दक्षिण बनाम उत्तर का अर्थशास्त्र
दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए 15वें वित्त आयोग की सिफारिशें एक क्षोभकारी कदम के रूप में सामने आई हैं, क्योंकि आयोग ने उनको हस्तांतरित होने वाले धन में एक प्रतिशत अंक की कटौती की अनुशंसा की है।...
दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए 15वें वित्त आयोग की सिफारिशें एक क्षोभकारी कदम के रूप में सामने आई हैं, क्योंकि आयोग ने उनको हस्तांतरित होने वाले धन में एक प्रतिशत अंक की कटौती की अनुशंसा की है। प्रारंभिक अनुमानों के मुताबिक, इससे दक्षिणी राज्यों का काफी नुकसान होगा और वे केंद्र से आवंटित धन में कुल मिलाकर दो प्रतिशत अंक गंवा बैठेंगे। दक्षिणी राज्यों में भी इससे कर्नाटक के सबसे अधिक प्रभावित होने की आशंका है, जबकि तमिलनाडु को मामूली-सा, यानी 0.17 प्रतिशत का फायदा होगा। वहीं बिहार, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों को इससे सबसे अधिक फायदा मिलने की संभावना है।
वित्त आयोग का गठन पांच वर्षों के लिए किया जाता है, जो विभाज्य पूल से केंद्र और राज्यों के बीच करों के आवंटन की मात्रा की सिफारिश करता है। 14वें वित्त आयोग ने यह दलील देते हुए कि राज्यों का अपने वित्तीय संसाधन पर अधिक नियंत्रण होना चाहिए, इस पूल में राज्यों की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 फीसदी कर दी थी। लेकिन छह वर्षों के कार्यकाल के लिए गठित 15वें वित्त आयोग ने यह कहते हुए राज्यों की हिस्सेदारी घटाकर 41 प्रतिशत कर दी है कि हाल ही में गठित जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित क्षेत्रों की सुरक्षा एवं अन्य विशेष जरूरतों के लिए केंद्र को इस संसाधन की जरूरत है।
अनेक वर्षों से सरकार कर-आधार के विस्तार की बात करती रही है, लेकिन वास्तव में वह ऐसा करने में सफल नहीं हो पा रही। समस्याएं अब इसलिए अधिक बढ़ गई हैं, क्योंकि अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है और इसके अनेक संकेतक इस बात की पुष्टि कर रहे हैं। जीडीपी में केंद्रीय राजस्व के 13 प्रतिशत रहने का अनुमान है। यदि राज्यों को इसमें शामिल कर लिया जाए, तो यह 48 प्रतिशत हो जाता है। दक्षिणी राज्य 14वें वित्त आयोग की शर्तों को लेकर ही आंदोलित थे। उनकी दलील थी कि ये शर्तें उनके हितों के खिलाफ हैं। अब 15वें वित्त आयोग में उनकी शिकायतों को दूर करने की बात तो छोड़िए, उन्हें महसूस हो रहा है कि और अधिक नुकसान पहुंचा दिया गया है।
14वें वित्त आयोग की सिफारिशों का विरोध उन्होंने दो आधार पर किया था। पहला यह कि आवंटन 2011 की जनगणना को आधार बनाकर किए गए, यानी राज्यों की जनसांख्यिकी पर सबसे अधिक जोर दिया गया और दूसरा, आयोग ने अपनी सिफारिशों में दक्षिणी राज्यों द्वारा की गई तरक्की को पर्याप्त महत्व नहीं दिया। उससे पहले के आयोग की अनुशंसाएं 1971 की जनगणना पर आधारित थीं और उनमें राज्यों की जनसांख्यिकी को बहुत कम अहमियत दी गई थी। 15वें वित्त आयोग ने बगैर किसी क्षतिपूर्ति या पारितोषिक के उसी राह को अपना लिया है।
