कुछ यादों को भूलना बेहतर
अयोध्या भूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार फैसला सुना दिया। अयोध्या विवाद और धार्मिक विभाजन इस देश को महंगा पड़ा है। यह अहम है कि इस फैसले से उपजे तनाव घीरे-धीरे घट जाएं और याचिकाओं की कोई नई फसल...
अयोध्या भूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार फैसला सुना दिया। अयोध्या विवाद और धार्मिक विभाजन इस देश को महंगा पड़ा है। यह अहम है कि इस फैसले से उपजे तनाव घीरे-धीरे घट जाएं और याचिकाओं की कोई नई फसल फिर सामने न आए। अत: इस विवाद और उससे जुड़े तमाम जज्बातों को कारगर ढंग से जल्द से जल्द भूल जाने की जरूरत है।
चिकित्सा इतिहास में सोलोमॉन शेरेशेवस्की नामक एक शख्स का मामला आता है, जो कुछ भी भूल नहीं पाता था। मिसाल के लिए, वह कुछ दिनों पहले पढ़ी किताब के एक-एक अक्षर सुना सकता था। जाहिर है, कोई भी यही सोचता कि एक दिन वह विलक्षण विद्वान बनेगा, जबकि इसके उलट हुआ। उसके दिमाग में भरी सूचनाओं के बेहिसाब अंबार ने उसकी ज्ञान-संबंधी क्षमता को बिगाड़ दिया।
हममें से बहुत से लोग यह सोच भी नहीं सकते कि भूलना इंसानी दिमाग की सबसे कुशल प्रक्रियाओं में से एक है। हमारी याददाश्त व्यवस्था उन सूचनाओं को लगातार खारिज कर रही होती है, जो हमारे भविष्य के उपयोग के लिए आवश्यक नहीं हैं। अध्ययनों से पता चला है कि हमारे मस्तिष्क में भूलने की एक अभिन्न प्रक्रिया होती है, जिसे हेडोनिक अनुकूलन कहा जाता है। यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, जिसकी मदद से कोई शख्स अपनी जिंदगी की सबसे सकारात्मक और सबसे नकारात्मक चीजों से मुकाबला करता है।
भूलने की आम प्रक्रिया की वजह से ही सबसे सकारात्मक या सबसे नकारात्मक घटनाओं का हमारे दैनिक फैसलों पर कम प्रभाव पड़ता है। यह बात नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाच्युसेट्स के शोधकर्ताओं के एक अध्ययन से साबित हुई है। उन्होंने उन लोगों की खुशी के स्तर का अध्ययन किया, जिनके नाम बड़ी लॉटरी निकली थी और उन लोगों के दुख का अध्ययन किया, जो त्रासद दुर्घटनाओं के कारण अपाहिज हो गए थे। कुल मिलाकर, न तो लॉटरी जीत ने खुशी को इतना बढ़ाया था, जितना शोधकर्ताओं ने सोचा था और न विनाशकारी घटना से पीड़ित उतने प्रभावित हुए थे, जितनी आशंका थी।
मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट पफ ने साइकोलॉजी टुडे में लिखा है, ‘जब एक बड़ी घटना होती है, लॉटरी जीतना हो या लकवाग्रस्त होना, हमारा मानसिक थर्मोस्टेट अस्थाई रूप से ऊपर या नीचे जा सकता है, लेकिन समय के साथ यह अपनी सामान्य स्थिति में लौट जाता है।’ लेकिन अयोध्या मामले में भूलना इतना आसान नहीं हो सकता।
अयोध्या मुद्दा एक धार्मिक पहचान के बारे में बहुत कुछ कहता है। इसके इर्द-गिर्द भावनाएं मजबूत हैं। धर्म किसी की पहचान का सबसे मजबूत निर्णायक होता है। इस मामले से जुड़ी मुकदमेबाजी के दौरान अनेक धार्मिक नेताओं और राजनीतिक दलों ने अपनी सामूहिक पहचान बनाने के लिए धार्मिक पहचान का खूब इस्तेमाल किया। इस दौरान आंतरिक और बाह्य समूह भी बनाए गए। आंतरिक समूह (जो हमारे समान हैं) को स्वीकार और बाह्य समूह (जो हमारे खिलाफ हैं) को अस्वीकार करने की मजबूत विशेषता मानव के विकास के दिनों से रही है। इसलिए भारतीय समाज में इस मामले ने जो विभाजन गढ़े हैं, वे अन्य मामलों के विभाजनों से बहुत गहरे हैं।
