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विरोध और प्रदर्शनों के बीच

नागरिकता (संशोधन) विधेयक (सीएबी) के पारित होने के साथ ही देश भर में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। इसकी आलोचनाओं को दो अलग-अलग नजरिए से देखा जा सकता है। पहली सोच होगी, विरोधों को कानूनी प्रावधानों के...

विरोध और प्रदर्शनों के बीच
चिंतन चंद्रचूड़, विधि विशेषज्ञFri, 27 Dec 2019 12:30 AM
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नागरिकता (संशोधन) विधेयक (सीएबी) के पारित होने के साथ ही देश भर में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। इसकी आलोचनाओं को दो अलग-अलग नजरिए से देखा जा सकता है। पहली सोच होगी, विरोधों को कानूनी प्रावधानों के चश्मे से देखना। दीगर है कि इस अधिनियम की सांविधानिकता को चुनौती देने वाली दर्जनों याचिकाएं सर्वोच्च अदालत में दायर की गई हैं। अपनी बात रखने के लिए शीर्ष अदालत तमाम याचिकाकर्ताओं को मौका देगी और फिर उस आधार पर अपना फैसला सुनाएगी। लिहाजा यह तर्क दिया जा सकता है कि आलोचकों को न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा रखना चाहिए और संविधान की व्याख्या करने की अपनी भूमिका के निर्वहन का काम अदालत पर छोड़ देना चाहिए।
दूसरा नजरिया है, आलोचनाओं को सहानुभूति की नजरों से देखना। यह सोच कानून की सार्थक समझ पर आधारित है। इस तरह के दृष्टिकोण में, विरोध और मुकदमेबाजी पारस्परिक रूप से एक नहीं होते, बल्कि समानांतर चलते रहते हैं। जो राज्य विरोध-प्रदर्शनों को इस तरह देखता है, वह आंदोलनकारियों के साथ सख्ती बरतने की बजाय नरम रवैया अपनाता है, फिर चाहे विरोध समय-समय पर हाथ से बाहर क्यों न निकल जाए।

हमारे पास पहले के मुकाबले दूसरे नजरिए को अपनाने की मजबूत सैद्धांतिक वजहें हैं। संविधान की व्याख्या करने के लिए सिर्फ अदालत नहीं है। लोगों को भी सांविधानिक व्याख्या की प्रक्रिया में अहम भूमिकाएं निभानी चाहिए। उन्हें इतना सक्षम तो बनना ही चाहिए कि वे यह तय कर सकें कि संविधान के वादे ‘कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून के समान संरक्षण’ जैसे वादे भी) उनके लिए क्या अर्थ रखते हैं, और ये तमाम वादे क्या वाकई हकीकत बन पाए हैं? चूंकि सीएए का मामला अदालत में विचाराधीन है, इसलिए विरोध-प्रदर्शनों को किनारे करने की कई विवेक-सम्मत वजहें भी हमारे पास हैं। पहली, जब कानून की वैधानिकता तय करने की प्रक्रिया अदालत तक पहुंच जाती है, तो सरकार के पास यह मौका होता है कि वह उस कानून में संशोधन कर ले। यह मौका उसके पास तब तक होता है, जब तक कि उसके द्वारा किया गया संशोधन उस वजह को ही खत्म न कर दे, जिसके लिए कानून को अदालत में चुनौती दी गई है। जैसे, इस मामले में सत्ता-प्रतिष्ठान नागरिकता संशोधन अधिनियम का विस्तार अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए सभी प्रताड़ित अल्पसंख्यकों तक कर सकता है, न कि केवल गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों तक। इसके अलावा, एक संशोधन यह भी हो सकता है कि इस अधिनियम में सभी पड़ोसी देशों के धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल किए जाएं, न कि सिर्फ उन्हीं पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यक, जहां इस्लाम प्रमुख धर्म है।

