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निशाने पर आ गए साथ खड़े लोग

दिल्ली के वकील अनिल नौरिया आज भारतीय इतिहास और राजनीति का सबसे ज्यादा ज्ञान रखने वाले विद्वानों में एक हैं। वह वकालत के साथ ही शोध और लेखन में भी जुटे रहे हैं। जब भी उनके लेख छपे हैं, मैंने उन्हें...

निशाने पर आ गए साथ खड़े लोग
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारWed, 19 Feb 2020 10:52 PM
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दिल्ली के वकील अनिल नौरिया आज भारतीय इतिहास और राजनीति का सबसे ज्यादा ज्ञान रखने वाले विद्वानों में एक हैं। वह वकालत के साथ ही शोध और लेखन में भी जुटे रहे हैं। जब भी उनके लेख छपे हैं, मैंने उन्हें बड़े चाव से पढ़ा है और ऐसे भी मौके आए हैं, जब उनके लेखों को मैंने लौट-लौटकर पढ़ा है। उन्होंने बहुत गहराई और अधिकार भाव से आजादी की जंग, गांधी, भगत सिंह और सावरकर जैसी हस्तियों पर लिखा है। हालांकि आज के मोड़ पर उनके दो आलेख शायद ज्यादा मौजूं लगते हैं। जम्मू-कश्मीर की सियासत पर ये लेख कुछ साल पहले छपे थे। पहला लेख दिल्ली के साप्ताहिक मेनस्ट्रीम में अगस्त 2002 में प्रकाशित हुआ था, जिसमें दहशतगर्दों द्वारा नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकताओं और नेताओं की हत्याओं को दर्ज किया गया था। साल 1989 में जब कश्मीर घाटी में दहशतगर्दी शुरू हुई, तब कश्मीर की आजादी या पाकिस्तान के साथ विलय की वकालत करने वाले जेहादियों ने उन कश्मीरियों पर हमले शुरू किए, जो इन दोनों ही विकल्पों को खारिज करते थे। 

1990 के दशक में जब दहशतगर्दी चरम पर थी, तब सीमा पार से पोषित, समर्थित आतंकी भारतीय संघ के साथ रहने की चाहत वाले कश्मीरियों के साथ दुश्मनों जैसा सुलूक करते थे। खास तौर पर नेशनल कांफ्रेंस (एनसी) के नेता निशाने पर थे। यह पार्टी शेख अब्दुल्ला के समय से ही दृढ़ सेकुलर पार्टी थी और पाकिस्तान के मजहबी राज्य के खिलाफ थी। मेनस्ट्रीम  में प्रकाशित अपने लेख में नौरिया ने 1990 और 2002 के बीच दहशतगर्दों द्वारा मारे गए नेशनल कांफ्रेंस के अनेक सदस्यों की मिसाल दी है। कई बार तो एनसी नेता फारूक अब्दुल्ला को मारने की साजिश भी रची गई। 

नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या को वैश्विक मीडिया ने नजरंदाज ही किया। ज्यादा अफसोस की बात यह है कि भारतीय मीडिया ने भी ऐसा ही किया। नौरिया कायह लेख एक सम्मानित अपवाद ही है। अपने श्रमसाध्य शोध में उन्होंने पचास से अधिक ऐसी हत्याओं के विवरण दिए हैं- मारे गए शख्स के नाम, तारीख, हत्या की जगह के साथ। 

अनिल नौरिया ने इस प्रकार समझाया है कि केंद्र सरकार ने पिछले 50 वर्षों में कश्मीर में भले ही गलतियां की हैं, लेकिन कश्मीरी मुस्लिमों का एक अहम दृष्टिकोण रहा है और वे भारतीय संविधान के ढांचे के तहत संवाद से एक शांतिपूर्ण समाधान निकालने को तैयार रहे हैं। दूसरी ओर, दहशतगर्द यह सुनिश्चित करने को बेचैन रहे हैं कि ऐसी धारणा रखने वालों को समाप्त कर दिया जाए और जो उनके समर्थक हैं, उन्हें पर्याप्त डरा दिया जाए।
नौरिया ने अपने लेख में लिखा है, नेशनल कांफे्रंस भारत की पुरानी राजनीतिक पार्टियों में एक है और यह सियासी ढांचा इन दिनों जम्मू-कश्मीर में अपने खात्मे की आशंका के रूबरू है। बड़े पैमाने पर ऐसे संहार की गंभीरता से आम भारतीय अनजान ही हैं। असल मायने में भारतीय राष्ट्रीय दृष्टिकोण ने इस महान पार्टी को नाकाम कर दिया है। देश में बहुत कम राजनीतिक विज्ञानियों ने इसकी चिंता की है। बहुत कम इतिहासकारों ने इसका इतिहास लिखने की परवाह की है। जब दहशतगर्दों ने एनसी के कार्यकर्ताओं की हत्या शुरू की, तब या तो उसे रिपोर्ट ही नहीं किया गया या फिर इतने संक्षेप में निपटा दिया गया कि पार्टी के विनाश की भयावहता संपूर्णता में देश के पाठकों तक नहीं पहुंच पाई। 

