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आडंबर से लड़ती एक संत परंपरा

हिंदी में निर्गुणवादी साधकों में सबसे बड़ा नाम महात्मा कबीरदास का है, किंतु गुरु नानक देव ने निगम धर्म का जो आख्यान किया, वह भी बेजोड़ है। उनका जपुजी नामक ग्रंथ सिखों के बीच उसी प्रकार समादृत है, जैसे...

आडंबर से लड़ती एक संत परंपरा
रामधारी सिंह दिनकर, प्रसिद्ध साहित्यकारTue, 12 Nov 2019 07:22 AM
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हिंदी में निर्गुणवादी साधकों में सबसे बड़ा नाम महात्मा कबीरदास का है, किंतु गुरु नानक देव ने निगम धर्म का जो आख्यान किया, वह भी बेजोड़ है। उनका जपुजी नामक ग्रंथ सिखों के बीच उसी प्रकार समादृत है, जैसे हिंदुओं के बीच गीता  और बौद्धों के बीच धम्मपद। और जपुजी  का पाठ केवल सिखों तक सीमित नहीं है, बहुत-से हिंदू भी बड़ी श्रद्धा के साथ इस धर्मग्रंथ का पाठ करते हैं। जपुजी  की रचना शैली भी अद्भुत है। 

गुरु नानक देव उच्च कोटि के कवि और पहुंचे हुए संत ही नहीं थे, उनका सामाजिक आचार भी क्रांतिकारी और मनुष्य-मनुष्य के बीच समता का समर्थक था। मनुष्य का मूल्यांकन उसके धन, कुल और विद्या को देखकर नहीं, बल्कि उसके पवित्र भाव और निष्कलुष कर्म को देखकर करना चाहिए, यह गुरु नानक देव की शिक्षा थी और यह बात वह केवल कहकर ही नहीं समझाते थे, बल्कि करके भी दिखाते थे।

यह भी प्रसिद्ध है कि गुरु नानक देव अपने शिष्य मरदाना के साथ जब सैयदपुर गांव गए, वे लालो नामक एक बढ़ई के घर ठहरे थे। उन्हें एक शूद्र के घर की रोटी खाते देखकर गांव के ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच एक हलचल-सी मच गई। ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने उनसे निवेदन किया कि आप लालो के यहां से उठकर भागो के घर ठहरिए, क्योंकि वह गांव का जमींदार है और साधुओं की सेवा भी करता है। गुरु नानक देव ने इस निवेदन को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि ‘लालो गरचे गरीब है, मगर उसकी रोटी में दूध ही दूध है, क्योंकि यह उसके पसीने की कमाई की रोटी है। तुम्हारे जमींदार मालिक भागो की रोटी में यह स्वाद और पवित्रता कहां से आएगी? वह तो जुल्म की कमाई की रोटी है, जो खून से सनी हुई है।’

सदियों से गुरु नानक के बारे में जो जनश्रुतियां प्रचलित रही हैं, उनसे मालूम होता है कि वह धर्म के बाहरी आडंबर और उसके ढकोसलों को महत्व नहीं देते थे। वह अंधविश्वास के शत्रु थे और लोगों की आंख में उंगली डालकर उन्हें यह समझाना चाहते थे कि जिसे हम धर्म कहते हैं, उसका संबंध आत्मा और परमात्मा से होता है, खान-पान, छुआछूत से उसका कोई सरोकार नहीं है। 

एक बार गुरु नानक देव हरिद्वार गए। वहां उन्होंने देखा कि बहुत-से लोग पूरब मुंह करके खड़े हो अपने पितरों का तर्पण कर रहे हैं। गुरु के मन में यह बात आई कि इन अंधविश्वासियों को कोई शिक्षा दी जाए। वह पश्चिम मुंह करके खड़े होकर तर्पण करने लगे। लोगों को यह देखकर बड़ा कौतुक हुआ। उन्होंने कहा, ‘महाराज, पितरों को तो जल पूरब मुंह खड़ा होकर दिया जाता है, आप पश्चिम मुंह खड़े हो किसका तर्पण कर रहे हैं?’

