भागिए नहीं भीगिए, सावन आया है
मनुष्य की रचना प्रकृति ने उसके ‘स्व’ के लिए की ही नहीं है। वह तो सृष्टि मात्र के प्रतिनिधित्व के लिए जन्मा है। तभी तो मनुष्य आषाढ़ भर किसी प्रकार प्रतीक्षा करता है कि थोड़ी-सी वर्षा...
मनुष्य की रचना प्रकृति ने उसके ‘स्व’ के लिए की ही नहीं है। वह तो सृष्टि मात्र के प्रतिनिधित्व के लिए जन्मा है। तभी तो मनुष्य आषाढ़ भर किसी प्रकार प्रतीक्षा करता है कि थोड़ी-सी वर्षा हो, तो नदी-नाले चलने लगें, हवा में थोड़ी ठंडक आ जाए, वृक्षों की वानस्पतिक उपस्थिति अनुभव होने लगे और ऐसी मानवता श्रावण आते-आते बहुत कुछ हो भी जाती है। जिस खिड़की से कभी लू की लपटें आती थीं, अब उसी से ठंडी बयार के झोंके रह-रहकर आने लगते हैं।
इस बीच वृक्षों के पत्ते नहा लिए, तो कैसी हरीतिमा आ गई न! मेघगर्जन पर ऐसा लगता है कि जैसे खंभों पर जलती चिमनियां चौंक-चौंक पड़ रही हैं। घर-आंगन, सभी जगह कैसा सुहावना लगने लगता है, जैसे कोई मेहमान आने को है और अभी तक सतरंजी भी बाहर ओटले (चबूतरे) पर किसी ने नहीं बिछाई। भला ऐसी रम्य, काम्य ऋतु में समस्त सृष्टि की ओर से मनुष्य को कोई उत्सव मनाने से रोक सकता है? गोठों के लिए श्रावणी फुहार में भीगते हुए सुदूर वनों के जलाशयों तक जाने से कोई रोक सकता है?
आनंद के लिए उपकरण की नहीं, मन की उत्सवता चाहिए। जंगल में पीपल या वट-वृक्ष के भीगे तने से पीठ टिकाए वर्षा में टाट सिर से ओढ़े, ठंडी हवा में कांपते किसी ग्वाले, घोष से पूछिए कि तेज सपाटे मारती हवा में छितरी पड़ती बंशी की बेसुरी तान में क्या आनंद आ रहा है! वर्षा की माधवता जब अपने अंतर में संपन्न होगी, तभी तो वर्षोत्सव अनुभव किया जा सकता है। गीली, भीगी गोधूली में गाय-भैंसों के साथ लौटना भी एक उत्सव है, यह अनुभव करने के लिए अपने अंतर में अनासक्त चरमोत्कर्षता चाहिए।
स्त्रियां हैं कि वर्षा थोड़ी-सी रिमझिम हुई और निकल पड़ीं। गांव के बाहर जिस आम या पीपल या नीम की शाखा थोड़ी नीचे हुई, उसी पर रस्सी का झूला डाला और हिचकोले लेने लगीं और कहीं दो-चार हुईं, तो रस्सी में पटिया फंसाया और दोनों ओर सखियां खड़ी हो गईं। कैसे हुमस-हुमसकर पेंगें बढ़ाई जा रही हैं। बाल हवा के साथ छितरे पड़ रहे हैं। पल्लू का पता ही नहीं चल रहा है। रिमझिम में मुंह पर कैसा छींटा पड़ रहा है, जैसे कोई दूध की धार मुंह पर छींट रहा हो। झूले के साथ देह और देह के साथ हीरामन मन भी कैसे नीचे-ऊपर आ-जा रहा है। जल को ठेलने की तरह ही हवा को भी ठेलते हुए ऊपर जाते समय सीने पर कैसा मीठा-मीठा सा दबाव लगता है, जैसे किसी का हाथ हो- किसका?
