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मूल और बाहरी के उलझे धागे

असम में इस सप्ताह हमने देख लिया कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) कितना जटिल मसला है। साथ ही नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 (सीएए) भी उतना ही विवादास्पद विषय है। इनमें से एक अगर देता है, तो दूसरा...

मूल और बाहरी के उलझे धागे
सुदीप चक्रवर्ती, वरिष्ठ पत्रकार Thu, 19 Dec 2019 11:08 PM
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असम में इस सप्ताह हमने देख लिया कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) कितना जटिल मसला है। साथ ही नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 (सीएए) भी उतना ही विवादास्पद विषय है। इनमें से एक अगर देता है, तो दूसरा उसे वापस ले लेता है। विशेष रूप से असम के दक्षिण-पूर्व में बंगाली बहुल बराक घाटी क्षेत्र में स्थितियां पूरी तरह उलझ गई हैं। असम में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार अगस्त के महीने तक एनआरसी के पक्ष में नजर आ रही थी, लेकिन एनआरसी के जब आंकड़े आए, तब स्थितियां अचानक बदल गईं। जो लोग एनआरसी के तहत नहीं आ पाए, उनकी संख्या करीब 19 लाख थी, लेकिन इनमें से ज्यादातर गैर-मुस्लिम निकले। 

केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने जो नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया है, उसके तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए गैर-मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता दी जा सकती है। जो गैर-मुस्लिम पांच साल से भारत में रह रहे हैं, उन्हें यहां की नागरिकता मिल जाएगी। गौर करने की बात है कि असम-समझौते के अनुसार, साल 1971 तक भारत आए हुए लोगों को ही नागरिकता देने का प्रावधान था। असम में मूल निवासियों के बीच इस बदलाव का ज्यादा विरोध हो रहा है। अब लगभग यह साफ हो गया है कि पूरे असम में भाजपा के आक्रामक और समर्पित कार्यकर्ता भी एनआरसी और सीएए का खुलकर विरोध करने लगे हैं। 

सीएए को भारतीय संसद ने 11 दिसंबर को पारित किया और औपचारिक रूप से दो दिन बाद यह कानून बन गया। असम में प्रदर्शनकारियों और राहगीरों पर पुलिस ने गोलियां चलाईं, कफ्र्यू लग गया, इंटरनेट सेवाओं को बाधित कर दिया गया। लोगों के तात्कालिक गुस्से पर राज्य और केंद्र की सरकारों को गहराई से गौर करना चाहिए, इसे लोगों की महज सामान्य नाराजगी के रूप में नहीं देखना चाहिए। असम के ज्यादातर मूल निवासी जहां एनआरसी को बांग्लादेश से आए अवैध आव्रजकों या घुसपैठियों को वापस भेजने के प्रयास के रूप में देखते हैं, वहीं सीएए के बारे में यह धारणा है कि इसके जरिए गैर-मुस्लिम आव्रजकों को भारतीय नागरिक के रूप में वैधता हासिल हो जाएगी। 

भारतीय जनता पार्टी झारखंड में जारी विधानसभा चुनाव और उसके बाद अगले साल दिल्ली, बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कमजोर नहीं दिखना चाहती है। इसीलिए भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने दोहरा दिया है कि पार्टी एनआरसी और सीएए के प्रति दृढ़ है। केंद्रीय स्तर पर भाजपा या उसकी सरकार भले ही नहीं झुकने की घोषणा कर रही हो, लेकिन जो विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं, उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। 

भारतीय जनता पार्टी को असम में अपनी विश्वसनीयता फिर हासिल करने की कोशिश करनी पड़ेगी। इस राज्य में भाजपा की सहयोगी पार्टी असम गण परिषद के कार्यालयों को भी असमी प्रदर्शनकारियों ने निशाना बनाया है। असम गण परिषद और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं और पदाधिकारियों को भी विरोध कर रहे लोगों ने जगह-जगह घेरा है। कुछ स्थानीय नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व से इसकी शिकायत भी की है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि असम के लोग और राजनेता बराक घाटी की स्थिति और समस्याओं से कैसे जूझते हैं। प्राथमिक रूप से निगाह बंगाली बहुल जिलों कछार, हैलाकंडी और करीमगंज पर टिकी है। 

