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मुक्ति की गाथा लिख सकते हैं शहर

बरसों बाद गांव में भतवान खाने जा रहा था। भतवान मतलब भात और दाल का भोजन, अधिक से अधिक साथ में आलू का चोखा या भरता और कहीं-कहीं गृहस्वामी की हैसियत के मुताबिक देसी घी। कभी-कभार सजाव दही के दर्शन भी हो...

मुक्ति की गाथा लिख सकते हैं शहर
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीMon, 15 Jul 2019 10:27 PM
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बरसों बाद गांव में भतवान खाने जा रहा था। भतवान मतलब भात और दाल का भोजन, अधिक से अधिक साथ में आलू का चोखा या भरता और कहीं-कहीं गृहस्वामी की हैसियत के मुताबिक देसी घी। कभी-कभार सजाव दही के दर्शन भी हो जाते। भतवान शादी-विवाह के घरों में महिलाओं को दम मारने की फुरसत देने के लिए रखा जाता था। हफ्तों चलने वाली वैवाहिक रस्मों के बीच यह गृहिणियों को थोड़ा आराम दे देता। लड़के वालों के यहां बारात निकलने के एक दिन पहले नातेदारों, पट्टीदारों और व्यवहार वाले परिवारों को भतवान के लिए न्योता जाता। लड़की के घर पर कहीं शादी के एक दिन पहले और कहीं बारात वाले दिन का आयोजन होता। मेरा न्योता जहां था, वहां से दूसरे दिन बारात निकलनी थी। भतवान वाले घर में कई बदलाव मेरा इंतजार कर रहे थे।

सबसे पहले तो इस यथार्थ से साक्षात्कार हुआ कि अब भतवान सिर्फ दाल-भात का भोज नहीं रह गया है। चावल के अतिरिक्त वहां पूड़ी, कचौड़ी और आधे दर्जन से अधिक व्यंजन मेरी पत्तल में परोसे गए। पत्तल भी कहां, उसकी जगह पॉलीथिन चढ़ी एक कागज की प्लेट थी। मेरे जैसे कुछ लोगों के लिए जमीन पर बैठने की जगह कुरसी-मेज की व्यवस्था थी। पहली नजर में ही समझ में आ गया कि पूड़ियां गांव-जवार की महिलाएं नहीं बेल रहीं, बल्कि कोई कैटरर है, जिसके लोगों ने सारा खाना बनाया है। परोसने में जरूर नाते-रिश्ते के लोग लगे थे। भोजन पकाती महिलाओं के न होने से वे गीत भी अनुपस्थित थे, जो अतिथियों को भोजन कराते समय गूंजते रहते थे। अपनी मुश्किल जिंदगी की नीरसता को दूर करने के लिए महिलाओं के पास हर मौके के लायक गीत हैं और उल्लास या विलाप की सामूहिक अभिव्यक्ति के रूप में उनसे हमारा साबका पड़ता रहता है।

गांव में बाजार पूरी तरह से पहुंच चुका है, इसका पहला एहसास तो कैटरर की उपस्थिति से हुआ। पुराना वक्त गया, जब किसी घर में शादी पड़ी, तो नाते-रिश्ते, अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं इकट्ठी होकर पूड़ियां बेलतीं और गीत के स्वरों के साथ टोले-मोहल्ले के लड़के दौड़-दौड़कर उन्हें परोसते। उन दिनों बारात तीन दिन रुका करती थी। उसके रुकने के लिए चारपाई, गद्दा, रजाई, चादर, तकिया, सब अड़ोस-पड़ोस से इकट्ठा होता। बारात वापसी के बाद मांगकर लाए गए सामान लौटाते समय कुछ मनोरंजक विवाद जरूर पैदा होते। पर कैटरर के आते ही इस सामाजिकता का अंत हो गया है।

बहुत सी चीजें खत्म हुई हैं। मसलन, कुएं अब नहीं दिखते। इंडिया मार्का टू नल (चापाकल) ने एक झटके से उसकी जरूरत खत्म कर दी है। पनघट के गीत और उससे जुड़ी शरारतें भी खत्म हो गईं। पता नहीं, अब जब प्यासा बटोही किसी चापाकल के नीचे अंजुरी पसारता होगा, तो हैंडल चलाने वाले के साथ उसका कोई संवाद होता भी है या नहीं? खेती में बैलों का उपयोग खत्म होने के बाद अब गृहस्थ को भोर होने से पहले आकाश में सुकुआ या शुक्र तारा की स्थिति देखकर बिस्तर छोड़़ने की जरूरत नहीं पड़ती। इसीलिए अब सूरज की पहली किरण के साथ कंधे पर हल लिए खेतों की तरफ हड़बड़ाते जाते किसान की छवि भी विलुप्त हो गई है। साप्ताहिक हाट का चलन अब सिर्फ औपचारिकता मात्र है, क्योंकि हर संभव स्थल पर दुकानें खुल गई हैं, जिनमें मल्टी नेशनल कंपनियों के सामान हमेशा उपलब्ध हैं।