गुरु नानक देव ने कहा, ‘मैं पछांह से आया हूं। वहां मेरा एक खेत है। कुछ पता नहीं कि पानी वहां बरसा है या नहीं, अतएव पश्चिम मुंह खड़ा होकर मैं अपने खेतों में पानी पटा रहा हूं।’ लोगों ने अचरज में पूछा, ‘आदमी तो आप काफी उम्र के हो गए, मगर आप यह भी नहीं समझ पाते कि तर्पण करने से पानी उस खेत में नहीं पहुंचेगा, जो यहां से सैकड़ों कोस दूर है।’

गुरु ने कहा, ‘तो तुम्हारा उपदेश मैं तुम्ही को वापिस करता हूं। अगर तर्पण का जल मेरे खेत में नहीं पहुंच सकता, जो इसी धरती पर है, तो तुम्हारा दिया हुआ जल तुम्हारे उन पितरों तक कैसे पहुंचेगा, जो परलोक में हैं?’ लोग निरुत्तर रह गए और उनमें से कई उसी समय गुरु नानक देव के शिष्य हो गए।

निर्गुण संप्रदाय के सभी संत संन्यास और गृहस्थ के बीच की दूरी समाप्त करना चाहते थे। यह धर्म का निचोड़ जुगाने का प्रयास था। धर्म यदि धर्म हो, तो संन्यासी और गृहस्थ, दोनों को वह समान रूप से सुलभ होना चाहिए, उसकी उपासना केवल मंगलवार, रविवार या शुक्रवार को नहीं, बल्कि हर रोज और हर समय की जानी चाहिए, और उसकी साधना का स्थान केवल मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारा ही नहीं, बल्कि चमडे़ की वह दुकान भी होनी चाहिए, जहां मोची बैठकर जूते गांठता है। पोशाक के बारे में गुरु कट्टर नहीं थे। कभी वह हिंदू योगियों के समान रहते थे, कभी मुस्लिम कलंदर के समान। वह इच्छानुसार चंदन और माला भी धारण करते थे।

जब वह बगदाद घूमने गए, तब उनका भेष सूफियों जैसा था। लेकिन जब वे सर्वत्र घूम-घामकर करतारपुर में जा बसे, उन्होंने गृहस्थ की पोशाक धारण कर ली। इसी पोशाक में एक दिन वह शेख फरीद की दरगाह पर गए। उस समय इस दरगाह के महंत शेख ब्रह्म थे। उन्होंने गुरु नानक को गृहस्थ की पोशाक में देखकर कहा, ‘आदमी के लिए लाजिम है कि या तो वह खुदा की ख्वाहिश करे या दुनिया की फिक्र। दो नावों में पांव रखना ठीक नहीं है। इससे आदमी दरिया में गर्क हो सकता है।’

गुरु नानक शेख ब्रह्म की आलोचना को ताड़ गए और बोले, ‘हम दोनों नावों से एक साथ काम क्यों न लें? मसलन, एक में हम अपना असबाब रखें और दूसरी में अपनी आत्मा। ऐसे आदमी के लिए बर्बादी और नुकसानी है ही नहीं। क्योंकि उसे न तो नाव दिखाई पड़ती है, न दरिया का जल दिखाई पड़ता है। वह तो सिर्फ परमेश्वर के माल की रखवाली करता है।’ शेख ब्रह्म यह उत्तर सुनकर लज्जित हो गए। अचानक उन्हें अपनी आध्यात्मिक समस्या का ध्यान आया और विलाप के स्वर में बोले, ‘जब नाव बनाने का वक्त था, मैंने नाव नहीं बनाई। अब तो नदी में बाढ़ उठ रही है। मैं पार कैसे जाऊंगा?’

गुरु नानक देव ने दिलासा देते हुए शेख ब्रह्म से कहा, ‘नाव तो साधना और समाधि की होती है। इस नाव पर चढ़कर नदी के पार जाना आसान है। जिनके पास ऐसी नाव है, नदी की बाढ़ उन्हें दिखाई नहीं देती और वे सकुशल पार हो जाते हैं।’

आधुनिकता की मांग है कि धर्म प्रवृत्ति मार्गीय हो। गुरु नानक का विश्वास प्रवृत्ति-मार्ग में था। आध्यात्मिक सिद्धि के लिए उपवास, तितिक्षा और देह-दंडन की प्रक्रिया को वे उचित नहीं समझते थे। शेख ब्रह्म (यानी शेख इब्राहीम) से उन्होंने कहा, ‘जीवन की जो साधारण आवश्यकताएं हैं, उनसे शरीर को वंचित रखना पाप है। सुखों के प्रति मनुष्य में आसक्ति नहीं होनी चाहिए, किंतु शरीर धारण करने के लिए भगवान जो कुछ भेजें, उसे स्वीकार करना ही चाहिए। शरीर को भूखों मारने से आध्यात्मिक सिद्धि नहीं प्राप्त होती।’
(गुरु नानक  किताब में प्रकाशित लेख के संपादित अंश)

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