कछार निश्चित रूप से सीएए-समर्थक जिला है। यहां की आबादी अधिकतर बंगाली हिंदू है, उसे विश्वास है कि एनआरसी द्वारा किसी को बाहर किया जा सकता था, लेकिन सीएए द्वारा ही सुरक्षा कवच हासिल होगा। असम में लंबे समय से असमिया, बोडो और अन्य मूल निवासियों के बीच बाहर से आए लोगों के खिलाफ एकजुटता और परस्पर तालमेल रहा है। भले ही यहां लंबे समय से बंगालियों ने चाय बगानों में काम किया हो, लेकिन इस तथ्य को मूल निवासी ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं। कई लोग हैं, जिनके पूर्वजों को औपनिवेशिक काल में छोटानागपुर क्षेत्र से चाय बगानों में काम करवाने के लिए लाया गया था। कुछ जनजातियां बहुत पहले ही आकर यहां बस गई थीं, लेकिन उन्हें अभी भी बाहर का ही माना जाता है। स्थानीय मूल निवासी यहां दशकों से वैध या अवैध तरीके से बसे मुस्लिमों को तो खैर बाहर का मानते ही हैं। 1980 के दशक का असमिया राष्ट्रवाद और उसके बाद के बोडो राष्ट्रवादी आंदोलन की भयावहता इसी तरह के मुद्दों पर आधारित रही है। 

कछार, हैलाकंडी और करीमगंज का एक जटिल इतिहास है। 1826 में असम और बाद में कछार को जीतने के बाद अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने इन इलाकों का विलय बंगाल रियासत में कर दिया था। 1857 के विद्रोह के बाद प्रशासनिक पुनर्गठन किया गया। सिलहट, गोलपारा और कछार इत्यादि बड़े पैमाने पर बांग्लाभाषी जिलों का नए प्रांत असम में विलय कर दिया गया और कमान तत्कालीन मुख्य संभागायुक्त को सौंप दी गई। 

भारत की आजादी और विभाजन के समय 1947 में करीमगंज उप-मंडल में सिलहट के पूर्वी छोर को छोड़कर, मुस्लिम-बहुल सिलहट का अधिकांश भाग पाकिस्तान (पूर्वी पाकिस्तान या आज का बांग्लादेश) में चला गया। भारत के हिस्से में आए करीमगंज के इलाके कछार में शामिल कर दिए गए, यह तभी से बंगाली बहुल क्षेत्र रहा है। 

यह बात छिपी नहीं है कि यह बंगाली बहुल क्षेत्र असम के कट्टर भाषाई स्वरूप का विरोधी बना हुआ है। यह क्षेत्र 1960 के भाषा आंदोलन में भी शामिल था, जिसके कारण इस क्षेत्र को बांग्ला भाषा को प्राथमिक रूप से उपयोग करने का अधिकार मिल गया था। इसका एक पक्ष यह भी है कि यह बांग्लादेश से पलायन कर आने वालों का भी क्षेत्र बना हुआ है। मुस्लिम बहुल बांग्लाभाषी करीमगंज और हैलाकंडी जैसे जिले 1980 के दशक में ही कछार से अलग करके ही बनाए गए थे। 

कछार काफी हद तक बंगाली-हिंदू आबादी वाला जिला है और स्वाभाविक रूप से एनआरसी और सीएए, दोनों से प्रभावित क्षेत्र है। असम जहां बहुसंख्यक धार्मिक राजनीति और बहुसंख्यक जातीय चिंताओं के बीच सांठगांठ के घाव झेल रहा है, वहीं कछार जैसे जिले भी हैं, जहां स्थितियां भिन्न हैं, कम से कम अभी के लिए। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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