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Hindi News ओपिनियन सुनवाई ही एक नजीर बन गई

सुनवाई ही एक नजीर बन गई

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद अब फैसले का इंतजार हो रहा है। लगातार 40 कार्यदिवसों में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ आई तमाम अपीलों को...

 सुनवाई ही एक नजीर बन गई
विजय हंसारिया, वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट Fri, 18 Oct 2019 01:13 AM
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राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद अब फैसले का इंतजार हो रहा है। लगातार 40 कार्यदिवसों में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ आई तमाम अपीलों को सुना। दिनों के हिसाब से यह देश की दूसरी सबसे लंबी सुनवाई रही। इससे पहले केशवानंद भारती मामले में शीर्ष अदालत 68 दिनों तक बैठी थी। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद मामले को इसलिए इतनी अहमियत दी गई, क्योंकि अयोध्या के 2.77 एकड़ विवादित स्थल पर मालिकाना हक को अदालत ने एक संवेदनशील मसला माना। देखा जाए, तो ऐसे मसलों की सुनवाई इसी तरह होनी चाहिए। संविधान पीठ को पांचों दिन बैठकर दलीलें सुननी चाहिए और मामले को न्याय तक पहुंचाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय की यह खासियत है कि वह जल्दबाजी में कोई सुनवाई नहीं करती। सभी पक्षों को अपनी बात रखने का पूरा समय देती है। निजता के अधिकार मामले में ही शीर्ष अदालत तकरीबन 30 दिनों तक सभी पक्षों को सुनती रही। इसमें लगभग छह महीने का वक्त लगा। तब हफ्ते में तीन दिन इस मामले की सुनवाई होती थी। उस वक्त संविधान पीठ में शामिल न्यायाधीश दूसरे मामले भी सुनते थे। नतीजतन, टुकड़े-टुकड़े में सुनवाई होती रही। एक बेंच साढ़े दस बजे बैठती थी, तो दूसरी सवा ग्यारह बजे; दो बजे एक अलग बेंच, तो ढाई बजे संविधान पीठ। बेशक इस तरीके पर कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं, पर अदालत की मंशा अनुचित नहीं कही जाएगी। जब कोई फैसला देश-समाज पर व्यापक असर डालने वाला हो, तो अदालती प्रक्रिया में थोड़ी-बहुत फेरबदल की जाती है। ऐसा नहीं होता कि आनन-फानन में सुनवाई कर दी जाए। राम जन्मभूमि मामले में ही यह सवाल उठाना गलत होगा कि प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई चूंकि अगले महीने सेवानिवृत्त हो रहे हैं, इसलिए इसके निपटारे में जल्दबाजी की गई। पिछले करीब आठ वर्षों से यह मसला शीर्ष अदालत में लंबित है। फिर, सुप्रीम कोर्ट के कामकाज के लिहाज से 40 दिन कम भी नहीं होते। यह सब कुछ मुकदमे की अहमियत देखकर तय किया जाता है। यहां कुछ मुकदमों की सुनवाई मिनटों में खत्म होती है, कुछ की घंटों में, तो कुछ की दिनों में। तभी एक निष्पक्ष फैसला हमारे सामने आता है।

अदालत ने इस विवाद को मध्यस्थता से भी सुलझाने की बात बार-बार कही। उसने जस्टिस कलीफुल्ला के नेतृत्व में श्री श्री रविशंकर और श्रीराम पंचू की बाकायदा तीन सदस्यीय एक कमेटी बनाई, ताकि मेल-मिलाप से इस मसले का हल निकाला जा सके। जिस दिन इस कमेटी के गठन की बात कही गई थी, उस दिन अदालत में मैं भी मौजूद था। तब कोर्ट ने कहा था कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद दो पक्षों के बीच किसी जमीन की मिल्कियत का मसला भर नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र का एक अहम मामला है। इससे आम लोगों की गहरी आस्था जुड़ी हुई है, इसलिए मध्यस्थता से इसे सुलझा लिया जाए, तो बेहतर होगा। बुधवार को अंतिम सुनवाई में भी मध्यस्थता को लेकर बातें हुईं। अगर अंतिम फैसला आने से पहले भी मध्यस्थता से इस विवाद का हल निकल आता है, तो इसे काफी अच्छा माना जाएगा। इससे कोई पक्ष नाराज भी नहीं होगा। दरअसल, अदालत जब कोई फैसला सुनाती है, तो एक पक्ष को लगता है कि उसकी जीत हुई है और दूसरा उसमें अपनी हार देखता है। मगर मध्यस्थता की सफल प्रक्रिया में दोनों पक्ष जीतते हैं। ऐसे फैसले आम राय वाले माने जाते हैं।

अब अदालत पर यह कहकर भी सवाल उठाए जाने लगे हैं कि यहां न्याय पर आस्था भारी पड़ने लगी है। लेकिन मैं इससे इत्तफाक नहीं रखता। ऐसे मामलों में अदालत पर किसी तरह का कोई दबाव नहीं होता। सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश देने का मुकदमा इसका अच्छा उदाहरण है। आज भी देश के असंख्य लोग यही मानते हैं कि औरतों को सबरीमाला मंदिर में पूजा करने का अधिकार देकर अदालत ने गलत किया। उसे ऐसा कतई नहीं करना चाहिए था। मगर अदालत क्यों न ऐसा करती? उसके सामने जो साक्ष्य रखे गए थे या जो रिकॉर्ड पेश किए गए, वे औरतों के हक की बातें कर रहे थे। यदि अदालत उस मामले में आस्था को तवज्जो देती, तो आज भी सबरीमाला मंदिर के दरवाजे महिलाओं के लिए बंद होते।

सुप्रीम कोर्ट में ऐसा नहीं होता कि कोई मुकदमा आज दर्ज हुआ, और कल से ही उसकी सुनवाई शुरू हो जाएगी। यहां मुकदमों की अहमियत सब कुछ तय करता है। अदालत अपना यह कर्तव्य समझती है कि उसका एक गलत फैसला कई चीजों को दांव पर लगा सकता है, जिसमें मानव-जीवन भी एक है। इसलिए वह सावधानी से सभी पक्षों की बातें सुनती है और सुनवाई पूरी करती है। हालांकि बुधवार को दलीलें पेश करते समय वकीलों का जो आक्रामक रुख सामने आया, उसे उचित नहीं कहा जाएगा। बतौर अधिवक्ता यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि आप अदालत की मर्यादा का उल्लंघन करें। अदालत की गरिमा का सम्मान करते हुए बहस की जानी चाहिए और अपना पक्ष रखना चाहिए।

यही वजह है कि न्याय-प्रक्रिया के लिहाज से राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद भले खास हो, पर इसे कानून के हिसाब से ही तय किया जाएगा। संविधान पीठ साक्ष्य के आधार पर फैसला सुनाएगी। फिर भी यह इतना महत्वपूर्ण जरूर है कि इसे इंदिरा साहनी (आरक्षण की सीमा अधिकतम 50 फीसदी तय करने वाला मामला), सबरीमाला, केशवानंद भारती, निजता का अधिकार जैसे मुकदमों की श्रेणी में रखा जाएगा। इसका फैसला भी देश-समाज पर व्यापक रूप से असरदार होगा और इसे नजीर के रूप में भविष्य में पेश किया जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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