यह फैसला करना बड़ा मुश्किल है कि बाजार के इस दखल पर खुश हुआ जाए या दुखी? पनघट के सरस बिंब के पीछे ठाकुर के कुएं का खुरदरा यथार्थ भी छिपा था, जिसमें आप पानी की तलाश में आए दलित को अमानवीय अवस्था में पा सकते थे। चापाकल पानी से उसका रिश्ता मनुष्योचित बनाता है। बाजार के आने से ही संभव हुआ है कि निरंकुश बिरादरी पंचायतें अब किसी का हुक्का-पानी बंद नहीं कर पातीं। गांव के नाई, धोबी या बढ़ई अब सड़कों के किनारे गुमटी लगाकर अपने श्रम का नगद मेहनताना मांग सकते हैं। वे उस अमानवीय प्रथा से मुक्त हो गए हैं, जिसमें साल भर बेगार की तरह ऊंची और समृद्ध मंझोली जातियों की सेवा में खटते थे और फसल कटते समय उनकी दया पर आधारित मजूरी लेकर घर आते थे। मशीनीकरण से सिर्फ खेती-किसानी की सुविधाएं और उत्पादन ही नहीं बढ़े, बल्कि उसकी गति के पीछे के मनुष्य की हैसियत भी बदल गई। मालिक की नजर में गया गुजरा हलवाहा ट्रैक्टर का स्टीर्यंरग संभालते ही ‘ड्राइवर साहब’ बन जाता है। 

गांव की हर यात्रा में पता चलता है कि कुछ नए लोग शहरों की तरफ पलायन कर गए हैं। एक पुराना लोकगीत है- लागल झुलनिया का धक्का बलम कलकत्ता पहुंच गए, अर्थात शादी हुई कि प्रिय को जीविका कमाने के लिए कलकत्ता भागना पड़ा। यह उन दिनों का गीत है, जब लड़कपन में ही विवाह हो जाता था, अर्थात होश संभालने के साथ ही पलायन की नियति से साक्षातकार होता था। आज भी हालात कमोबेश वैसे ही हैं। पहले के लोकगीतों में कलकत्ता (कोलकाता) या बंबई (मुंबई) का जिक्र होता था, आज सूरत, अमृतसर, नोयडा और गुड़गांव (गुरुग्राम) नए केंद्र बन गए हैं, जहां रोजगार की तलाश में नौजवान भाग रहे हैं। ग्रामीण पलायन का अध्ययन करने वाली हिना देसाई का कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों से 80 प्रतिशत से अधिक नौजवानों का पलायन हो चुका है। इनमें सभी जातियों के लोग शरीक हैं। गांवों में आपको सिर्फ बूढ़े, औरतें या बच्चे दिखते हैं। सरकारी आंकड़े भी गवाही दे रहे हैं कि आज शहरी और ग्रामीण आबादी लगभग बराबर हो गई है। यह एक वैश्विक प्रक्रिया है, जिसे हम रोक भी नहीं सकते और शायद रोकना भी नहीं चाहिए।

गांवों के उजड़ने को लेकर बहुत नॉस्टैल्जिक होने की जगह क्या यह उचित नहीं होगा कि हम शहरों की तरफ भाग रहे मनुष्यों के लिए बुनियादी सुविधाओं से युक्त बेहतर रिहाइशी ठिकाने बनाएं? गांवों को नरक बनाने के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार संस्था वर्ण-व्यवस्था से काफी हद तक मुक्त शहरों को अधिक मानवीय बनाया जा सकता है, बशर्ते वे सिर्फ अनियंत्रित भीड़ को राम भरोसे छोड़कर अनियोजित तरीके से खपाने के अड्डे न बनें और राज्य पर्यावरण का ध्यान रखते हुए उन्हें सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं वाली नियोजित बस्तियों के रूप में विकसित करे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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