इन संशोधनों पर यदि सत्ता-प्रतिष्ठान आगे बढ़ता है, तो अदालतों में जो याचिकाएं दर्ज की गई हैं, वे सभी बेमानी साबित हो सकती हैं। इसलिए, सरकार की तरफ से जो यह कहा जा रहा है कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम का मामला अदालत में विचाराधीन है, और जब तक मुकदमा चलता रहेगा, इस कानून में संशोधन नहीं किया जा सकता, महज आम जनता को भ्रमित करने की दलील है। मौजूदा स्थिति में कानून में संशोधन न करने का फैसला न तो सरकार की मजबूरी है और न ही कोई सांविधानिक शिष्टता। बल्कि यह एक सार्थक विकल्प हो सकता है। नागरिक समाज चाहे, तो सत्ता को इस विकल्प को अपनाने के लिए प्रेरित कर सकता है।

दूसरी वजह। उन मुकदमों के निपटारे में सुप्रीम कोर्ट का इतिहास बहुत स्पष्ट नहीं है, जिसमें मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को चुनौती दी गई थी। विदेश मामले, राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभु सत्ता के इस्तेमाल से जुडे़ मामले इसमें खासतौर से शामिल हैं। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को सांविधानिक चुनौती देने का मामला इन तीनों से जुड़ता है (कम से कम संभावना यही है कि कानून का बचाव करने वाले इसी तरह अपना पक्ष रखेंगे)। इसके उदाहरण कई हैं, मगर हमें खासतौर से आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (टाडा), सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम और आतंकवाद निरोधक अधिनियम पर गौर करना चाहिए कि शीर्ष अदालत ने कैसे समानुभूतिपूर्वक इन्हें बरकरार रखा।

सत्ता तंत्र जो नैरेटिव गढ़ता है, उससे पार पाना भी मुश्किल हो सकता है। मिसाल के तौर पर, टाडा को बरकरार रखने के अपने फैसले के शुुरुआती पैराग्राफ में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हरेक राष्ट्र ने आतंकवादियों के गैर-कानूनी और आपराधिक गतिविधियों में आई तीव्रता के खिलाफ अब अपनी सुरक्षा-व्यवस्था को अधिक मजबूत बनाने की जरूरत महसूस की है, ताकि उसकी संप्रभुता पर खतरा न आए और नागरिक सुरक्षित रहें’। इसमें यदि ‘आतंकवादियों’ की जगह ‘आप्रवासियों’ कर दें, तो एक नया नैरेटिव हमारे सामने होगा।

तीसरी वजह। उन मामलों में भी, जिनमें शीर्ष अदालत सख्त रुख अख्तियार करती है, कानून लागू करने को लेकर विधायी बदलाव आम तौर पर अधिक प्रभावी और सहज होता है। ऐसा सरकारी सक्रियता (मूल भावना को दरकिनार करके भी सर्वोच्च अदालत के फैसले का औपचारिक पालन करना) या निष्क्रियता (यह सुनिश्चित करने में विफल रहना कि अदालती फैसले में निहित उच्च नैतिकता के सिद्धांत उन लोगों को झकझोर सकें, जिन पर इन्हें लागू करने की जिम्मेदारी है) के कारण हो सकता है।

सलवा जुड़ूम मामले के याचिकाकर्ता रामचंद्र गुहा (बेंगलुरु में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन के दौरान उन्हें हिरासत में भी लिया गया) इसे बखूबी जानते होंगे। सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद चूहे और बिल्ली का खेल खूब चला था, जिसके कारण सलवा जुड़ूम का हमें बीते वर्षों में कई रूप दिखा। लिहाजा, संसद को अपनी सोच बदलने के लिए राजी करना होगा। अगर नागरिकता (संशोधन) कानून  किसी को असांविधानिक लगता है, तो इस बारे में न तो सरकार को और न ही आम लोगों को यह इंतजार करने की कोई जरूरत है कि शीर्ष अदालत हमें यह बताए। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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