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भाषा का संयम भूलता एक विश्व नेता 

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस माह की नौ तारीख को तुर्की के राष्ट्रपति रैसिप तैईप एर्दोगन को एक खत भेजा, जिसकी भाषा मर्यादा की हर सीमा को तोड़ती दिखी। ट्रंप ने एर्दोगन को चेतावनी दी कि यदि...

भाषा का संयम भूलता एक विश्व नेता 
विवेक काटजू, पूर्व राजदूत Sat, 19 Oct 2019 12:52 AM
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस माह की नौ तारीख को तुर्की के राष्ट्रपति रैसिप तैईप एर्दोगन को एक खत भेजा, जिसकी भाषा मर्यादा की हर सीमा को तोड़ती दिखी। ट्रंप ने एर्दोगन को चेतावनी दी कि यदि उन्होंने कुर्दों के साथ एक अच्छा समझौता करने से इनकार किया, तो वह तुर्की की अर्थव्यवस्था को तबाह कर देंगे। इससे आगे बढ़ते हुए उन्होंने यह भी लिखा कि यदि वह (एर्दोगन) सही और मानवीय तरीका नहीं अपनाते हैं, तो इतिहास उन्हें शैतान के तौर पर देखेगा। पत्र के अंत में ट्रंप ने लिखा, कठोर मत बनो, बेवकूफ मत बनो।

अमेरिका के सदर ने इस तरह की भाषा का इस्तेमाल आखिर क्यों किया? दरअसल, इस खत को लिखने से कुछ दिन पूर्व ट्रंप और एर्दोगन की फोन पर बातचीत हुई थी। माना जाता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने एर्दोगन की इस बात पर हामी भरी थी कि सीरिया के उत्तर-पूर्व में कुर्दों के खिलाफ तुर्की अपनी सेना उतारेगा, लेकिन इससे पहले ट्रंप उस इलाके में मौजूद सभी अमेरिकी सैनिकों को बाहर निकाल लेंगे। चूंकि सीरिया के गृह युद्ध में अमेरिका और कुर्द योद्धा आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएस) के खिलाफ एक साथ लड़े थे, जिसमें ग्यारह हजार से अधिक कुर्द लड़ाकों ने अपनी जान गंवाई, इसलिए ट्रंप ने जैसे ही कुर्दों का दामन छोड़ने का फैसला किया, अमेरिकी सेना और अमेरिका के राजनीतिक वर्ग में नाराजगी फैल गई। नतीजतन, ट्रंप ने एर्दोगन पर दबाव डाला कि वह बातचीत के जरिए कुर्दों से अपने विवाद सुलझाएं और आक्रमण से परहेज करें। मगर तुर्की ने सीरिया से अमेरिकी फौज के हटने के बाद कुर्द बहुल इलाकों पर हमला बोल दिया। यह चिट्ठी उसी हमले के बाद लिखी गई।

यह पहली बार नहीं है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय नेताओं की इस कदर बेइज्जती की है। अपमानजनक भाषा का प्रयोग और लांछन लगाना मानो उनकी आदत-सी बन गई है। 2018 में जी-7 शिखर सम्मेलन के फौरन बाद उन्होंने मेजबान देश कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो पर आरोप जड़ दिया था कि उन्होंने झूठी बयानबाजी की है और वह एक दुर्बल व बेईमान नेता हैं। स्वाभाविक था कि कनाडा ने उस बयान पर खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर की। इससे पहले 2017 में उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग-उन को भी ट्रंप ‘लिटिल रॉकेटमैन’ कहकर संबोधित कर चुके हैं। तब ट्रंप ने यह भी कहा था कि किम जोंग-उन ने यदि अमेरिका के खिलाफ कोई कदम उठाया, तो वह उनके देश का सफाया कर देंगे।

अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मर्यादा का तकाजा यही है कि नेतागण एक-दूसरे से अदब से पेश आएं, फिर चाहे उनमें कितना भी मनमुटाव क्यों न हो। कुछ दशकों पहले तक कभी कोई नेता किसी दूसरे पर व्यक्तिगत हमले नहीं करता था। नीतियों की बेशक आलोचना की जाती थी और यह करते समय कठोर से कठोर शब्दों का इस्तेमाल भी होता था, लेकिन सब मर्यादा के दायरे में किया जाता। शब्द कभी शिष्टाचार की सीमा नहीं लांघते थे। शीत युद्ध के दौर में भी अमेरिका व उसके सहयोगी देश और सोवियत संघ व उसके मित्र देशों के बीच एक-दूसरे को क्षति पहुंचाने की तमाम कोशिशें हुईं, लेकिन कभी अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार का उल्लंघन नहीं किया गया। लेकिन आज लगता है कि वह जो जमाना था, उसका मिजाज अब बदल रहा है, और इसके बदलने में निश्चय ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का बड़ा योगदान है।

पहले अमेरिकी राष्ट्रपति इस सिद्धांत पर चलते थे कि कठोर से कठोर कदम उठाने के बावजूद वह शालीन भाषा में ही दुनिया को संबोधित करेंगे। करीब 120 साल पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने अपने साथियों को यह सीख दी थी, ‘स्पीक सॉफ्टली, बट कैरी अ बिग स्टिक’, यानी सख्त रुख जरूर अपनाओ, लेकिन अपनी भाषा में शालीनता रखो। यह एक प्रकार से अमेरिका की राजनीतिक परंपरा का मूल सिद्धांत बन गया था। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कई अन्य बड़े नेताओं ने भी इसी सिद्धांत पर चलना पसंद किया। लेकिन अब कई देशों की घरेलू राजनीति में विपक्ष की नीतियों की आलोचना के साथ-साथ व्यक्तिगत लांछन लगाने का दस्तूर बन गया है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो अपने घरेलू राजनीतिक विरोधियों के लिए अब तक संभवत: हर अपमानजनक शब्द का इस्तेमाल कर लिया है। वह तो शारीरिक बनावट पर भी व्यंग्य कसने लगे हैं।
 
एक दौर था, जब हर देश की जनता अपने नेताओं से यही उम्मीद करती थी कि वे आदर्श व्यवहार का परिचय देंगे। मगर अब लगता है कि वह दौर बीत चुका है। अमेरिका में ट्रंप के समर्थक अपने नेता की भाषा को जायज बताते हैं और मानते हैं कि राजनीतिक विरोधियों की इसी तरह आलोचना की जानी चाहिए। आलम यह है कि राष्ट्रपति चुनाव को गुजरे ढाई साल हो गए, लेकिन अब भी ट्रंप अक्सर अपनी विरोधी हिलेरी क्लिंटन को ताने मारने से नहीं चूकते। ट्रंप की यही भाषा-शैली अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी दिखने लगी है।

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को भी अमेरिकी राष्ट्रपति का यह आचरण भाने लगा है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया, वह भारत-पाकिस्तान संबंधों के इतिहास में पहले कभी नहीं किया गया था। पिछले सात दशकों में भारत और पाकिस्तान के बीच कई युद्ध हुए हैं, पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान आतंकवाद के रूप में हमसे छद्म जंग लड़ता रहा है, भारत हर मोर्चे पर पाकिस्तान के मुकाबिल है, फिर भी दोनों तरफ से शिष्टाचार का पूरा ख्याल रखा जाता रहा। अधिक से अधिक भारतीय नेताओं ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान के नेताओं से मिलने से इनकार किया, जिसे भी कूटनीति के लिहाज से अशिष्ट आचरण नहीं कहा जा सकता। ऐसे में, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाकिस्तान के हुक्मरां अपना संतुलन खो बैठे हैं। आपसी रिश्तों पर इसका दूरगामी प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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