परंतु लौटते में पैरों के बीच से उड़ते लुगड़े के बीच की हवा कैसी ठंडी-ठंडी सी, पिंडलियों को, जांघों को थरथरा देती है। कमर तक सब सुन्न सा पड़ जाता है, जैसे रस्सी नहीं थामो, तो बस अभी चू ही पड़ेंगे। और इस उब-चुभ में मन का रसिया हीरामन न जाने कितने नदी-नाले, गांव-कांकड़ संबंधों के औचित्य-अनौचित्य को लांघकर ऐसे-ऐसे सपने देखने लगता है कि किसी को उनकी जरा सी भनक या आहट भी हो जाए, तो फिर कुएं में ही फांदना पड़े। गीत की एक हिलोर ऊपर से नीचे को आती है और फिर हवा के दबाव में थरथराती ऊपर चली जाती है- चालो रे गामड़े मालवे!!! झूले की यह उपकरणहीन मन की उत्सवता अद्र्धचंद्राकार स्थिति में आती है, फिर ऊपर आकाश में फिर कैसे पलटती है।
ऐसी उत्सवता में वन-प्रांतर, नदी-नाले, वनराजियां, पशु-पक्षी, सभी नारी कंठ की इस आकुल रसमयता में अभिषेकित हो जाते हैं। मनुष्य की यह कैसी उत्सव-सुगंध है, जिससे समय की देह भी सुवासित लगती है। श्रावण में अरण्य की भांति आकंठ भीगना और क्या होता है? और श्रावण बीतते न बीतते श्रावण पूर्णिमा आ जाती है। तीज के लिए पीहर आई नवबधुएं पुन: लड़कियां बनी कैसे दुईपाटी के फूल लगती हैं। श्रावण पूर्णिमा के रक्षा बंधन के बाद वे फिर ससुराल लौट जाती हैं। अपने गांव के साथ कन्यात्व कैसा बांधा हुआ है; बाकी कहीं जाओ, बधू तो होना ही है। श्रावण फुहारों का मास है, परंतु भाद्र पद तो झड़ी के लिए ऐसा प्रसिद्ध है कि जैसे सखाराम बुआ की कथा, जिसे सुनते हुए डूबते जाओ।
श्रावण में उपवनों, जलाशयों के किनारे गांठें होती हैं। वैष्णव मंदिरों की हवेलियों के परकोटों से निकलकर ठाकुरजी भी वन-विहार के लिए ताम-झाम से निकल पड़ते हैं। भगवान का या मनुष्य का, किसी का वन विहार के लिए निकलना ही उत्सव है। ठीक ही तो है, श्रावण की वर्षा, वर्षा थोड़े ही होती है, वह तो नेत्रों से देखे जाने का माधव स्पर्श होती है। श्रावण की वर्षा मिथुन-नयनों की ऐसी भाषा होती है, जो आंखों की राह सीधे अंतर को संबोधित करती है और मन में घंटियां टुनटुनाने लगती हैं। ऐसे में नयन मिलते कहां हैं? पलकें तत्काल इन्हें न ढांपें, तो न जाने क्या हो जाए?
फुहारों से छनती आती श्रावणी जंगली हवा पोर-पोर को ऐसे सजग बना देती है, जैसे सारे रोम जिह्वा हो गए हैं। नारी-देह की इस उत्सव-भाषा को आज तक न जिह्वा मिल पाई और न अभिव्यक्ति ही... मन के साथ इस तन को भी भीगने दो। वृक्षों की भांति अपनी देह को भी भीगने देने की उन्मुक्तता, आनंद और सुख कितना अप्रतिम होता है, यह किसी श्रावणी सोमवार के वन-विहार के दिन बहू बनकर ही अनुभव किया जा सकता है।
(लोकभारती से प्रकाशित स्वर्गीय साहित्यकार के ‘उत्तरकथा ’से)