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निगाहें ब्रिटेन पर, निशाना भारत

अभी कालापानी विवाद की आग ठंडी भी नहीं हुई कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने गोरखा सैनिकों से संबंधित पुराने मुद्दे को उठा दिया। निगाहें ब्रिटेन पर हैं, मगर निशाना भारत है। 12 फरवरी, 2020 को...

निगाहें ब्रिटेन पर, निशाना भारत
पुष्परंजन, संपादक, ईयू-एशिया न्यूजTue, 18 Feb 2020 10:11 PM
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अभी कालापानी विवाद की आग ठंडी भी नहीं हुई कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने गोरखा सैनिकों से संबंधित पुराने मुद्दे को उठा दिया। निगाहें ब्रिटेन पर हैं, मगर निशाना भारत है। 12 फरवरी, 2020 को नेपाली विदेश मंत्रालय ने लंदन को एक प्रस्ताव भेजा, जिसमें कहा गया है कि ब्रिटेन 1947 में हुए उस त्रिपक्षीय समझौते का पुनरीक्षण करे, जिसके तहत गोरखा सैनिकों के वेतन, भत्ते, पेंशन आदि का निर्धारण हुआ था। नेपाली विदेश मंत्रालय ने ब्रिटेन को भेजे पत्र में 15 मार्च, 2020 की समय-सीमा निर्धारित की है। पत्र में ब्रिटेन से अनुरोध किया गया है कि ‘असमान गोरखा समझौते’ पर बातचीत के लिए ब्रिटेन एक साझा टीम बनाए। 

गोरखा सैनिकों के नाम से अभी जो खटराग प्रधानमंत्री ओली ने छेड़ा है, वह स्वत:स्फूर्त नहीं है। राजतंत्र के समय से ही नेपाली माओवादियों का यह पुराना एजेंडा रहा है कि गोरखा सैनिकों के मुद्दे को विवादित बनाकर भारत पर दबाव की कूटनीति जारी रखी जाए। साल 2008 में पुष्प कमल दाहाल ‘प्रचंड’ ने 58 पेज की एक रिपोर्ट नेपाली संसद में रखी थी, जिसे ‘गोरखा सैनिकों के मानवाधिकार’ का मुद्दा बनाकर प्रस्तुत किया गया था। 17 मई, 2018 को नेपाली माओवादी और नेकपा (एमाले) के विलय के बाद इस विषय को ओली ने टॉप एजेंडे में शामिल कर लिया था। नई नवेली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के रणनीतिकार इस गड़े मुर्दे को उखाड़ना चाहते हैं। 

दरअसल, इस समय नेपाल में गोरखा रेजिमेंट के एक लाख, 27 हजार पेंशनभोगी बताए जाते हैं। इनमें से 45 हजार गोरखा सैनिक भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। गोरखा सैनिकों का गौरवशाली इतिहास मुगलों के समय से रहा है, जब उन्हें स्थानीय भाषा में ‘मुगलायन’ कहते थे। 1 नवंबर, 1814 से 4 मार्च 1816 तक एंग्लो-नेपाल युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को गोरखा सैनिकों की ताकत का अंदाजा हो चुका था। उस समय सर डेविड ऑक्टेरलोनी के प्रयासों से 1815 में मलाऊं रेजिमेंट बनाई गई, जिसे फस्र्ट गोरखा रेजिमेंट या किंग जॉर्ज पंचम रेजिमेंट के नाम से जाना जाता है। 

सन 1947 से पहले ब्रिटिश भारत में गोरखा सैनिकों के दस रेजिमेंट थीं। आजादी के समय भारत, नेपाल और ब्रिटेन के बीच गोरखा रेजिमेंट को लेकर एक समझौता हुआ, उसके बाद चार रेजिमेंट ब्रिटिश आर्मी का हिस्सा बन गईं, जबकि बाकी छह- फस्र्ट किंग जॉर्ज, थर्ड क्वीन अलेक्जेंड्रिया, फोर्थ प्रिंस वेल्स, फिफ्थ रॉयल गोरखा राइफल्स और आठवीं व नौवीं गोरखा रेजीमेंट भारतीय सेना का हिस्सा बन गईं। नेपाल की आपत्ति यह है कि जो दस्तावेज 1947 में तैयार हुए, उसके अनुसार समान सुविधाएं, शर्तें, वेतन, भत्ते गोरखा सैनिकों को नहीं मिल रहे हैं। ओली ने जब से नेपाल में सरकार की दूसरी पाली संभाली है, वह उन तमाम समझौतों को छेड़ने में लग गए हैं, जो उनकी पार्टी की नजर में असमान हैं। 

