नई पटकथा में पुराने मसाले
जब मैं छोटा था और हर साल गरमी की छुट्टियों में बीकानेर जाता था, तो उस यात्रा का एक बड़ा आकर्षण हुआ करता था, नानाजी के घर के पास का एक पुराना क्लब हाउस और उसके नजदीक ही कैन्टोन्मेंट इलाका। सिनेमा हॉल...
जब मैं छोटा था और हर साल गरमी की छुट्टियों में बीकानेर जाता था, तो उस यात्रा का एक बड़ा आकर्षण हुआ करता था, नानाजी के घर के पास का एक पुराना क्लब हाउस और उसके नजदीक ही कैन्टोन्मेंट इलाका। सिनेमा हॉल शहर में इक्का-दुक्का ही थे। तो हम सब रिश्ते के भाई-बहनों के लिए महीने में एक-दो बार कैन्टोन्मेंट एरिया या क्लब में कोई फिल्म दिखाई जाती थी। टिकट लगता नहीं था, इसलिए सभी बच्चों को वहां भेज दिया जाता था।
फिल्म तय समय पर शुरू तो हो जाती थी, लेकिन दस-पांच मिनट बाद ही जब कोई बड़ा अधिकारी या उसके घरवाले पहुंचते थे, तो फिल्म को रोककर उसे फिर से शुरू कर दिया जाता था। महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन की कहानी और उसका अंदाज बचपन के उन दिनों की याद दिला रहा है, जब उच्च स्तर के हस्तक्षेप की वजह से फिल्म कभी भी दोबारा शुरू हो सकती थी।
बहरहाल, महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन की घोषणा के बाद, सियासी उठा-पटक का प्रकरण और सरकार बनाने की प्रक्रिया एक तरह से नए सिरे से शुरू हो गई है। एक बार फिर किसी भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार तो बन ही सकती है। भाजपा और शिव सेना की जोड़ी भी दोबारा जम सकती है। मतलब यह कि सारी संभावनाएं दोबारा खुल गई हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि चुनाव में जनता ने भाजपा और शिव सेना गठबंधन को सरकार बनाने के लिए मतदान किया। भाजपा को शिव सेना से करीब दोगुनी सीटें दीं। यानी जनता ने देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनने के पक्ष में वोट डाला। मगर पिछले कुछ वर्षों में बीजेपी के साथ अपने रिश्ते में शिव सेना जिस तरह से अग्रज से अनुज की भूमिका में आने पर मजबूर हो गई थी, यह नया जमीनी यथार्थ उसे पच नहीं रहा था।
जिस पार्टी को पहले उंगली पकड़, फिर अपने पीठ-कंधे पर बिठा बाला साहब ठाकरे और शिव सेना ने महाराष्ट्र में स्थापित किया, वही भाजपा अब शिव सेना के सिर पर तांडव करे, यह उद्धव ठाकरे के लिए नाकाबिल-ए-बर्दाश्त होता जा रहा था। मौके का इंतजार था और चुनावी नतीजों ने उन्हें वह मौका दे दिया। लिहाजा, ढाई साल के लिए शिव सैनिक मुख्यमंत्री की शर्त रख दी गई।
अब इसे आप स्वार्थ की पराकाष्ठा कहें या अव्यावहारिक महत्वाकांक्षा की हद, शिव सेना ने जब अंगद की तरह पांव जमा दिया, तो सर्वशक्तिमान और साधन-संपन्न भाजपा भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाई।
भाजपा-शिव सेना की बारात का घोड़ा ठीक दुल्हन के घर के सामने बिदक गया। इस पूरे प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि पुराने चावल यानी राजनीति में अनुभव का आज भी कोई तोड़ नहीं है। पहले ही चुनाव अभियान के दौरान मूसलाधार बारिश में भीगते हुए जिस तरह शरद पवार ने चुनावी सभा में अपना संबोधन जारी रखा था और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा तलब किए जाने की धमकी को अपने हित में भुना लिया था, उससे साफ हो गया था कि महाराष्ट्र की राजनीति में आज भी शरद पवार से पार पाना बेहद मुश्किल है।
