राष्ट्रवाद की एक बुनियाद बने ओलंपिक
हर चार साल में भारत निशानेबाजी की बारीकियों और पिस्तौल, राइफल, ट्रैप व स्कीट के बीच के अंतर से परिचित होता है। ऐसा निशानेबाजी के प्रति उसके प्यार के कारण नहीं होता, बल्कि निशानेबाजों पर टिकी...
हर चार साल में भारत निशानेबाजी की बारीकियों और पिस्तौल, राइफल, ट्रैप व स्कीट के बीच के अंतर से परिचित होता है। ऐसा निशानेबाजी के प्रति उसके प्यार के कारण नहीं होता, बल्कि निशानेबाजों पर टिकी उम्मीदों की वजह से होता है कि वे एक दुर्लभ चीज लाएंगे, जो है ओलंपिक पदक। यह कहना गलत नहीं होगा कि हाशिये पर पड़े खेलों को ओलंपिक पदकों से काफी ऊर्जा मिलती है। यह स्थिति कई देशों की है, उस चीन की भी, जिसने खिलाड़ियों की सफलता को अपने राष्ट्रवाद का स्तंभ बनाया और पूरी दुनिया में जगह बनाई। पुराने दौर में रूस ने भी यही किया था।
खेल और राष्ट्रवाद के बीच का संबंध काफी पुराना है। यह ओलंपिक संस्थापक पियरे डी कुबर्टिन के मत के बिल्कुल विपरीत है, जिनका मानना था कि प्रतिस्पद्र्धा करें, फिर चाहे आपको उसमें जीत मिले या न मिले। जॉर्ज ऑरवेल ने शायद अतिशयोक्ति की थी, जब उन्होंने शीत युद्ध के संदर्भ में खेल को ‘वार माइनस द शूटिंग’ कहा था, जिसका भावार्थ है- बिना गोलीबारी वाली वैश्विक जंग। हालांकि, एरिक हॉब्सबॉम यह उचित ही लिखते हैं कि ग्यारह नामित खिलाड़ियों की टीम लाखों लोगों के किसी समुदाय, समाज, देश से कहीं अधिक वास्तविक लगती है। टीम को हम प्रतिनिधि रूप में देखते हैं।
कुछ शुरुआती ओलंपिक खेलों में ऐसे प्रतिभागी भी थे, जो जरूरी नहीं कि अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हों, लेकिन जल्द ही देश का प्रतिनिधित्व करना नियम बन गया। जाने-माने खेल इतिहासकार एलन बैरनर ने लिखा है, खेल किसी भी अन्य सामाजिक गतिविधियों की तुलना में कहीं अधिक ध्वजा लहराने और राष्ट्रगान बजाने की सुविधा प्रदान करता है। यह ओलंपिक खेलों के लिए विशेष रूप से सच है। मुकुल केसवन के शब्दों में कहें, तो ओलंपिक ने खेल और राष्ट्र की निरंतर पहचान का बीड़ा उठा रखा है।
यह बात रविवार को खत्म हुए ओलंपिक खेलों में बैडमिंटन पुरुष युगल के फाइनल में भी साफ-साफ दिखी, जब ताइवान की जोड़ी चीन के खिलाफ मुकाबिल थी। इसमें ताइवानी खिलाड़ी अपने ध्वज नहीं, बल्कि चीनी ताइपे के झंडे तले मुकाबला कर रहे थे। दर्शकों में जो कोई भी ताइवान का झंडा लहराता दिखता, उसे या तो बाहर निकाल दिया जाता या फिर उसका झंडा जब्त कर लिया जाता था। मुकाबले में चीनी ताइपे की जोड़ी भारी पड़ी और इस जीत को कई ताइवानियों ने विश्व समुदाय में ताइवान की अंतरराष्ट्रीय स्थिति की स्वीकारोक्ति के रूप में देखा। ताइवानी राष्ट्रपति ने तो बाकायदा सोशल मीडिया पोस्ट लिखा कि इस जीत ने मुल्क को एकजुट कर दिया है।
राष्ट्रवादी नजरिये से जीत को परिभाषित करने का यह कोई एकमात्र उदाहरण नहीं है, बल्कि ओलंपिक खेल ऐसे अनेक उदाहरणों से भरे पड़े हैं। साल 1980 के मॉस्को व साल 1984 के लॉस एंजिल्स ओलंपिक खेलों के दौरान शीत युद्ध के दौर में बहिष्कार जैसी कार्रवाइयां तस्दीक करती हैं कि खेलों के ईद-गिर्द किस कदर राजनीति होती रही है।
