वीआईपी सुरक्षा में जिद की जगह नहीं
सेंट्रल असेंबली की, जो उस समय संविधान सभा के रूप में काम कर रही थी, एक दिलचस्प बहस हाल ही में मुझे पढ़ने को मिली। महात्मा गांधी की हत्या के फौरन बाद हुए उस सत्र में उत्तेजित सदस्य जानना चाहते थे कि...
सेंट्रल असेंबली की, जो उस समय संविधान सभा के रूप में काम कर रही थी, एक दिलचस्प बहस हाल ही में मुझे पढ़ने को मिली। महात्मा गांधी की हत्या के फौरन बाद हुए उस सत्र में उत्तेजित सदस्य जानना चाहते थे कि सरकार ने उनकी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए थे? आखिर 30 जनवरी, 1948 के सफल प्रयास के पहले उनकी हत्या के कई विफल प्रयास हो चुके थे और उनमें से कुछ में तो षड्यंत्रकारियों के बारे में पुलिस को कार्रवाई करने लायक सूचनाएं भी प्राप्त हो गई थीं। तत्कालीन बंबई प्रांत के प्रधानमंत्री (आज मुख्यमंत्री) मोरारजी देसाई को तो किसी सूत्र ने हत्या से संबंधित एक गहरे षड्यंत्र की सटीक सूचना तक दी थी। इन सबके बाद भी ऐसा क्यों हुआ कि 30 जनवरी की उस दुर्भाग्यपूर्ण सुबह 11 बजे नाथूराम गोडसे न सिर्फ प्रार्थना सभा में गांधीजी के निकट पहुंच गया, बल्कि यदि बिड़ला हाउस के एक माली ने बहादुरी न दिखाई होती, तो संभवत: हत्या करने के बाद वह घटनास्थल से भाग भी गया होता? स्वाभाविक था कि कई सदस्य सरकार की इस लापरवाही पर चिंतित थे। गनीमत थी कि सेंट्रल असेंबली या केंद्रीय धारा सभा अपने आज के अवतार लोकसभा की परंपराओं से काफी दूर थी, अन्यथा इस मुद्दे पर कई दिनों तक सदन की कार्यवाही का न चल सकना लाजिमी था।
महात्मा गांधी के हत्यारों पर लाल किले में एक विशेष अदालत में मुकदमा चला और देश भर के अखबारों ने उसकी दैनिक कार्यवाही की रपटें छापीं। अदालती कार्यवाही की ऐसी ही एक रिपोर्टिंग बनारस से छपने वाले दैनिक आज में प्रकाशित हुई, जो पुस्तकाकार गांधी-हत्याकांड के नाम से मुकदमा खत्म होने के फौरन बाद 1949 में छपी। विषय की नजाकत को देखते हुए संपादक ने अपना छद्म नाम दिया था- विहंगम। पुस्तक में अदालती कार्यवाही के तथ्यों के अलावा अन्य स्रोतों से भी गांधी हत्याकांड से जुड़ी सामग्री जुटाई गई है। इसी क्रम में सेंट्रल असेंबली की बहस का जिक्र है।
आज इंदिरा गांधी के जन्मदिन पर इस बहस का स्मरण स्वाभाविक है। सदस्यों के बार-बार पूछने पर कि महात्मा गांधी के लिए त्रुटिहीन सुरक्षा-व्यवस्था क्यों नहीं की गई, तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने स्पष्ट किया कि सरकार महात्मा गांधी के जीवन पर आसन्न खतरे से वाकिफ थी और उसने सुरक्षा के प्रबंध करने के विभिन्न प्रयास भी किए, पर ये सफल नहीं हुए। असफलता का मुख्य कारण गांधीजी का असहयोग था। मसलन, गांधीजी इस बात के लिए तैयार नहीं हुए कि उनकी प्रार्थना सभाओं में आने वालों की तलाशी ली जाए या फिर उनके कार्यक्रमों में सशस्त्र पुलिस बल लगाया जाए। एक सदस्य ने यहां तक सलाह दी कि किसी अति विशिष्ट व्यक्ति को खतरा होने पर उसकी सुरक्षा-व्यवस्था का निर्णय का मसला पुलिस पर छोड़ देना चाहिए। गृह मंत्री का कहना था कि महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति को उनकी इच्छा के विरुद्ध सुरक्षा नहीं प्रदान की जा सकती। स्पीकर ने अधिक बहस की अनुमति नहीं दी, इसलिए बहुत कुछ अनकहा ही रह गया।
ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद इंदिरा गांधी के जीवन को लेकर भी ऐसी ही एक स्थिति उत्पन्न हो गई थी। उन दिनों एसपीजी का गठन नहीं हुआ था और प्रधानमंत्री की सुरक्षा मुख्य रूप से इंटेलीजेंस ब्यूरो की देख-रेख में दिल्ली पुलिस करती थी। खुफिया रिपोर्टों में प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लगे सिख पुलिसकर्मियों की निष्ठा पर शक प्रकट किया जा रहा था और उन्हें नजदीकी सुरक्षा घेरे से हटाने की सिफारिश भी की जा रही थी। इंदिरा गांधी ने इस सलाह को मानने से इनकार कर दिया और इसकी कीमत चुकाई।
महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी के संदर्भों में एक नैतिक पक्ष है। गांधीजी अहिंसा के पुजारी थे और उनके लेखन व भाषणों का एक बड़ा हिस्सा हिंसा के विरुद्ध भी अहिंसा का मार्ग न छोड़ने की जिद को रेखांकित करता है। वह केवल कायरता के बरक्स हिंसा की स्वीकृति दे सकते थे और अपनी सुरक्षा के लिए सशस्त्र सुरक्षा की इजाजत न देना तो किसी भी तरह से कायरता की श्रेणी में नही आता। इंदिरा गांधी और खालिस्तानी उग्रवाद के रिश्तों में भी एक नैतिक पेच है। अब पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, जिससे सिद्ध किया जा सकता है कि शुरुआती दौर में जरनैल सिंह भिंडरांवाले को इंदिरा गांधी के करीबी पंजाबी नेताओं का वरदहस्त हासिल था। जब उन्हें एहसास हो भी गया कि भिंडरांवाला भस्मासुर बन गया है, उन्होंने वे सारे मौके गंवा दिए, जिनमें पंजाब पुलिस ही उससे निपटने में सक्षम थी और ऐसी स्थिति आने दी कि फौज का इस्तेमाल करना पड़ा। यह तो गनीमत थी कि सिखों का विशाल बहुमत खालिस्तानियों के चक्कर में नहीं पड़ा और तब तक खामोश बैठा रहा, जब तक भारतीय राज्य कमजोर दिखता रहा, पर जैसे ही सरकार को बढ़त मिली, खालिस्तान के खिलाफ बोलने लगा।
इतिहास जब भी इंदिरा गांधी का मूल्यांकन करेगा, यह नहीं भूलेगा कि अपनी अदूरदर्शी नीति के कारण उन्होंने एक देशभक्त कौम के एक हिस्से को, भले ही वह बहुत छोटा रहा, पृथकतावादी बना दिया था। उनका अपने सिख सुरक्षाकर्मियों को न हटाना संभवत: इसी भूल का परिमार्जन था। इंदिरा गांधी के समय में भी हमेशा की तरह भारतीय सेना और दूसरे सुरक्षा बलों में बड़ी संख्या में सिख मौजूद थे और उनकी देशभक्ति पर कभी किसी को शक नहीं रहा, इसलिए उनके फैसले को गलत नही ठहराया जा सकता। यह इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व का नैतिक पक्ष था कि उन्होंने राष्ट्रीय हित के मुकाबले अपनी सुरक्षा को तरजीह नहीं दी।
सेंट्रल असेंबली की बहस का यह सुझाव कि अति विशिष्ट महानुभावों की सुरक्षा का निर्णय पूरी तरह से पुलिस पर छोड़ दिया जाए, एक लंबी बहस की मांग करता है। लोकतंत्र में जन-प्रतिनिधियों की स्वाभाविक इच्छा हो सकती है कि वे अपने मतदाताओं से सीधा संपर्क रखें। उनके और समर्थकों के बीच देहभाषा ही सबसे कारगर सेतु बन सकती है और इस माध्यम का संप्रेषण निकट संपर्क में ही हो सकता है। ऐसे में, अगर सुरक्षा तंत्र राजनेताओं को समर्थकों के निकट संपर्क से अलग-थलग करना चाहे, तो यह उन्हें स्वीकार्य नहीं होगा। साथ ही, अति विशिष्ट व्यक्तियों को भी सुरक्षा एजेंसी की जरूरतों से तार्किक तालमेल बिठाना ही पडे़गा। किसी की भी जिद नहीं चल सकती। महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी, दोनों की सुरक्षा में चूक का एक नैतिक पक्ष भी है। दोनों जिंदगी की लड़ाई जरूर हार गए, पर दोनों की नैतिक विजय हुई।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)