अगर भारत में आम आदमी को अयोध्या मुद्दे को भूलना है, तो एक मजबूत वैकल्पिक पहचान बनाने की जरूरत है। एक ऐसी पहचान जरूरी है, जो धीरे-धीरे किसी की धार्मिक पहचान को कम करने में मदद करे। एक राष्ट्रीय पहचान बनाना तमाम धर्मों के बीच की खाई को पाटने का लंबा रास्ता तय करना है।
नई पहचान का एक बेहतरीन उदाहरण यूरोपीय संघ है, जहां मानव इतिहास में सबसे विध्वंसक दो युद्ध लड़ने वाले देश भी एक साथ आ गए। लेकिन धार्मिक पहचान पर हावी होने के लिए राष्ट्रीय पहचान का उपयोग एक धीमी प्रक्रिया है। यह पहचान रेत पर लिखे संदेश की तरह है। हर बार समुद्र की लहर किनारे तक आती है और हर बार रेत पर लिखा हुआ कुछ-कुछ मिटता जाता है और अंतत: सब मिट जाता है।
यह भी अहम है कि अयोध्या मुकदमे की पिछली यादों को फिर से हवा देने की किसी भी कोशिश से बचा जाए। किसी के द्वारा ऐसा कोई बयान या ऐसी कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, जो उन्हें शर्मिंदा करती हो, जिनमें कुछ खोने का एहसास पैदा हुआ है। अंतत: वक्त या समय ही किसी भयावह घटना के बारे में किसी व्यक्ति के दर्द को कम करता है।
इंसानी दिमाग से बुरी यादों को भुलाने के लिए हस्तक्षेप भी एक अहम रणनीति है। मिसाल के लिए, इस प्रक्रिया में रेत पर लिखे संदेश को लहरें नहीं मिटातीं, बल्कि उन संदेशों पर कोई नया संदेश लिख जाता है, जिससे पुराने संदेश को पढ़ने में मुश्किल होने लगती है। बुरे संदेश पर ही दो-तीन अच्छे संदेश लिख दिए जाएं, तो बुरे संदेश को पढ़ना नामुमकिन होता जाता है।
यह भी एक शानदार संयोग है कि अयोध्या मामले पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उसी दिन आया, जब भारत और पाकिस्तान ने सिख तीर्थयात्रियों के लिए करतारपुर गलियारा खोला। करतारपुर गलियारे का उद्घाटन एक ऐसी घटना है, जो शत्रुतापूर्ण राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान की मौजूदा यादों में सकारात्मक हस्तक्षेप करने में मदद करेगी। हमें अयोध्या विवाद के बारे में मौजूदा यादों में हस्तक्षेप करने के लिए कई समान हस्तक्षेप करने की जरूरत है।
हमारे देश में कई धार्मिक उत्सव हैं, जो धर्मों के बीच मेलजोल की मिसाल हैं। नजीर के लिए, ऐसे धार्मिक उत्सव हैं, जहां उत्सव के लिए दीपक जलाने का तेल दूसरे धर्म के बुजुर्गों की ओर से आता है। अयोध्या में भी धर्मों के बीच परस्पर सहयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अयोध्या में एक स्मारक भी होना चाहिए, जो इस देश की धार्मिक एकता को दर्शाता हो। जो कथित विजयी पक्ष है, वह दूसरे पक्ष तक अपनी पहुंच बढ़ाए, तो यह कोशिश भविष्य के लिए तालमेल भरे रिश्ते बनाने में मदद करेगी। इसमें कोई शक नहीं कि अयोध्या मामले को भारतीय जितनी तेजी से भूल जाएंगे, भविष्य में भारत की यात्रा उतनी ही सुगम होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)