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अस्सी साल से उलझी एक गुत्थी

कौन थी वह रहस्यमयी, गौरांगी, एकांतवासिनी महिला, जो इलाहाबाद शहर के बाहरी इलाके में एक फ्लैट लेकर अकेली रह रही थी और जिस पर उत्तर प्रदेश पुलिस की सीआईडी नजर रखे हुए थी? सीआईडी के दस्तावेजों में उसे...

अस्सी साल से उलझी एक गुत्थी
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीWed, 09 Oct 2019 12:16 AM
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कौन थी वह रहस्यमयी, गौरांगी, एकांतवासिनी महिला, जो इलाहाबाद शहर के बाहरी इलाके में एक फ्लैट लेकर अकेली रह रही थी और जिस पर उत्तर प्रदेश पुलिस की सीआईडी नजर रखे हुए थी? सीआईडी के दस्तावेजों में उसे 'मिस्टीरियस लेडी ऑफ द फ्लैट' यानी फ्लैट वाली रहस्यमयी महिला के रूप में दर्ज किया गया था। 22 जनवरी, 1932 की उस ठिठुरती रात भी एक खुफिया कांस्टेबल आधी रात के करीब गश्त लगाता हुआ उस फ्लैट के सामने से गुजरा। 

पहली नजर में तो सब कुछ सामान्य सा लग रहा था, पर अचानक कुछ हरकत देख वह ठिठककर खड़ा हो गया। अंधेरे में एक छाया सी हिल रही थी और पहली मंजिल के उस फ्लैट की तरफ बढ़ रही थी। अजनबी ने हल्के से दस्तक दी, दरवाजा फौरन खुला, जैसे अंदर कोई इसी का इंतजार कर रहा था। खुफिया सिपाही चुपचाप अपनी जगह से हिला। थोड़ी दूर तो वह बेआवाज पैदल चला, फिर एकदम उछलते हुए अपनी साइकिल पर सवार हुआ और तेजी से उस बंगले की तरफ लपका, जो सीआईडी के एसपी पिल्डिच का निवास था। पिल्डिच को शायद इसी पल का इंतजार था। उसने एक सिपाही पुलिस लाइन्स की तरफ अतिरिक्त फोर्स के लिए दौड़ाया और खुद तैयार होने लगा। 

भोर फूटने के पहले पिल्डिच सदल-बल रहस्यमयी के फ्लैट के दरवाजे पर था। खटखटाने पर दरवाजा खुला जरूर, पर अंदर घुसने के लिए उन्हें बल प्रयोग करना पड़ा। अंदर थोड़ी देर की गोलीबारी के बाद जो व्यक्ति उनके हाथ लगा, उसका परिचय जानने के बाद तो पिल्डिच उछल पड़ा। क्रांतिकारियों के बीच और खुद सीआईडी की फाइलों में वायरलेस के नाम से जाने जाने वाले इस शख्स को बाद में हिंदी समाज ने यशपाल के रूप में पहचाना, जिन्होंने अपने कालजयी उपन्यास झूठा सच व दर्जनों कहानियों के माध्यम से एक प्रगतिशील लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाई। 

पुलिस को यशपाल उर्फ वायरलेस की तलाश 30/31 दिसंबर 1929 की  रात वायसराय की ट्रेन को दिल्ली-मेरठ सीमा पर बारूदी विस्फोट से उड़ाने के प्रयास के सिलसिले में थी। बाद में साक्ष्य के अभाव में वायसराय की ट्रेन उड़ाने के प्रयास का मुकदमा तो नहीं चला, पर यशपाल को पुलिस अधिकारी पिल्डिच की हत्या के प्रयास में लंबी अवधि के लिए सजा हुई।

गिरफ्तारी के लगभग एक साल पहले इलाहाबाद में ही एक ऐसी घटना हुई, जिसमें यशपाल का नाम खराब अर्थों में घसीटा जाता रहा और उन्हें अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक सिंहावलोकन  में उसका जवाब देना पड़ा। 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी के कमांडर चंद्रशेखर आजाद एक पुलिस मुठभेड़ में मारे गए। यह स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे अहिंसात्मक आंदोलन के समांतर हिंसा को जायज मानने वाले क्रांतिकारी आंदोलन के लिए सबसे बड़ा आघात था। इस धारा के दूसरे बडे़ योद्धा भगत सिंह उन दिनों फांसी की सजा पाकर लाहौर की जेल में बंद थे और आजाद किसी सशस्त्र कार्रवाई से उन्हें छुड़ाने के प्रयास में लगे थे। 