अनिल नौरिया ने साल 2005 में ट्रिब्यून  में एक लेख लिखा था। इस बार उनका लेख पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के कार्यकर्ताओं और नेताओं की हत्या पर केंद्रित था। इसके तीन साल पहले पीडीपी जम्मू-कश्मीर की सत्ता में आई और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सरकार में रही थी। भारतीय संविधान के साथ पीडीपी के लगाव ने आतंकियों की दुश्मनी को आमंत्रित किया। नौरिया ने 2002 के बाद मारे गए पीडीपी के 30 प्रमुख सदस्यों का विवरण दर्ज किया है। गौर करने की बात है, एनसी जब सत्ता में नहीं थी, तब भी उसके कार्यकर्ता आतंकियों के हाथों मारे जा रहे थे। 2005 में प्रकाशित अपने लेख में नौरिया ने बताया है, विडंबना है, 1989 में हिंंदुत्व आंदोलन के उभार के बाद बाकी भारत में बड़े पैमाने पर रहने वाले अल्पसंख्यकों पर, और विशेष रूप से मोदी-शासित गुजरात में, राष्ट्रद्रोही होने का तमगा लगाया गया। दूसरी ओर, इसके बिल्कुल विपरीत वजह से जम्मू-कश्मीर में दहशतगर्द भारत समर्थक पारंपरिक कश्मीरी मुस्लिम नेतृत्व को खत्म करने में लगे थे।     

जब भारत की वर्तमान सत्ता ने नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के आला नेताओं को अनिश्चित काल के लिए जेल में डाल दिया है, तब नौरिया के लेख को फिर देखना कारगर है। जब पिछले वर्ष 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को खत्म किया गया, तब नई दिल्ली में बैठी सरकार ने उन लोगों को ही निशाने पर ले लिया, जो भारत और भारतीय हित में घाटी में भेड़ियों से भिड़ गए थे। यह त्रासद था, क्योंकि अपनी तमाम कमियों, वंशवाद, भ्रष्टाचार के बावजूद एनसी और पीडीपी ने कश्मीरी मुस्लिम मानस के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व किया है, जो भारत के संविधान के तहत एक सम्मानजनक मुकाम की कामना करता था। कहना न होगा, कश्मीरी जनमानस में भारत समर्थक वर्ग कभी बहुमत में नहीं रहा, पर वह कभी अप्रभावी भी नहीं रहा।

घाटी में 1990 का दशक खूनी था, लेकिन साल 2002 के चुनाव के बाद वहां खूनखराबे में कमी आई, पर्यटन बढ़ा। यह उम्मीद की एक खिड़की थी, जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को प्रेरणा मिली और वह दोस्ती के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा सके। प्रधानमंत्री के रूप में उनके उत्तराधिकारी मनमोहन सिंह ने भी ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को आम कश्मीरियों के लिए ज्यादा आकर्षक बनाने की जरूरत को पहचाना था। उन्होंने पहचाना कि सरकार को अपने सांविधानिक बहुलतावाद को सशक्त करना होगा और अपनी आर्थिक तरक्की को भुनाना होगा। 
अगर कश्मीरियों के साथ मान-सम्मान का व्यवहार हो सका, अगर उनकी संस्कृति और आस्था का संरक्षण-सम्मान हो सका, और अगर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की पेशेवर तरक्की के प्रति खासकर कश्मीरी नौजवानों की उम्मीद जगी, तो शायद उनका पाकिस्तान की बजाय भारत के प्रति लगाव ज्यादा बढ़ेगा। लेकिन इस समय तो हमने उन्हीं पार्टियों और लोगों को निराश कर दिया है, जो घाटी में हमारे साथ खड़े थे। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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