बहरहाल, भारत सहित ज्यादातर देशों की पदक-तालिका में अपनी स्थिति मजबूत बनाने की नीयत काफी हद तक राष्ट्रवादी प्रवृत्ति और वैश्विक मंच पर प्रभावशाली बनने की महत्वाकांक्षा से जुड़ी है। पुराने जमाने में सोवियत संघ और सोवियत गुट के कुछ सदस्यों ने व्यवस्थित रूप से ऐसा ही किया था। आज के समय में चीन ने भी यही रास्ता दिखाया है। भारत के विपरीत, जिसने आजादी से पहले हॉकी में सोना जीता था, चीन ने अपना पहला सोना 1984 के खेलों में जीता, जब वह ओलंपिक में फिर से शामिल हुआ था। तब से यह देश तेजी से आगे बढ़ा है और 2008 के बीजिंग ओलंपिक में ही 48 सोना जीतकर अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी अमेरिका से आगे निकल गया था। चीन बाद के ओलंपिक खेलों में भी शीर्ष स्थान के लिए अमेरिका के साथ होड़ लगाता दिखा है। माओत्से तुंग हमेशा खेल और राष्ट्रवाद के बीच गहरा रिश्ता बताते रहे। 2001 में बीजिंग को 2008 के खेलों की मेजबानी के लिए चुने जाने के बाद से ही चीन ने पदकों का पीछा करना शुरू कर दिया था। चीन की सरकार ने ‘प्रोजेक्ट-119’ के तहत अपने बच्चों को चैंपियन बनाने के लिए 3,000 से भी अधिक अकादमियों में अरबों डॉलर निवेश किए। इसका नाम प्रोजेक्ट-119 इसलिए रखा गया था, क्योंकि उस समय जल क्रीड़ा और एथलेटिक्स में 119 पदक जीतने का लक्ष्य रखा गया था। दो चीनी इतिहासकारों ने बताया है कि स्वर्ण पदक को लेकर चीन की भूख ने चीनी एथलीटों पर भारी सियासी बोझ डाल दिया, जिनका मिशन था, चीन की छवि को सुधारना और राष्ट्र के पुनरोद्धार के लिए लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना।
भारत ने आजादी के शुरुआती वर्षों में खेलों को लेकर अलग नीति अपनाई थी। 1951 के दिल्ली एशियाई खेलों में जवाहरलाल नेहरू के संबोधन में भले ही डे कुबर्टिन के आदर्शों की ध्वनि निकल रही थी, जब उन्होंने कहा था कि खेल प्रतियोगिताएं मैत्रीपूर्ण प्रतिद्वंद्विता विकसित करने के लिए अच्छी हैैं और प्रत्येक खिलाड़ी को इसमें अपनी भूमिका शालीनता से निभानी चाहिए, लेकिन तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है। हाल के वर्षों में तो भारत सरकार और उद्योग जगत, दोनों ने अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में देश के प्रदर्शन को सुधारने के लिए काफी पैसे लगाए हैं। हालांकि, भारत की खेल नीति के कुछ अन्य पहलू भी हैं। बेशक, इसका खेल के बुनियादी ढांचे के विकास और खेल व स्वास्थ्य सुविधाओं तक बच्चों की बेहतर पहुंच पर बहुत असर नहीं पड़ा हो, लेकिन इसने हमारे खेल प्रदर्शन को काफी अधिक सुधारा है, भले ही हमें पदक के मामले में अभी पीछे रहना पड़ रहा है।
पिछले एक दशक में भारत में भी खेल राष्ट्रीय गौरव, वैश्विक रुतबे का विषय बना है। भारत ओलंपिक की मेजबानी हासिल करने के प्रयासों में लगा है। यही कारण है कि इस साल ओलंपिक में टोक्यो से भी बेहतर प्रदर्शन की इच्छा जताई गई थी। इसने किसी खिलाड़ी की सफलता में आत्म-गौरव और उनकी हार पर सामूहिक निराशा पैदा की, फिर चाहे वह विनेश फोगाट का ही मामला क्यों न हो। वास्तव में, विनेश फोगाट की अयोग्यता को राष्ट्रीय आपदा के रूप में देखने जैसी प्रतिक्रिया भारत में खेलों के प्रति बढ़ते प्रेम के साथ ही राष्ट्रवाद व ओलंपिक के संबंधों का ही एक रूपक है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)