़ गई है।
एअर इंडिया के विनिवेश का पूरा मसौदा तो सार्वजनिक नहीं किया गया है। मगर जो चर्चाएं हैं, उनमें यह कहा जा रहा है कि पिछली गलतियों से ‘सबक’ लेते हुए इस बार कदम बढ़ाए जा रहे हैं। अपने पिछले प्रयास में सरकार एअर इंडिया और उसकी तमाम इकाइयों को एक साथ बेचना चाहती थी। मगर इस बार वह न सिर्फ तमाम इकाइयों को अलग-अलग बेचने की सोच रही है, बल्कि सौ फीसदी तक निजीकरण के लिए भी वह तैयार है। ऐसा करने की वजह भी है, क्योंकि सरकार के पास नए विकल्प नहीं हैं। एअर इंडिया की देनदारी को कम करने के लिए वह जो कुछ कर सकती थी, कर चुकी है। तो क्या इस बार उसके हिस्से में सफलता आएगी? इसका जवाब खोजना ज्यादा कठिन नहीं है।

दरअसल, 2018 और 2019 के दौरान बाजार की सेहत काफी बिगड़ चुकी है। पिछली बार जब यह कवायद की गई थी, तो भारत का बाजार विकासोन्मुखी था और विकास दर के मामले में हमारी हैसियत दुनिया में बेहतर थी। आर्थिक मोर्चे पर भी हम तेज गति से आगे बढ़ रहे थे। मगर पिछले 12 महीनों में परिस्थितियां बदल गई हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती का शिकार हो गई है। वित्तीय वर्ष 2018-19 की अप्रैल-जून तिमाही में विकास दर बेशक आठ फीसदी थी, लेकिन अब यह घटकर पांच फीसदी पर आ गई है, और इसमें किसी तरह के ठहराव की कोई संभावना नहीं देखी जा रही। दिक्कत यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की हालत भी ठीक नहीं है। अंतरराष्ट्रीय कंपनियां मंदी की आहट से हलकान हैं। इसके अलावा, सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी अरामको के उत्पादन ठिकानों पर हुए ड्रोन हमले ने भी वैश्विक समुदाय को चिंता में डाल दिया है। माना जा रहा है कि अमेरिका इसका जल्द ही जवाब देगा, जिससे अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में उथल-पुथल मचनी तय है। चिंता की एक बात यह भी है कि पाकिस्तान द्वारा अपने हवाई क्षेत्र में प्रतिबंध लगा दिए जाने से भारतीय विमानन कंपनियों की परिचालन लागत बढ़ गई है। ये तमाम परिस्थितियां निजी निवेश के प्रतिकूल मानी जाएंगी। 

निजीकरण के लिए आर्थिक माहौल इसलिए भी खराब है, क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेशकों का भरोसा लगातार कम हो रहा है। इस तरह के प्रयास तभी अपने अंजाम तक पहुंचते हैं, जब इनसे जुड़े फैसले लेने में सरकार उत्सुक दिखे और निवेशकों को सुरक्षित निवेश का भरोसा मिले। 2जी मामले में हमने देखा है कि किस तरह से सरकार की गलतियों का खामियाजा निवेशकों ने भुगता। ऐसी घटनाएं निवेशकों के कदम पीछे खींचती हैं और उन्हें सोचने को मजबूर करती हैं। इसका भी खामियाजा एअर इंडिया को उठाना पड़ सकता है।
कहा जा रहा है कि विदेशी विमानन कंपनी को भी सरकार शत-प्रतिशत शेयर देने के लिए तैयार है। मगर फिलहाल विदेशी विमानन कंपनियों की हालत भी ठीक नहीं है। जेट एयरवेज एक मौजूं उदाहरण है। संयुक्त अरब अमीरात की दूसरी सबसे बड़ी एयरलाइन एतिहाद एयरवेज जैसी सहयोगी के बावजूद जेट एयरवेज उड़ान न भर सकी। तमाम कोशिशों के बावजूद इसके लिए निवेशक नहीं मिल पाए, जबकि इसकी देनदारी एअर इंडिया के मुकाबले काफी कम है। इतना ही नहीं, जब जेट एयरवेज के लिए निवेशक ढूढ़ने के प्रयास शुरू किए गए थे, तब बाजार भी काफी अच्छी हालत में था। 

एअर इंडिया के लिए रास्ते इसलिए भी आसान नहीं दिखते, क्योंकि इसकी ‘ऑपरेशनल एसेट’ (परिचालन संपत्ति) एक बड़ी समस्या है। बेशक इसके पास ढेर सारी अचल संपत्ति है, लेकिन विमान सेवा संचालित करने वाला कोई भी निवेशक अचल संपत्ति नहीं, बल्कि परिचालन संपत्ति के आकर्षण में निवेश करना पसंद करता है, और इस मामले में एअर इंडिया जबर्दस्त घाटे में है। फिर, भारतीय विमानन उद्योग की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। यहां विमान सेवा की संचालन लागत काफी ज्यादा है और टैक्स भी अपेक्षाकृत ज्यादा चुकाने पड़ते हैं। ईंधन की कीमत दुनिया भर में सबसे ज्यादा भारत में ही है। इसलिए विदेशी निवेशक यहां आने से कतरा सकते हैं। निवेशकों के रुझान की वजह हमारा बढ़ता ‘ट्रैफिक’ (यात्रियों की बढ़ती संख्या) हो सकता था, लेकिन धीरे-धीरे यह स्थिति भी बदलने लगी है।

जेट एयरवेज के बंद होने के बाद एअर इंडिया के पास खुद को संवारने का एक अच्छा मौका था। वह अपनी परिचालन क्षमता बढ़ा सकती थी, क्योंकि जेट एयरवेज देश की सबसे बड़ी यात्री एयरलाइन थी और इसी ने एअर इंडिया के रुतबे को कम किया था। मगर स्थिति यह रही कि अप्रैल में इस सेवा के बंद होने के बाद तमाम घरेलू विमानन कंपनियों की आर्थिक स्थिति बेहतर हुई, लेकिन एअर इंडिया की हालत जस की तस बनी रही; उलटे बिगड़ती ही चली गई। साफ है, सरकार को इसकी संचालन क्षमता को दुरुस्त करना होगा। यह समझना होगा कि कुशल नेतृत्व का न होना एअर इंडिया के लिए सबसे बड़ी परेशानी की वजह है। जब तक इसका हल नहीं निकाला जाएगा, हमारा महाराजा सफेद हाथी बना रहेगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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