अब यह तो सिर्फ शरद पवार ही बता सकते हैं कि उन्होंने उद्धव ठाकरे को पहले चने की झाड़ पर चढ़ाया, भाजपा से अलग होने और शिव सैनिक मुख्यमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त किया या फिर सियासी घटनाचक्र ही कुछ इस अंदाज में घूमा कि आज भाजपा से रिश्ता तोड़ शिव सेना, शरद पवार और कांग्रेस के सामने कम से कम वह तेवर नहीं दिखा पा रही, जो उसने भाजपा के साथ अपनाए थे।
अब ये तीनों ही दल एनसीपी, कांग्रेस और शिव सेना, एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इनमें से किसी के बिना 145 का जादुई आंकड़ा नहीं छुआ जा सकता। हेकड़ी, अकड़ और जिद भी सबसे ज्यादा शिव सेना की ही थी, इसलिए यथार्थ के धरातल पर सबसे पहले गिरी भी वही है।
अब तीनों दलों के बीच किस तरह से सहमति बनती है, क्या फॉर्मूला ईजाद होता है, शिव सेना को क्या ढाई साल के मुख्यमंत्री के पद की पेशकश की जाएगी, और क्या पहला कार्यकाल शिव सेना को मिलेगा या कांग्रेस-एनसीपी को, ऐसा कौन सा साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनेगा, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी नहीं टूटे, यानी कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि भी बची रह जाए और शिव सेना की हिन्दुत्व भी?
एनसीपी तो बहरहाल इस झंझट और दुविधा से परे है। क्रिकेट की राजनीति में भी बादशाहत कर चुके शरद पवार तटस्थता के पर्याय हैं और परिस्थितियों ने एक बार फिर उन्हें अंपायर का सफेद कोट पहनाकर मैदान में खड़ा कर दिया है।
एक और विषय, जिस पर चर्चा काफी गरम है कि कांग्रेस और शिव सेना कैसे साथ आ सकते हैं? धारा 370, एक साथ तीन तलाक, समान नागरिक संहिता और इन सबसे भी ज्यादा ज्वलंत वीर सावरकर पर दोनों के मत बिल्कुल भिन्न हैं। क्या कहेंगे ये दोनों दल अपने-अपने मतदाताओं को? कांग्रेस का केरल और तमिलनाडु में क्या होगा? मेरा मानना है, ये सारी बातें बेमतलब और बेकार हैं। कांग्रेस आज मरणासन्न न सही, मगर मूच्र्छित हालत में तो है ही। पहली जरूरत है कि इसको ऑक्सीजन मिले, महाराष्ट्र जैसे किसी बड़े राज्य की सत्ता में हिस्सेदारी मिले। जहां तक धर्मनिरपेक्ष लॉबी का प्रश्न है या मुसलमान मतदाताओं की चिंता, तो उन सबको एनपीसी-कांग्रेस-सेना की सरकार बनने पर अपनी छतों पर जाकर तालियां बजानी चाहिए।
अभी सेक्युलर लॉबी के लिए सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी को रोकना है और उसके लिए किसी से भी हाथ मिलाने पर शायद ही इस समय कोई कांग्रेस का विरोध करे। बड़े दुश्मन को मात देने के लिए छोटे शत्रु को साथ लेना ही रण-कौशल है, न कि लड़ते-लड़ते शहीद हो जाना।
एक बात और, जो कल सुबह पार्क में घूमते समय अचानक मिल गए एक बीजेपी नेता ने मुझसे कही। उनका कहना था, ‘आप इस बात पर गौर कीजिएगा कि अब तक नए विजयी विधायकों ने शपथ नहीं ली है और विधानसभा का गठन भी नहीं हुआ है, तो क्या इस स्थिति में दल-बदल कानून लागू होगा?’ इसका सही उत्तर संविधान विशेषज्ञों के पास ही होगा, लेकिन यह तय है कि दोबारा शुरू हुई फिल्म में अभी काफी एक्शन और मसाला बाकी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)