13 जून, 2019 को नेपाली प्रधानमंत्री जब ब्रिटेन गए, तो वहां भी वह गोरखा विवाद की गोली दाग आए। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे से ओली और उनके विदेश मंत्री ने इस तथाकथित असमान गोरखा समझौते पर बात की और उनसे अनुरोध किया कि इसे साझा बयान का हिस्सा बनाया जाए। उस वक्त ऐसा नहीं हुआ। ब्रिटेन से लौटकर त्रिभुवन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ही उन्होंने दुख प्रकट किया कि ब्रिटेन ने जान-बूझकर इसे साझा बयान का हिस्सा नहीं बनाया, मगर गोरखा सैनिकों के साथ भेदभाव पर हम चुप नहीं बैठने वाले। नेपाल के अनुसार, दूसरी, छठी, सातवीं और दसवीं ब्रिटिश-गोरखा रेजिमेंट में जो भारतीय मूल के सैनिक हैं, उनके वेतन, भत्ते, पेंशन व दूसरी सुविधाएं नेपाली मूल के गुरखाली सैनिकों से बेहतर हैं। 

यह ध्यान में रखने की बात है कि 2007 में इस डील का पुनरीक्षण ब्रिटेन कर चुका है। उस समय यह तय हुआ कि जो गोरखा सैनिक 1993 के बाद ब्रिटिश सेना में भर्ती हुए और जिन्होंने 2007 में अवकाश ग्रहण किया, वे समान वेतन, पेंशन व अन्य सुविधाओं के हकदार होंगे। इसमें वे गोरखा सैनिक इन तमाम सुविधाओं से वंचित हो गए, जिनकी नियुक्तियां 1975 से 1993 के बीच हुईं, और जो 2007 से पहले रिटायर हो चुके थे। 

सवाल यह है कि नेपाल के दबाव में ब्रिटेन नहीं आता है, तब क्या होगा? क्या 1947 में हुआ वह त्रिपक्षीय समझौता रद्द हो जाएगा? गौरतलब बात यह है कि इस त्रिपक्षीय समझौते में एक पक्षकार भारत भी है। जो गोरखा सैनिक ब्रिटिश सेना में हैं, उन्हें लेकर किसकी दिलचस्पी हो सकती है? इस पूरे खेल की पटकथा चीन लिख रहा है, ऐसा संदेह उसके पुराने कारनामों को लेकर किया जा सकता है। चीन सुदूर पश्चिमी नेपाल के रोल्पा, डोल्पा, रूकम में रिटायर्ड गोरखा सैनिकों के बूते अपनी विचारधारा को कैसे आगे बढ़ाता रहा, उसकी तफसील काफी लंबी है।

एक बड़ी घटना 21 नवंबर, 1962 को युद्ध विराम के बाद घटी थी। चीन ने 21 फरवरी, 1963 को जानकारी दी कि भारत के 3,940 सैनिक उसकी हिरासत में हैं। उस साल जून तक सारे युद्धबंदी रिहा कर दिए गए। उनमें जो गोरखा सैनिक थे, उन्हें चीन ने अपना एजेंट बनाने का प्रलोभन दिया था। चीन उन सात महीनों में नेपाल से सौदेबाजी करता रहा कि गोरखा सैनिक नेपाली मूल के हैं, चुनांचे हम उन्हें सीधे नेपाल को सौंप सकते हैं। नेपाल ने इससे इनकार कर दिया था। इस प्रकरण का खुलासा बाद के दिनों में ब्रिटिश ब्रिगेडियर सर जॉन स्मिथ के एक शोधपत्र से हुआ, जिसमें उन्होंने संदेह व्यक्त किया था कि गोरखा रेजिमेंट के युद्धबंदियों का ब्रेनवाश करके चीन, नेपाल में अपने वैचारिक विस्तार के साथ उनका भारत के विरुद्ध रणनीतिक इस्तेमाल करना चाहता है। चीन, गोरखा सैनिकों के जरिए क्या किसी पुराने चक्रव्यूह को नए सिरे से रच रहा है? इसकी टोह भारत सरकार को अवश्य लेनी चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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