आजाद की मृत्यु से न सिर्फ यह संभावना खत्म हो गई, वरन उत्तर भारत में क्रांतिकारियों का सबसे बड़ा संगठन भी छिन्न-भिन्न हो गया। बहुतों को शक था कि आजाद की अल्फ्रेड पार्क में उपस्थिति की मुखबिरी वीरभद्र तिवारी ने की थी। वीरभद्र यशपाल के दोस्त थे और एक बार जब पार्टी ने अनुशासन तोड़ने के आरोप में यशपाल के लिए मृत्युदंड का फैसला लिया, तो वीरभद्र ने ही यशपाल को सतर्क कर दिया और छिपकर उन्होंने अपनी जान बचाई थी। सिंहावलोकन  में यशपाल ने उल्लेख भी किया है कि आजाद समेत पार्टी के बहुत से साथी वीरभद्र पर शक करते थे। शक इतना गहरा था कि आजाद की शहादत के बाद क्रांतिकारियों द्वारा कई बार उसकी जान लेने की कोशिश की गई। 

व्यक्तिगत दिलचस्पी के कारण मैं इस विषय पर उपलब्ध सामग्री पढ़ता रहा, पर कभी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका। हाल में एक पूर्व पुलिस अधिकारी व साहित्यकार शैलेंद्र प्रताप सिंह के निजी संग्रह से तत्कालीन यूनाइटेड प्रॉविन्स के आईजी पुलिस एसटी कॉलिन्स के संस्मरणों की पुस्तक नो टेन कमांडमेंट्स  पढ़ने को मिली। दिलचस्प विवरणों और रोचक शैली के साथ यह पुस्तक पाठकों को बांधे रखती है। यह उल्लेखनीय है कि ढेर सारे आईसीएस (आजादी के बाद आईएएस) या आईपी (आजादी के बाद आईपीएस) अफसरों ने, जो अमूमन अंग्रेज होते थे, भारत आकर न सिर्फ यहां की भाषाएं सीखीं, वरन यहां के रीति-रिवाजों, वनस्पतियों, इतिहास व भाषाशास्त्र जैसे क्षेत्रों में अद्भुत काम किया। एक ही बैच के आईसीएस अधिकारियों जॉर्ज ग्रियर्सन, विन्सेंट स्मिथ और डब्ल्यू एच लॉरेन्स के भारत के भाषा सर्वेक्षण, प्राचीन भारतीय इतिहास और कश्मीर के इतिहास पर किए गए अकादमिक काम मील के पत्थर सिद्ध हुए हैं। यहां जॉर्ज ऑरवेल का उल्लेख जरूरी है, जो कॉलिन्स की ही तरह आईपी अफसर थे और जिनके उपन्यास 1984 ऐंड एनिमल फार्म  विश्व साहित्य की धरोहर हैं। 

कॉलिन्स के लेखन को उपरोक्त अधिकारी लेखकों के समकक्ष तो नहीं रखा जा सकता, पर यह पुस्तक अपनी वस्तुपरकता व रोचक विवरणों से पाठकों को बांधे रखती है। खासतौर से फ्लैट की रहस्यमयी महिला का मर्मस्पर्शी चित्रण आपको कहीं बहुत गहरे छू लेता है। पादरी आयरिश पिता और अंगरेज मां की पुत्री एक भारतीय मुसलमान वकील के प्रेम में पड़कर इस्लाम कबूल करती है, भारत आकर अपनी रूढ़िवादी ससुराल के परदे समेत दूसरी पाबंदियों से ऊबकर घर छोड़कर चली जाती है और थियोसोफिकल सोसाइटी की सदस्य बन जाती है। इसी बीच, इलाहाबाद के क्रॉस्थवेट गल्र्स स्कूल में अध्यापिका बन क्रांतिकारियों के संपर्क में आती है। उसके घर से यशपाल पकडे़ गए और काफी गोला-बारूद बरामद हुआ। उसे दो साल की सजा हुई, पर एक साल बाद जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई। आजाद या दूसरे क्रांतिकारियों का जिक्र कॉलिन्स ने हमेशा सम्मान के साथ किया है। आजाद की शहादत का उनका विवरण, यशपाल के सिंहावलोकन  व उत्तर प्रदेश पुलिस के गोपनीय दस्तावेजों को यदि कोई गंभीर शोधार्थी तटस्थ अन्वेषण करे, तो शायद 80 साल पुरानी यह गुत्थी सुलझ सकती है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे जाज्वल्यमान नक्षत्र चंद्रशेखर आजाद की शहादत का जिम्मेदार कौन था? 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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