दक्षिणी राज्यों को ऐसा लगता है कि अच्छे प्रदर्शन के लिए केंद्र द्वारा पुरस्कृत करने की बजाय उन्हें सजा दी जा रही है। पिछले चार दशकों से भी अधिक समय में तमाम दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण के मामले में बेहतर काम किया है। उत्तर के कुछ राज्यों के मुकाबले ये जनसांख्यिकीय रूप से छोटे हैं। कर राजस्व का आवंटन किसी राज्य की आबादी से परस्पर संबंधित है। साल 1991 के आर्थिक सुधारों के वक्त से ही दक्षिणी राज्यों की प्रतिव्यक्ति आय उत्तर भारत के प्रदेशों की बनिस्बत कहीं अधिक तेजी से बढ़ी। साल 1991 में कर्नाटक की प्रतिव्यक्ति आय बिहार व उत्तर प्रदेश के मुकाबले 1.7 गुना व 1.3 गुना अधिक थी। साल 2017-18 में यह बढ़कर क्रमश: 4.7 गुना और 3.3 गुना हो गई। साफ है, आर्थिक प्रगति के मोर्चे पर उत्तर भारतीय प्रदेशों के मुकाबले दक्षिणी प्रांत कहीं अधिक तेजी से आगे बढ़े।
14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के क्रियान्वयन को लेकर भी दक्षिणी सूबे नाराज थे, क्योंकि उसमें उनसे जो वादा किया गया है, वह हिस्सा भी उन्हें पूरा नहीं दिया गया। जहां तक केंद्र और राज्यों के संबंध का मामला है, तो उसमें तीन बुनियादी बदलाव आए हैं। राज्य इन बदलावों को लेकर चिंतित भी हैं और अब भी उनसे सामंजस्य बिठाने के लिए जूझ रहे हैं। ये बदलाव हैं- एक, योजनागत व गैर-योजना खर्च को खत्म कर दिया गया है; दो- योजना आयोग की जगह नीति आयोग के गठन के बाद केंद्र और राज्यों के बीच अनुदानों व केंद्रीय मदद के लिए मोल-तोल समाप्त हो गया है और तीन, जीएसटी ने राज्यों से कर लगाने के कई अधिकार छीन लिए हैं और राज्यों को अब तक यह ठीक-ठीक एहसास नहीं हुआ है कि उनका हिस्सा कितना है? अलबत्ता, वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में इस समस्या के समाधान का वादा किया है। मौजूदा स्थिति में राज्यों को शायद अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जैसे नए वित्तीय मॉडल देखने पड़ेंगे। वैसे भी, शराब और बिजली भुगतानों को जीएसटी के तहत लाए जाने की बात पहले से चर्चा में है।
राज्य सरकारों की चिंता निराधार नहीं है। केंद्रीय हस्तांतरण के मद्देनजर साल 2019-20 के लिए कर्नाटक ने अपना अंतरिम बजट 39,806 करोड़ रुपये का बनाया था, पर वह 38,134 करोड़ ही पा सका। साल 2020-21 में तो उसे 31,180 करोड़ रुपये ही मिलेंगे, यानी पिछले राजस्व के मुकाबले सीधे 6,954 करोड़ रुपये की कटौती! तेलंगाना की मुलाकात भी इसी नियति से होगी। ये दोनों राज्य विशेष केंद्रीय अनुदान की बदौलत इस खाई को पाटने की आस केंद्र से लगाए हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को सहयोगात्मक संघवाद की राह पर आगे ले जाने का वादा किया था। दक्षिणी राज्य अब उस वादे की याद दिलाते हुए कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था तो इसकी विपरीत दिशा में जा रही है।
केंद्र और दक्षिणी राज्यों के संबंधों में तनाव का एक बड़ा बिंदु संसदीय सीट भी हैं, जो जनसंख्या के आधार पर निर्धारित होते हैं। दक्षिणी राज्यों में यह गहरी चिंता है कि सीटों के अगले परिसीमन में न जाने उनकी कितनी सीटें कम हो जाएं? अनुमान है कि 2031 तक दक्षिणी राज्य लोकसभा में अपनी 45 सीटें उत्तर भारत के हाथों गंवा सकते हैं। यकीनन यह दक्षिण को स्वीकार नहीं होगा। केंद्र और उत्तरी राज्यों का फर्ज है कि वे ऐसा न करें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)